V.S. Achuthanandan: केरल के पूर्व मुख्यमंत्री और प्रमुख कम्युनिस्ट नेता वी.एस. अच्युतानंदन का सोमवार (21 जुलाई) को 101 वर्ष की आयु में निधन हो गया। अच्युतानंदन का जन्म 1923 में हुआ था और मृत्यु 2025 में हुई। 1946 की शरद ऋतु में एक 23 वर्षीय कम्युनिस्ट कार्यकर्ता को बुरी तरह पीटा गया और मृत समझ कर मध्य केरल के पाला के पास किसी जंगल में फेंक दिया गया था। अच्युतानंदन ने त्रावणकोर के दीवान के क्रूर शासन के खिलाफ लड़ाई लड़ी और कई मज़दूर विद्रोहों में जान फूंक दी। 20 अक्टूबर 2024 को शतायु होकर जन्मदिन मनाया था।
18 साल की उम्र से पहले ही भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के सदस्य रहे वीएस (राजनीतिक हलकों के अंदर और बाहर सभी उन्हें इसी नाम से पुकारते हैं) 1964 में पार्टी के विभाजन के बाद मार्क्सवादियों के साथ चले गए थे। भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी छोड़कर सीपीआई(एम) बनाई थी। जब वे पहली बार विधायक बने तो उनकी उम्र 44 वर्ष थी और जब वे अंततः केरल के मुख्यमंत्री बने तो उनकी उम्र 82 वर्ष थी।
उन्होंने 2006 से 2011 तक केरल के मुख्यमंत्री के रूप में कार्य किया। वह 7 बार राज्य विधानसभा के लिए चुने गए, जिनमें से तीन बार वह नेता प्रतिपक्ष रहे। अच्युतानंदन ने वर्ष 2006 में मलमपुझा निर्वाचन क्षेत्र से जीत हासिल की और केरल के 20वें मुख्यमंत्री बने थे। अच्युतानंदन का जन्म 20 अक्टूबर 1923 को अलप्पुझा जिले के पुन्नपरा में एक मजदूर परिवार में हुआ और उन्होंने सातवीं कक्षा तक शिक्षा प्राप्त की।
भारत के सबसे सम्मानित कम्युनिस्ट नेताओं में से एक और केरल के पूर्व मुख्यमंत्री वीएस अच्युतानंदन का सोमवार को 101 वर्ष की उम्र में निधन हो गया। माकपा के प्रदेश सचिव एम. वी. गोविंदन ने यहां यह जानकारी दी। उन्होंने संवाददाताओं को बताया कि लगभग एक महीने पहले हृदयाघात के बाद यहां एक निजी अस्पताल में भर्ती कराए गए वरिष्ठ नेता का आज निधन हो गया।
गोविंदन ने कहा कि अच्युतानंदन केरल के राजनीतिक इतिहास के एक प्रमुख व्यक्ति थे। मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी (माकपा) के संस्थापक सदस्य अच्युतानंदन जीवन भर श्रमिकों के अधिकारों, भूमि सुधारों और सामाजिक न्याय के पक्षधर रहे। सात बार विधायक रहे अच्युतानंदन ने अपने राजनीतिक जीवन में 10 बार चुनाव लड़ा, जिनमें से केवल तीन में उन्हें हार का सामना करना पड़ा।
केरल की राजनीति में एक कद्दावर हस्ती अच्युतानंदन हाल के वर्षों में उम्र से जुड़ी स्वास्थ्य समस्याओं से जूझ रहे थे और सार्वजनिक जीवन से दूर रहे हैं। 1964 में कम्युनिस्ट पार्टी में ऐतिहासिक विभाजन के बाद माकपा की स्थापना की थी। अच्युतानंदन 2006 से 2011 तक केरल के मुख्यमंत्री रहे।
