इच्छा मृत्यु पर सुप्रीम कोर्ट का फैसला: इंसान को 'मौत का अधिकार', ये है पूरा मामला
By पल्लवी कुमारी | Published: March 9, 2018 11:23 AM2018-03-09T11:23:51+5:302018-03-09T12:34:35+5:30
सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि मरणासन्न व्यक्ति को यह अधिकार होगा कि वह कब तक वह जिंदा रहना चाहता है। पांच जजों वाली बेंच ने यह फैसला सुनाया है।
नई दिल्ली, 9 मार्च; सुप्रीम कोर्ट ने इच्छा मृत्यु पर ऐतिहासिक फैसला सुनाया है। फैसले के मुताबिक मरणासन्न व्यक्ति द्वारा इच्छा मृत्यु के लिए लिखी गई वसीयत को गाइडलाइन्स के साथ कानूनी मान्यता दे दी गई है। कोर्ट ने कहा कि कोमा में जा चुके या मृत्यु शैय्या पर पहुंच चुके लोगों को निष्क्रिय इच्छामृत्यु दिया जाएगा। सुप्रीम कोर्ट की पांच जजों वाली बेंच ने यह फैसला सुनाया है। कोर्ट ने इस मामले में 12 अक्टूबर को फैसला सुरक्षित रखा था।
SC said that 'living will' be permitted but with the permission from family members of the person who sought passive #Euthanasia and also a team of expert doctors who say that the person's revival is practically impossible.
— ANI (@ANI) March 9, 2018
सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि मरणासन्न व्यक्ति को यह अधिकार होगा कि वह कब तक वह जिंदा रहना चाहता है। इसके लिए मरीज को लिविंग विल देकर सरकार से इजाजत लेनी होगी।
क्या है लिविंग विल
लिविंग विल के मुताबिक मरीज पहले से यह निर्देश देता है कि वह मरणासन्न स्थिति में पहुंचने या रजामंदी नहीं दे पाने की स्थिति में पहुंचने पर उसे किस तरह का इलाज दिया जाए। यह वैसी स्थिति में ली जा सकती है, जब बीमार शख्स के इलाज की संभावना ना के बराबर हो। मरीज अपनी इच्छा मृत्यु के लिए लिख सकता है। लेकिन इसके लिए गाइडलाइन जारी है। लिविंग विल के बाद का फैसला मेडिकल बोर्ड तय करेगी।
A five-judge Constitution bench of the Supreme Court, headed by Chief Justice of India Dipak Misra passed the order allowing passive #Euthanasia with guidelines
— ANI (@ANI) March 9, 2018
क्या है इच्छा मृत्यु ( पैसिव यूथेनेशिया)
इच्छा मृत्यु वह स्थिति है, जब किसी मरणासन्न व्यक्ति अपनी इच्छा ले लिविंग विल देकर अपना इलाज बंद करवा लेता है। इसके तहत एक व्यक्ति कब तक जिंदा रहना चाहता है कि इसके लिए वह बता सकता है। या वैसी स्थिति में भी हो सकता है जब किसी शख्स को ऐसी बीमारी हो जाए जो ठीक नहीं हो सकती है।
Human beings have the right to die with dignity: Supreme Court after allowing passive #Euthanasia with guidelines.
