सद्गुणी आत्मा में दीप जलेगा, तो दीपमाला से रोशन होगा विश्व

By लोकमत न्यूज़ डेस्क | Published: November 8, 2020 02:37 PM2020-11-08T14:37:59+5:302020-11-08T14:45:08+5:30

अंतरराष्ट्रीय व्याख्याता ब्रह्मकुमारी शिवानी दीदी ने कहा- हम जैसा सुनते हैं, पढ़ते और देखते हैं, उसके मुताबिक इमोशनल हेल्थ (भावनात्मक स्वास्थ्य) बनती है और हम वैसे ही बनते हैं. जैसे हमारे विचार बनते हैं, वैसे ही कर्म होते हैं. कर्म से संस्कार बनेंगे और संस्कार से संसार बनेगा.

Shivani didi talk with vijay darda on dealing stress in coronavirus lockdown situation | सद्गुणी आत्मा में दीप जलेगा, तो दीपमाला से रोशन होगा विश्व

लोकमत समूह के चेयरमैन व पूर्व सांसद विजय दर्डा ने शिवानी दीदी के साथ की खास बातचीत।

Highlightsलोकमत समूह के चेयरमैन व पूर्व सांसद विजय दर्डा ने शिवानी दीदी के साथ किया संवाद।‘मौजूदा संघर्षपूर्ण परिस्थितियों में सुखी और संतुष्ट जीवन का राज’ विषय पर हुई खास चर्चा।

नागपुर। अंतरराष्ट्रीय व्याख्याता ब्रह्मकुमारी शिवानी दीदी ने कहा कि हम सुख, शांति और संतुष्टि के लिए भौतिकता की ओर भाग रहे हैं. यह हमारे भीतर है, कहीं जाने की आवश्यकता नहीं. हमें यह पता होना चाहिए कि ‘मैं कौन हूं’. जिस दिन हम प्रश्न का उत्तर खोज लेंगे, उस दिन सुख-शांति और संतुष्टि की तलाश खत्म हो जाएगी. आत्मनिर्भर भारत या विश्व बनाने के लिए हमें अपनी आत्मा को आत्मनिर्भर बनाना होगा. दिवाली का पावन पर्व आ रहा है. हम संकल्प करें कि हमारे मन में सकारात्मकता का दीप जले. हर किसी के मन में सकारात्मकता का दीप जलेगा तो विश्व दीपमाला से रोशन होगा. शिवानी दीदी, लोकमत समूह के चेयरमैन व पूर्व सांसद विजय दर्डा से संवाद कार्यक्रम में अपने विचार व्यक्त कर रही थीं. लोकमत समूह की ओर से ‘मौजूदा संघर्षपूर्ण परिस्थितियों में सुखी और संतुष्ट जीवन का राज’ विषय पर यह ऑनलाइन कार्यक्रम आयोजित किया गया था. संवाद में प्रश्न-उत्तरों के प्रमुख अंश..

‘मैं डरा सा हूं’, यह भावना हर एक के मन में है. कोविड के दौर में नकारात्मकता बढ़ गई है. खासतौर पर युवाओं में काफी डर है. इस बारे में आपके विचार क्या हैं?

संकल्प, सोच, भावनाएं, वाणी और व्यवहार यह सभी ऊर्जा हैं. इसे हम स्वयं रचते हैं. यह परिस्थिति और लोगों के व्यवहार पर निर्भर नहीं होती. कोविड से पहले भी हम गुस्सा, चिड़चिड़ापन, दु:ख, चिंता और डर की बात करते थे. आत्मनिर्भर का अर्थ है आत्मा स्वयं पर निर्भर, लोगों और परिस्थितियों पर नहीं. मन की भावनाएं, शब्द और व्यवहार के लिए दूसरों को जिम्मेदार न ठहराएं. भाषा को बदलें. मन की स्थिति की जिम्मेदारी लें. ऐसे में परिस्थिति भले ही अनुकूल न हो पर हमारे मन की स्थिति अनुकूल होगी. अचल-अटल मन ही बाहर के संकट का सामना कर सकता है. संकल्पों से सृष्टि और सिद्धि होती है. मन की शक्ति जैसे-जैसे बढ़ेगी, हम भय से मुक्त होते जाएंगे.

निडरता की बात आती है तो महात्मा गांधी का नाम सबसे पहले आता है. उन्होंने अहिंसा के माध्यम से हिंसा को दूर किया. ऐसे ही भगवान बुद्ध और भगवान महावीर ने भी यह संदेश दिया. महात्मा गांधी ने कहा था कि मैं शांति पुरुष हूं, पर मैं किसी और की कीमत पर शांति नहीं चाहता. ओशो भी कहते हैं कि सुख नहीं, शांति खोजो. सुख और शांति कैसे प्राप्त की जाए?