कॉमरेड वीएस अच्युतानंदन अपने जीवन के अंतिम क्षणों तक एक कट्टर मार्क्सवादी रहे और उन्हें मजदूर वर्ग की पृष्ठिभूमि से निकला भारत का ऐसा पहला कम्युनिस्ट नेता होने का गौरव प्राप्त है, जिसने अपने अथक प्रयास से दर्जी की दुकान से केरल के मुख्यमंत्री पद तक का सफर तय किया। वर्ष 1964 में कम्युनिस्ट पार्टी में विभाजन के बाद मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी (माकपा) के संस्थापक सदस्य रहे अच्युतानंदन का जीवन अथक संघर्ष से परिभाषित था-जाति और वर्ग-बद्ध समाज में व्याप्त अन्याय और अपनी ही पार्टी के भीतर धीरे-धीरे पनपते ‘संशोधनवाद’ के विरुद्ध।
जहां उनके साथी ईएमएस नंबूदरीपाद, ज्योति बसु और ईके नयनार विशेषाधिकार प्राप्त उच्च-जाति के परिवारों से आते थे और साम्यवाद की तरफ आकर्षित हुए थे, वहीं अच्युतानंदन ने उस असमानता को जिया जिसके विरुद्ध उन्होंने संघर्ष किया। अच्युतानंदन को उनकी पार्टी के सहकर्मी और यहां तक कि राजनीतिक प्रतिद्वंद्वी भी प्यार से कॉमरेड ‘वीएस’ के नाम से जानते थे।
उनका जीवन घटनाओं के लिहाज से विविधतापूर्ण था। एक बार मजदूरों के अधिकारों के लिए आजादी से पहले किए गए संघर्ष के दौरान उनकी पुलिस ने इस कदर पिटाई की थी कि उन्हें मृत समझकर दफनाने की तैयारी कर ली गई थी, लेकिन वे बच गए। उन्होंने अपने ऊपर हमला करने वालों को चुनौती दी और केरल की सबसे कद्दावर राजनीतिक हस्तियों में से एक बन गए।
अच्युतानंदन का सोमवार को यहां एक निजी अस्पताल में 101 साल की उम्र में निधन हो गया। वह आठ दशकों से भी अधिक समय तक हमेशा मजदूरों, किसानों और गरीबों के पक्ष में दृढ़ता से खड़े रहे। उपनिवेशवाद-विरोधी प्रतिरोध, वर्ग संघर्ष और भारतीय वामपंथ के जटिल एवं अक्सर अशांत रास्ते ने उनकी राजनीति को आकार दिया।
अलप्पुझा जिले के पुन्नपरा गांव में 20 अक्टूबर 1923 को जन्मे और सातवीं कक्षा तक शिक्षित अच्युतानंदन का राजनीतिक जागरण कम उम्र में ही शुरू हो गया था। उन्होंने ‘ट्रेड यूनियन’ में अपनी सक्रियता के माध्यम से सार्वजनिक जीवन में प्रवेश किया, 1939 में प्रदेश कांग्रेस में शामिल हुए और एक साल बाद कम्युनिस्ट पार्टी के सदस्य बनकर मार्क्सवाद को अपनाया।
राजनीतिक जीवन के दौरान उन्हें इसकी कीमत भी चुकानी पड़ी। ब्रिटिश शासन और स्वतंत्रता के बाद के अशांत वर्षों के दौरान, उन्होंने साढ़े पांच साल जेल में बिताए और गिरफ्तारी से बचने के लिए साढ़े चार साल भूमिगत रहे। वह 1964 में उन 32 प्रमुख नेताओं में से एक थे, जिन्होंने वैचारिक मतभेद के बाद भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (भाकपा) से अलग होकर मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी (माकपा) का गठन किया। इस निर्णायक पल में भी उनकी भूमिका केरल में माकपा की पहचान की आधारशिला बनी रही।
अच्युतानंदन ने 1980 से 1992 तक माकपा की केरल राज्य समिति के सचिव के रूप में कार्य किया और पार्टी की रणनीति और जनाधार को आकार देने में मदद की। वह चार बार (1967, 1970, 1991 और 2001 में) केरल विधानसभा के लिए चुने गए और दो बार नेता प्रतिपक्ष रहे-पहली बार 1992 से 1996 तक और फिर 2001 से 2005 तक।
