अलविदा कृष्णा सोबतीः जाने वाले तू हमें याद बहुत आएगा!

By आदित्य द्विवेदी | Published: January 25, 2019 12:33 PM2019-01-25T12:33:22+5:302019-01-25T12:37:28+5:30

कृष्णा सोबती के निधन पर साहित्य जगत में शोक की लहर है। पत्रकारों और साहित्यकारों ने सोबती को सामाजिक-राजनीतिक मुद्दों पर मुखर प्रवक्ता माना है।

Writer Krishna Sobti passes away literary people social media reactions | अलविदा कृष्णा सोबतीः जाने वाले तू हमें याद बहुत आएगा!

अलविदा कृष्णा सोबतीः जाने वाले तू हमें याद बहुत आएगा!

सुप्रसिद्ध साहित्यकार कृष्णा सोबती नहीं रहीं। उन्होंने 93 वर्ष की उम्र में शुक्रवार सुबह आखिरी सांस ली। ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित लेखिका कृष्णा सोबती का जन्म 18 फरवरी 1925 को वर्तमान पाकिस्तान के एक कस्बे में हुआ था। कृष्णा सोबती के उपन्यास 'ऐ लड़की' और 'मित्रो मरजानी' को हिन्दी साहित्य की सर्वश्रेष्ठ रचनाओं में शुमार किया जाता है। उनके निधन पर साहित्य जगत में शोक की लहर है। पत्रकारों और साहित्यकारों ने सोबती को सामाजिक-राजनीतिक मुद्दों पर मुखर प्रवक्ता माना है।

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वरिष्ठ संपादक ओम थानवी ने कृष्णा सोबती से आखिरी मुलाकात का जिक्र करते हुए लिखा है कि हाल में जब उनसे अस्पताल में मिलकर आया, बोली थीं कि आज ‘चैस्ट’ में दर्द उठा है। हालाँकि तब भी देश के हालात पर अपनी व्यथा ज़ाहिर करती रहीं।

फेसबुक पर सुमन परमार ने कृष्णा सोबती की एक कहानी को याद करते हुए लिखा, 'स्कूल में विभाजन पर कृष्णा सोबती की एक कहानी पढ़ी थी। कहानी का नाम अब याद नहीं, लेकिन उसकी एक पंक्ति मेरे जेहन में हमेशा के लिये बस गई- 'तैनू भाग जगन चन्ना''।

रचनाकार दयानंद पांडेय लिखते हैं, 'डार से बिछड़ी की लेखिका कृष्णा सोबती आज 93 साल की उम्र में हम सब से बिछड़ गईं। विनम्र श्रद्धांजलि।'

सोबती के निधन पर युवा इतिहासकार शुभनीत कौशिक ने उन्हें श्रद्धांजलि देते हुए अपने फेसबुक पर लिखा है-

"अपनी विशिष्ट रचना-शैली, शब्द-शिल्प और बेबाक लेखन के लिए विख्यात कृष्णा सोबती स्वातंत्र्योत्तर भारतीय साहित्य में अपना ख़ास स्थान रखती हैं। फरवरी 1925 में पंजाब के गुजरात शहर (अब पाकिस्तान) में पैदा हुई कृष्णा सोबती बँटवारे के बाद भारत आईं। दिल्ली आए हुए शरणार्थियों की पीड़ा और ख़ुद को इस अनजान, अपरिचित शहर में बसाने के शरणार्थियों की कोशिशों, उनके अदम्य जीवट का आँखों-देखा हाल उन्होंने ‘मार्फ़त दिल्ली’ में बयान किया है। विभाजन की त्रासदी को ‘गुजरात पाकिस्तान से गुजरात हिंदुस्तान’ सरीखी अपनी किताबों में उन्होंने मार्मिकता के साथ दर्ज किया है।

ट्विटर पर चंदन जजवारे लिखते हैं, 'सोये हुए आदमी और मरे हुए आदमी में केवल सांस की डोरी का फ़र्क होता है। कृष्णा सोबती 'सूरजमुखी अंधेरे के' में'


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