खुशी, सुख, शांति के सही भाव-अर्थ समझने होंगे. हम इन्हें बाहर ढूंढ रहे हैं. भौतिक सुख शरीर को आराम देते हैं, मन को नहीं. मन की शांति के लिए सही संकल्प रचने पड़ते हैं. शांति आत्मा का धर्म है. सद्गुण, आत्मा के धर्म हैं. यह आत्मा के स्वभाव और संस्कार हैं. सात गुण पवित्रता, शांति, सुख, शक्ति, प्रेम, ज्ञान और आनंद हैं. हम इसे भूल जाएंगे तो हम अपने स्वभाव को तनाव, चिंता, डर, ईष्र्या, स्पर्धा, शिकायतों वाला बना लेंगे. वो हमारा स्वभाव नहीं था. जैसे हमारे संस्कार होंगे, वैसा ही संसार बनेगा. 

शांति और सुख हमारा संस्कार है, शायर साहिर लुधियानवी ने बात लिखी थी कि ‘मैं जिंदगी का साथ निभाता चला गया’. इसमें जीवन जीने की कला उन्होंने बताई है. वैराग्य से आध्यात्म की ओर ले जाने का रास्ता बताया है. इसे पाने के लिए मनुष्य को क्या करना होगा?

आत्मा अजर, अमर और अविनाशी है. जब आत्मा, शरीर छोड़ती है तो वह अगले गर्भ में प्रवेश करती है. यह आत्मा अपने साथ संस्कार और कर्म लेकर जाती है. संस्कारों और कर्मो पर ग्रहों के प्रभाव के जरिए ही जन्मपत्रिका बनती है. पूर्व और वर्तमान कर्म से ही भाग्य बनता जाता है. स्वीकारना सवरेत्तम गुण है.

हमारी संस्कृति व हमारे मूल्य हिंदुस्तान की सबसे बड़ी उपलब्धि हैं. किंतु जीवन विज्ञान हम भूल गए हैं. हमारे शैक्षणिक ढांचे के आसपास ही पालक भी बच्चों को उतनी ही शिक्षा दे रहे हैं. इसके बाहर हम कैसे उन्हें निकालेंगे?

जब तक हम यह सोचेंगे कि खुशी और सफलता बाह्य चीजें हैं तो हम बाहर से ही सीखेंगे. इसका ये मतलब नहीं कि हम बाह्य चीजांे से न सीखें, सीखना तो है ही. किंतु सीखते-सीखते अपने निज संस्कार, अपनी मर्यादाएं, अपने परिवार की मर्यादाएं, अपने देश की मर्यादाएं भूल जाना नुकसानदेह है. हर कार्य के लिए नियम, संयम और मर्यादाएं होती हैं.

आज विश्व हमारा घर हो चुका है. हमारी सीमाएं बढ़ चुकी हैं. हम धर्म के बहुत करीब जा रहे हैं. डर, स्पर्धा के दौर में मनुष्य धर्म के अधिक करीब जाना चाहता है. धर्म में शांति-सुख का पाठ सभी पढ़ा रहे हैं पर धार्मिक कट्टरता की वजह से धर्म के नाम पर खून की नदियां बह रही हैं. महिलाओं पर अत्याचार बढ़ रहे हैं. निष्पाप लोग मारे जा रहे हैं. यही वजह है कि कई देशों में लोग धर्म को छोड़ रहे हैं. वे धर्म से ही डरे हुए हैं. इसके लिए कौन जिम्मेदार है और इस परिस्थिति से हम कैसे बाहर आएं?

जब मन की शक्ति कम होने लगती है तो पांच विकार आ जाते हैं- काम, क्रोध, लोभ, मोह और अहंकार. अलग-अलग युग में इन विकारों को दूर करने के लिए धर्म स्थापक हुए. उन्होंने हमें जीवन जीने का तरीका सिखाना शुरू किया. सभी धर्म स्थापक ने एक ही बात सिखाई-परमात्मा एक है. तरीका अलग था, ज्ञान एक ही था. हमने एक-दूसरे में भेद शुरू कर दिया. कोई धर्म लड़ना नहीं सिखाता. आत्मा स्वधर्म में स्थित हो तो हम आपस में जुड़ जाएंगे. बस, संस्कारों में थोड़ा सा परिवर्तन लाना है.

स्टैंडफोर्ड यूनिवर्सिटी में शोध करने वाले प्रो. डॉ. गाल्टिन ने कहा है कि मीडिया, जर्नलिज्म ऑफ पीस करता है पर पीस जर्नलिज्म नहीं करता. विश्व की सुख-शांति के लिए मीडिया अपनी भूमिका योग्य ढंग से कर रहा है या नहीं?