वर्ष 1996 के विधानसभा चुनाव में अपने गृह क्षेत्र मरारीकुलम में पार्टी के अंदरूनी विवादों के कारण मिली हार और मुख्यमंत्री पद से वंचित रहने सहित कई असफलताओं के बावजूद अच्युतानंदन वामपंथ के एक प्रिय और अडिग नेता बने रहे। वह अपनी तीखी बयानबाजी, भ्रष्टाचार विरोधी रुख और सामाजिक न्याय के प्रति अटूट प्रतिबद्धता के लिए जाने जाते थे।
अच्युतानंदन का सफर एक दर्जी की दुकान में सहायक के रूप में शुरू हुआ, लेकिन इसके बाद पार्टी के भीतर और बाहर जनता के हितों की लड़ाई लड़ते हुए 2006 में राज्य का मुख्यमंत्री बनने तक उन्होंने अथक संघर्ष किया। विपक्ष के नेता के रूप में उन्होंने जमीन हड़पने और ‘रियल एस्टेट’ से जुड़े समूह के खिलाफ एक मजबूत अभियान चलाया और विभिन्न सामाजिक एवं राजनीतिक पृष्ठभूमि के लोगों का समर्थन हासिल किया। माकपा के भीतर एक प्रखर संगठनकर्ता अच्युतानंदन कभी भी विरोध से नहीं डरते थे।
चाहे वे राजनीतिक विरोधी रहे हों या अपनी ही पार्टी के भीतर के प्रतिद्वंद्वी रहे हों, जिनमें सबसे प्रमुख नाम पोलित ब्यूरो के सदस्य और वर्तमान मुख्यमंत्री पिनराई विजयन का है। वर्ष 1996 के केरल विधानसभा चुनाव में माकपा के नेतृत्व वाले वाम लोकतांत्रिक मोर्चे (एलडीएफ) ने जीत हासिल की।
अच्युतानंदन मारारिकुलम में हार गए, जो लंबे समय से उनका गढ़ माने जाने वाले निर्वाचन क्षेत्र में एक चौंकाने वाली हार थी। इस हार के लिए व्यापक रूप से मार्क्सवादी पार्टी के भीतर उनके प्रतिद्वंद्वियों की गुटबाजी को जिम्मेदार ठहराया गया था। उस समय कई राजनीतिक पर्यवेक्षकों ने यह कहते हुए अच्युतानंदन को खारिज कर दिया था कि पार्टी और केरल की राजनीति में उनकी भूमिका समाप्त हो गई है, लेकिन यह बात गलत साबित हुई। उन्होंने संघर्ष करके वापसी की, पार्टी में अपनी स्थिति फिर से बनाई और पहले से कहीं अधिक मजबूत एवं लोकप्रिय नेता के रूप में लौटे।
जनता के बीच अच्युतानंदन की गहरी लोकप्रियता के कारण उनकी पार्टी को कई बार मुश्किल स्थिति का भी सामना करना पड़ा। विजयन के नेतृत्व वाली पार्टी में शक्तिशाली कन्नूर लॉबी के विरोध के बावजूद माकपा को 2006 और 2011 के विधानसभा चुनाव में अच्युतानंदन को मैदान में उतारने के लिए मजबूर होना पड़ा।
अच्युतानंदन ने 2006 से 2011 तक एलडीएफ सरकार का नेतृत्व किया, जबकि उनकी अपनी पार्टी के कुछ लोग उन्हें दरकिनार करने की कोशिश करते रहे। उनके कार्यकाल की पहचान भ्रष्टाचार के प्रति कड़े रुख, पारदर्शिता पर जोर देने और आम लोगों की मदद के लिए कल्याणकारी योजनाओं पर ध्यान केंद्रित करने से है।
वर्ष 2016 के विधानसभा चुनाव में माकपा ने एक बार फिर अच्युतानंदन की ओर रुख किया और उन्हें अपने अभियान का चेहरा बनाया। अपनी उम्र के बावजूद उन्होंने पूरे राज्य में ऊर्जा के साथ यात्रा की, अपनी विशिष्ट शैली में जोशीले भाषण दिए और वामपंथियों के लिए समर्थन जुटाया।