— ANI (@ANI) March 9, 2018
पिछले साल रखा गया था फैसला सुरक्षित
प्रधान न्यायाधीश दीपक मिश्रा की अध्यक्षता वाली पांच न्यायाधीशों की पीठ ने साल 11 अक्तूबर 2017 को इस याचिका पर फैसला सुरक्षित रखा था। संविधान पीठ ने कहा था कि जीने का अधिकार ( RIGHT TO LIFE) सम्मान पूर्ण मृत्यु में शामिल है ऐसा हम नहीं कर सकते हैं। गरिमापूर्ण मृत्यु पीड़ा रहित होनी चाहिए। इसके लिए कुछ ऐसा प्रावधान किया जाना चाहिए, जिसमें शख्स को बिना पीड़ा के मृत्यु हो सके। इस फैसले में यह भी कहा गया था कि लिविंग विल यानी इच्छा मृत्यु के लिए वसीहत मजिस्ट्रेट के सामने दर्ज कराया जाना चाहिए। जिसमें कस से कम दो गवाह भी हो। कोर्ट इस बात पर निगरानी भी रखेगा ताकि इसका दुरुपयोग न हो। फैसला सुनाने वाली बेंच में प्रधान न्यायाधीश दीपक मिश्रा के साथ जस्टिस एके सीकरी, जस्टिस डीवाय चंद्रचूड़, जस्टिस अशोक भूषण और जस्टिस एएम खानविलकर शामिल थे।
Supreme Court says passive #Euthanasia is permissible with guidelines. pic.twitter.com/cOcQu8VbUN
— ANI (@ANI) March 9, 2018
क्या है केन्द्र सरकार का मत
केंद्र सरकार ने इच्छा मृत्यु का अधिकार देने का विरोध किया था। उनका तर्क था कि लोग इस अधिकार का दुरुपयोग करेंगे। केन्द्र सरकार लिविंग विल के खिलाफ है। केन्द्र सरकार अरुणा शानबाग मामले में सुप्रीम कोर्ट के फैसले के आधार पर सक्रिय इच्छा मृत्यु पर देने के हक पर राजी है। केन्द्र का मत है कि सक्रिय इच्छा मृत्यु में कुछ दिशा-निर्देश और शर्ते लागू हैं।
क्या है सक्रिय इच्छा मृत्यु
सक्रिय इच्छा मृत्यु वह स्थिति है, जिसमें मरीज को जहर का या दवाओं का ओवरडोज देकर मौत दी जाती है। ताकि उसको मौत के वक्त पीड़ा ना हो।
क्या है निष्क्रिय इच्छा मृत्यु
निष्क्रिय इच्छा मृत्यु वह स्थिति है, जिसमें अगर कोई मरीज कोमा में है या किसी ऐसी बीमारी का शिकार है जिसमें वह ठीक नहीं हो सकता है तो उसके परिवार वालों को इतना अधिकार है कि उसे लाइफ सपोर्ट सिस्टम से हटाया जाए। इसे ही निष्क्रिय इच्छामृत्यु कहते हैं। सुप्रीम कोर्ट ने अरुणा शानबाग मामले में 7 मार्च 2011 को निष्क्रिय इच्छामृत्यु की ही इजाजत दे दी थी। हालांकि इस पिटीशन को बाद में खारिज कर दिया गया था।
क्या था याचिकाकर्ता का कहना
- सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई के वक्त वकील प्रशांत भूषण ने कहा था कि किसी की जिंदगी में ऐसी स्थिति आ गई हो कि शख्स सपोर्ट सिस्टम के जिंदा नहीं रह सकता है तो, ऐसे में यह फैसला किया जाना चाहिए कि क्या बिना सपोर्ट सिस्टम के उस शख्स को बचाया जा सकता है या नहीं?
- प्रशांत भूषण का यह भी कहना था कि यह सिर्फ उस शख्स की मर्जी होनी चाहिए कि वह सपोर्ट सिस्टम पर जिंदा रहना चाहता है, या नहीं।
- कोर्ट में प्रशांत भूषण ने यह भी दलील दी थी कि किसी शख्स को आप उसकी बिना मर्जी के जीने के लिए मजबूर नहीं कर सकते हैं।
- कोर्ट में यह भी कहा गया था कि एक ऐसा शख्स जो जीना ही नहीं चाहता है उसके लिए पूरी डॉक्टर की टीम लगाना कहां तक सही है।
क्या था पूरा मामला
2015 के फरवरी में सुप्रीम कोर्ट ने इच्छा मृत्यु ( पैसिव यूथेनेशिया) के लिए एक याचिका संविधान पीठ में भेजा था। जिसमें बताया गया था कि कोई शख्स बीमार है और मेडिकल के मुताबिक उसके ठीक होने की संभावना ना के बराबर हो। इसके लिए एक एनजीओ कॉमन कॉज ने याचिका दायर की थी। जिसपर चीफ जस्टिस पी सदाशिवम की अगवाई वाली बेंच फैसला किया था।