इमोशनल हेल्थ जैसा हम सुनते हैं, पढ़ते हैं और देखते हैं उससे बनती है. वही हम बनते हैं. जो हमारी सोच बनेगी, वही कर्म में आएगी, कर्म से संस्कार बनेगा और संस्कार से ही संसार बनेगा. मीडिया और सोशल मीडिया से हम क्या देख, सुन, पढ़ रहे हैं, वह हमारी सोच और संस्कार को प्रभावित कर रहे हैं. आज के बच्चे भारत की संस्कृति को कम, अलग-अलग देशों की संस्कृति को देख, पढ़, सुन रहे हैं. ऐसे में उनके सोचने का तरीका, उनकी भाषा, परिधान सब कुछ बाहर की संस्कृति से प्रभावित है. रहना देश में है, सोच विदेश की हो गई, संघर्ष तो होगा ही.

अमेरिका के राइटर साइमन सिनेक ने अपनी किताब में लिखा है कि चाइना, साउथ कोरिया, जापान में इंटरनेट का जो फैलाव हुआ है, इसके कारण 5 से 15 साल के बच्चे बहुत कुछ देख, सीख रहे हैं. इससे हिंसा भी पैदा हो रही है, कई गुण-दुर्गुण आ रहे हैं. पुराने समय में माता-पिता बच्चों के मूल्यों और संस्कारों पर जितना जोर देते थे. आज के दौर में पालकत्व कैसा हो?

माता-पिता को बच्चों पर नियम-संयम पालन कराने से पूर्व, उन्हें खुद पर इसे करना होगा. पालकत्व में हर चीज खुद करनी होगी. बच्चों पर इसका प्रभाव पड़ रहा है. ब्रह्मकुमारीज में हम गर्भ संस्कार पर शोध कर रहे हैं. बच्चों में 9 महीने के दौरान ही संस्कार आना शुरू हो जाते हैं. उस दौरान माता-पिता का जीवन कैसा था, वही संस्कार बच्चों में आएंगे. छोटी आदतों से हमारी स्थिति बदल सकती है.

जैन धर्म का आधार क्षमा भाव है. किसी से क्षमा मांगने से मन शांत हो सकता है. केवल अहंकार हमें क्षमा से दूर करता है. हम क्षमा नहीं मांगते इसलिए आनंद की अनुभूति नहीं कर पाते. इस पर रहस्योद्घाटन करें?

अगर हम क्षमा नहीं मांगते तो हम सुख से दूर होते हैं, लेकिन हम क्षमा नहीं करते तो भी हम सुख से दूर होते हैं. क्षमा नहीं मांग पाते वह भी अहंकार है, क्षमा नहीं करते वह भी अहंकार है. झुकने से आत्मा की शक्ति बढ़ती है.

किसी की उन्नति को देखकर ईर्ष्या बढ़ रही है. स्पर्धा के जीवन में अशांति है. ऐसे में कैसे जिएं?

पहले सफलता के लिए संस्कारों को देखा जाता था. पिछले कुछ सालों में सफलता का आधार बाह्य प्राप्तियां हो गईं. जीवन के मूल्य, सिद्धांत, नियम, मर्यादाएं हमने सिर्फ दूसरों से आगे जाने के लिए तोड़ दी. ऐसे में हमारे भीतर सद्भाव और सहयोग की भावना खत्म हो गई. दूसरे को परेशानी में देखकर हमें अच्छा लगने लगा. रुककर यह सोचना होगा कि क्या यह सोच सही थी. आध्यात्मिकता हमें सिखाती है कि कोई स्पर्धा नहीं है.

लोकमत कर रहा देश की सेवा

ब्रह्मकुमारी शिवानी दीदी ने संवाद के अंत में कहा कि लोकमत केवल मीडिया समूह नहीं चला रहा, वह देश की सेवा भी कर रहा है. इससे बहुत दुआएं उन्हें मिल रही हैं. परमात्मा और सभी की ओर से आपके लिए दुआएं. दुआएं ही सफलता का आधार हैं. इस दौरान विजय दर्डा ने उन्हें बताया कि लोकमत, महाराष्ट्र का सबसे बड़ा परिवार है, जिसमें 2 करोड़ से अधिक पाठक हैं. यह हरा-भरा परिवार है. लोकमत ने हमेशा राज्य की आवाज बनकर काम किया है. अंत में विजय दर्डा ने आभार प्रदर्शन किया.

Web Title: Shivani didi talk with vijay darda on dealing stress in coronavirus lockdown situation

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