किसी साधु का अंगवस्त्र, पगड़ी, कुटिया.. सबकुछ टाट का बना हुआ देखकर किसी को भी अजीब लग सकता है, लेकिन निर्मोही अनी अखाड़े के नागा साधु टाटम्बरी बापू (85) के लिए यह सामान्य है। वह नागा सन्यासी बनने के बाद से ही टाट में जीवन व्यतीत कर रहे हैं। गुजरात के जूनागढ़ से आए टाटम्बरी बापू ने कहना है कि 12 साल की तपस्या के बाद गुरू परंपरा के तहत उन्हें उनके गुरू से टाट का बना अंगवस्त्र मिला है।
टाटम्बरी बापू ने बताया कि टाट अत्यंत पवित्र और सात्विक वस्त्र है, जिसे कैकेयी माता ने वनगमन के समय भगवान राम को दिया था। टाट का एक वस्त्र बनाने में एक वर्ष का समय लग जाता है, जबकि दो-तीन माह में यह फट जाता है। हरिव्यासी महानिर्वाणी निर्मोही अखाड़ा के मंत्री महंत देवनाथ दास ने बताया कि 12 साल की तपस्या के बाद बापू को विधि विधान से टाटम्बरी की गद्दी सौंपी गई। इसके लिए एक विशाल भंडारे का आयोजन किया गया, जिसमें तीनों अनी अखाड़े के साधु संत शामिल हुए।
उन्होंने बताया कि टाटम्बरी बापू करपात्री संत हैं यानी उनकी हथेली ही उनका भोजन का पात्र है और उसी में ही वह भोजन आदि ग्रहण करते हैं। बापू का बचपन पावागढ़ में बीता और वर्तमान में वह गिरनार में गौसेवा करते हैं। देवनाथ दास ने बताया कि टाटम्बरी बापू की महत्ता इसी बात से समझी जा सकती है कि हर कुम्भ में अखाड़ा परिसर में ईष्ट देव की चरण पादुका के पीछे और बगल में इनकी कुटिया बनती है। अखाड़े में नागा बनने के बाद ही व्यक्ति महंत और श्रीमहंत बनता है।
देवनाथ दास ने बताया कि बापू गिरनार में गौसेवा करते हैं, लेकिन उन गायों के दुग्ध उत्पादों का उपभोग नहीं करते, बल्कि घी का उपयोग दिया जलाने में करते हैं। वह चौबीस घंटे में एक बार ही भोजन करते हैं। उल्लेखनीय है कि वैष्णव संप्रदाय के तहत आने वाले अखाड़ों के नागा साधु भगवान राम और कृष्ण के उपासक होते हैं और नग्न नहीं रहते, जबकि शैव संप्रदाय के नागा साधु भगवान शिव के उपासक होते हैं और शाही स्नान आदि के समय वे नग्न अवस्था में दिखाई देते हैं। पूरे मेले का मुख्य आकर्षण नागा साधु रहते हैं जो केवल कुम्भ मेले में ही आते हैं।