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35-40 विधानसभा सीट अहम, 73 फीसदी पसमांदा मुस्लिम आबादी पर नजर?, वक्फ संशोधन विधेयक का समर्थन कर जदयू ने चली चाल

By एस पी सिन्हा | Updated: April 4, 2025 14:01 IST

Waqf Amendment Bill: वक्फ संशोधन बिल का मुस्लिम समाज विरोध कर रहा है, उसकी जनसंख्या बिहार में 18 फीसद है।

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ठळक मुद्देपसमांदा मुसलमानों की संख्या 73 फीसदी है। वक्फ संशोधन से पसमांदा मुसलमानों को फायदा होगा।कटिहार, पूर्णिया, अररिया, किशनगंज और दरभंगा मुस्लिम आबादी वाले जिले हैं।

पटनाः वक्फ संशोधन विधेयक संसद में पारित होने के बाद बिहार में सियासत गर्मायी हुई हुई है। जदयू के द्वारा वक्फ संशोधन विधेयक किए जाने को लेकर एक ओर जहां राजद हमलावर है तो दूसरी ओर जदयू में मुस्लिम नेताओं के बीच नाराजगी देखी जा रही है। ऐसे में सवाल उठता है कि जब बिहार में विधानसभा चुनाव है तो इस बीच नीतीश कुमार की पार्टी जदयू ने ऐसा कदम क्यों उठाया? क्या जदयू को मुसलमानों की जरूरत नहीं? दरअसल, बिहार में जातिगत राजनीति होती है। इसके बिना सारा समीकरण फेल है। जिस वक्फ संशोधन बिल का मुस्लिम समाज विरोध कर रहा है, उसकी जनसंख्या बिहार में 18 फीसद है। इसमें पसमांदा मुसलमानों की संख्या 73 फीसदी है। कहा तो यही जा रहा है कि इस वक्फ संशोधन से पसमांदा मुसलमानों को फायदा होगा।

बिहार सरकार के द्वारा अक्टूबर 2023 में जारी किए गए जातिगत सर्वे के आंकड़े के मुताबिक बिहार की कुल आबादी 13 करोड़ है। इसमें 81.99 फीसदी हिंदू और 17.70 फ़ीसदी मुसलमान हैं। कटिहार, पूर्णिया, अररिया, किशनगंज और दरभंगा पांच ऐसे जिले हैं जो सर्वाधिक मुस्लिम आबादी वाले जिले हैं।

वहीं बिहार में करीब 35 से 40 ऐसी विधानसभा सीटें हैं, जहां मुस्लिम मतदाताओं का व्यापक असर पड़ता है। इन सीटों पर 20 से 60 फीसदी तक मुस्लिम मतदाता हैं। ऐसे में बिहार में कुल 243 विधानसभा सीटों में करीब 40 सीटों पर सीधे जीत-हार के बीच मुस्लिम मतदाताओं का बड़ा असर पड़ता है। ऐसे में 73 फ़ीसदी पसमांदा मुस्लिम आबादी को अहम माना जा रहा है।

पसमांदा मुस्लिम यानी पिछड़े मुस्लिम। वहीं वक्फ संशोधन विधेयक 2025 को पेश करते हुए एनडीए की मोदी सरकार ने कहा है कि इससे पसमांदा मुस्लिमों को बड़ा फायदा होगा। ऐसे में सियासी जानकारों का कहना है कि नीतीश कुमार की पार्टी जदयू ने सोची समझी रणनीति के तहत  वक्फ संशोधन विधेयक 2025 का समर्थन किया है।

इससे एक ओर पसमांदा वर्ग को अपनी ओर आकर्षित करने और दूसरी ओर हिंदुओं में पैठ ज़माने की नीतीश कुमार की बड़ी रणनीति हो सकती है। सीएसडीएस के एक अध्ययन के मुताबिक 2015 के विधानसभा चुनाव में जब जदयू, राजद और कांग्रेस ने मिलकर गठबंधन किया तो जदयू की ओर से लड़ी गई सीटों पर 78 फ़ीसदी और राजद की सीटों पर 59 फ़ीसदी मुस्लिम मतदाताओं ने उनके पक्ष में मतदान किया। कुल मिलाकर 69 फ़ीसदी मुसलमानों ने इस गठबंधन को वोट दिया। लेकिन 2019 के लोकसभा चुनाव में 89 फीसदी मुस्लिम मतदाताओं ने राजद गठबंधन के पक्ष में वोट दिया।

वहीं, 2020 के विधानसभा चुनाव में जदयू के सभी 11 मुस्लिम उम्मीदवार हार गए। यहां तक कि मौजूदा समय में नीतीश कैबिनेट में जमा खान एक मुस्लिम चेहरे वाले मंत्री हैं, लेकिन वो बीएसपी छोड़कर जदयू में आए हैं। इसी तरह लोकसभा चुनाव 2014 में जब नीतीश कुमार ने भाजपा से अलग होकर चुनाव में उतरे थे तब जदयू को सिर्फ 2 सीटों पर जीत मिली थी।

इसी तरह पिछले वर्ष हुए लोकसभा चुनाव 2024 में भी जदयू के उम्मीदवारों को किशनगंज, कटिहार, पूर्णिया जैसी मुस्लिम बहुल सीटों पर हार का सामना करना पड़ा। इसके बाद पिछले (2024) साल जदयू के वरिष्ठ नेता और वर्तमान में केंद्रीय मंत्री ललन सिंह ने एक कार्यक्रम में मंच से सीधे यह स्वीकार किया था कि मुसलमान अब नीतीश कुमार को वोट नहीं देते हैं।

उन्होंने सार्वजनिक तौर पर यह बयान तो दिया, लेकिन विवाद बढ़ता देख उन्होंने इस पर सफाई दी और कहा कि उनके बयान को गलत तरीके से पेश किया गया है। वहीं, जानकारों की मानें तो नीतीश कुमार की पार्टी ने सारे गणित बैठाकर ही इस वक्फ संशोधन विधेयक का समर्थन किया है। पसमांदा समाज के लिए भी मानते आए हैं कि उनके लिए वक्फ के माध्यम से ऐसा कोई कदम नहीं उठाया गया।

जिससे उनके जीवन में बेहतरी आए। वहीं, बिहार में पिछले 20 वर्षों में मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के नेतृत्व में मुस्लिम समुदाय की सामाजिक, आर्थिक और शैक्षणिक प्रगति के लिए कई ऐतिहासिक कदम उठाए गए हैं। जो देश के किसी भी अन्य राज्यों में देखने को नहीं मिली है। ऐसे में थोड़ा नुकसान के साथ बड़े पैमाने पर लाभ मिलने की उम्मीद जताई जा रही है।

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