महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव: बीजेपी-शिवसेना गठबंधन पर निर्भर करेगा अकोला पूर्व का भविष्य!

By लोकमत न्यूज़ डेस्क | Published: September 19, 2019 03:19 PM2019-09-19T15:19:51+5:302019-09-19T15:19:51+5:30

राजनीति और चुनाव के मैदान में जुमले बाजी और मुहावरों का प्रयोग आम है. कई जुमले और मुहावरे तो बरसों तक लोगों को याद रहते हैं. अकोला पूर्व विधानसभा सीट(पहले बोरगांव मंजू) पर वर्ष 2004 में हुआ मुकाबला शिवसेना में हुई बगावत के कारण चर्चा में रहा.

Maharashtra assembly elections 2019: Akola East future will depend on BJP-Shiv Sena alliance! | महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव: बीजेपी-शिवसेना गठबंधन पर निर्भर करेगा अकोला पूर्व का भविष्य!

महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव: बीजेपी-शिवसेना गठबंधन पर निर्भर करेगा अकोला पूर्व का भविष्य!

Highlightsशिवसेना ने विधान परिषद सदस्य गोपीकिसन बाजोरिया को मैदान में उतारा था. शिवसेना के तत्कालीन दबंग नेता विजय मालोकार टिकट न मिलने से बगावत पर उतर आए और चुनाव मैदान में कूद पड़े. 

शैलेंद्र दुबे

लोकसभा निर्वाचन क्षेत्रों का परिसीमन वर्ष 2008 में होने के बाद वर्ष 2009 से अकोला की बोरगांव मंजू सीट को अकोला पूर्व के नाम से जाना जाने लगा. इस क्षेत्र पर पहले कांग्रेस, फिर शिवसेना, उसके बाद भारिपा-बमसं तो विगत चुनाव से भाजपा का झंडा लहरा रहा है. हर बार पहले और दूसरे स्थान पर रहे प्रत्याशियों में कांटे की टक्कर हुई है.

मत विभाजन और पूर्व पृष्ठभूमि पर गौर करें तो आगामी विधानसभा चुनाव में गठबंधन की स्थिति में ही भाजपा-शिवसेना के लिए यहां राह आसान होगी. गठबंधन न होने पर त्रिकोणीय मुकाबले की स्थिति में भारिपा-बमसं को जीत से दूर रख पाना चुनौतीपूर्ण होगा.

वर्तमान में अकोला पूर्व और पूर्ववर्ती बोरगांव मंजू विधानसभा  क्षेत्र में हुए विधानसभा चुनावों के परिणाम पर नजर डाली जाए तो साफ हो जाता है कि एक निश्चित कालखंड के उपरांत मतदाता अपनी पसंद बदलते रहे. भले उसका कारण चाहे जो रहा हो. वर्ष 1972 में कांग्रेस के नीलकंठ सपकाल ने 42972 वोट हासिल कर जीत पाई थी. 

1978 में कांग्रेस के ही रामचंद्र आपोतीकर ने 44990 मतों से तो 1985 में कांग्रेस के ही वसंतराव धोत्रे ने 42094 मत हासिल कर जीत दर्ज कराई थी. 1990 में हुए चुनाव में क्षेत्र की राजनीतिक तस्वीर बदल गई और शिवसेना के गजानन दालू गुरुजी ने 44153 वोट प्राप्त कर जीत पाई और 1995 में शिवसेना के ही दबंग नेता गुलाबराव गावंडे 52716 मतों के साथ विजयी रहे.

कांग्रेस का गढ़ रहे इस क्षेत्र में शिवसेना ने सेंध लगाई थी लेकिन 1999 में हुए चुनाव में प्रकाश आंबेडकर की पार्टी भारिपा-बमसं के प्रत्याशी डॉ. दशरथ भांडे ने 51329 मत पाकर जीत दर्ज करते हुए शिवसेना का किला ध्वस्त कर दिया. वर्ष 2004 में इस सीट पर हुआ मुकाबला बेहद रोचक रहा. शिवसेना ने श्रीरंग पिंजरकर को प्रत्याशी बनाया था. शिवसेना के तत्कालीन दबंग नेता विजय मालोकार टिकट न मिलने से बगावत पर उतर आए और चुनाव मैदान में कूद पड़े. 

उस समय शिवसेना की करीब 70 हजार की वोट बैंक दो खेमों में बंट गई. विजय मालोकार ने 39341 तो श्रीरंग पिंजरकर ने 30845 मत पाए. इन दोनों की लड़ाई में भारिपा-बमसं के प्रत्याशी हरिदास भदे 44140 मत हासिल कर विजयी रहे. हरिदास भदे ने अपनी जीत का सिलसिला वर्ष 2009 के चुनाव में भी जारी रखा. उन्होंने इस चुनाव में शिवसेना प्रत्याशी गुलाबराव गावंडे को 14244 मतों के अंतर से परास्त किया.

वर्ष 2014 में भाजपा और शिवसेना के बीच गठबंधन न होने के कारण इस सीट पर त्रिकोणीय मुकाबला हुआ. मत विभाजन को लेकर कमोबेश एक ही स्थिति रही लेकिन भाजपा की कोशिश रंग लाई. भाजपा ने इस सीट से सांसद संजय धोत्रे के रिश्तेदार रणधीर सावरकर को प्रत्याशी बनाया था. 

वहीं शिवसेना ने विधान परिषद सदस्य गोपीकिसन बाजोरिया को मैदान में उतारा था. हैट्रिक करने के उद्देश्य से भारिपा-बमसं के हरिदास भदे एक बार फिर मैदान में थे. इस चुनाव में जीत तो रणधीर सावरकर को मिली लेकिन उनके और भदे के बीच कांटे का मुकाबला रहा. सावरकर को महज 2440 मतों के अंतर से जीत मिली थी. सावरकर को 53678 तो हरिदास भदे को 51238 मत मिले थे. 

गोपीकिसन बाजोरिया तीसरे स्थान पर रहे. इस बार भाजपा-शिवसेना के बीच गठबंधन होने पर सीट भाजपा के ही खाते में जाने के आसार हैं, उस स्थिति में मत विभाजन न होने पर जीत की राह भी आसान होगी. गठबंधन न होने पर दोनों दलों के प्रत्याशी चुनाव लड़ते हैं तो वंचित बहुजन आघाड़ी के बैनर के नीचे भारिपा-बमसं की मौजूदगी बेहद चुनौतीपूर्ण होगी.

‘लड़ते रहे गधे, निकल गए भदे’

राजनीति और चुनाव के मैदान में जुमले बाजी और मुहावरों का प्रयोग आम है. कई जुमले और मुहावरे तो बरसों तक लोगों को याद रहते हैं. अकोला पूर्व विधानसभा सीट(पहले बोरगांव मंजू) पर वर्ष 2004 में हुआ मुकाबला शिवसेना में हुई बगावत के कारण चर्चा में रहा. बगावत के कारण शिवसेना के मत बंट जाने से भारिपा-बमसं के हरिदास भदे ने आसान जीत दर्ज की थी. उस समय चुनाव परिणाम सामने आने के बाद ‘लड़ते रहे गधे, निकल गए भदे’ यह मुहावरा काफी समय तक लोगों की जुबान पर रहा.

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