जयंती विशेष: जब काशी के हिन्दू प्रेमंचद से नाराज हो गए, कथा सम्राट के निजी जीवन के 7 रोचक प्रसंग

By लोकमत समाचार हिंदी ब्यूरो | Published: July 31, 2018 07:41 AM2018-07-31T07:41:54+5:302018-07-31T13:54:55+5:30

Premchand Birth Anniversary Special 7 Interesting Facts, Biography: गोदान, गबन, प्रेमभूमि, सेवा सदन और निर्मला प्रेमचंद के चर्चित उपन्यास हैं।

Premchand birth anniversary special 7 interesting facts, biography, Rachnaye, stories, upanyas | जयंती विशेष: जब काशी के हिन्दू प्रेमंचद से नाराज हो गए, कथा सम्राट के निजी जीवन के 7 रोचक प्रसंग

Premchand Birth Anniversary Special 7 Interesting Facts, Biography

कथा सम्राट मुंशी प्रेमचंद का जन्म 31 जुलाई 1880 को वाराणसी के लमही गाँव में हुआ था। मुंशी प्रेमचंद का असली नाम धनपत राय था। उनके चाचा ने उनका नाम नवाब राय रखा था। प्रेमचंद शुरू में नवाब राय नाम से ही लिखते थे। उनके कहानी संग्रह सोज-ए-वतन पर ब्रिटिश हुकूमत ने प्रतिबंध लगा दिया तो उन्होंने प्रेमचंद नाम से लिखना शुरू किया। प्रेमचंद के नॉवेल गोदान, गबन, निर्मला और सेवा सदन इत्यादि हिन्दी में आधुनिक उपन्यास के शाहकार माने जाते हैं। कथा क्षेत्र में भी प्रेमचंद की दर्जनों कहानियाँ भारतीय साहित्य की क्लासिक कहानियों में शुमार की जाती हैं। उन्होंने हंस, माधुरी और जागरण जैसी पत्र-पत्रिकाओं का संपादन भी किया। प्रेमचंद का आठ अक्टूबर 1936 को महज 56 वर्ष की उम्र में निधन हो गया। प्रेमचंद के साहित्य और वैचारिक लेखों की अक्सर चर्चा होती है लेकिन उनके निजी जीवन के बारे में कम बात होती है। प्रेमचंद अपने निजी जीवन में कैसे व्यक्ति थे इसकी सबसे प्रमाणिक और मर्मस्पर्शी जानकारी उनकी पत्नी शिवरानी देवी की लिखी किताब "प्रेमचंद: घर में" से मिलती है। हम उसी किताब से सात ऐसे प्रसंग पेश कर रहे हैं जो कथा-सम्राट के निजी चरित्र और विभिन्न विषयों पर विचार स्पष्ट करते हैं। ये सारे किस्से शिवरानी देवी की किताब से हूबहू प्रेमरानी देवी के शब्दों में ही प्रस्तुत कर रहे हैं।

1- शिक्षा विभाग के डिप्टी इंस्पेक्टर प्रेमचंद

"जाड़े के दिन थे। स्कूल का इन्सपेक्टर मुआयना करने आया था। एक रोज़ तो इन्सपेक्टर के साथ रहकर आपने स्कूल दिखा दिया। दूसरे रोज़ लड़कों को गेंद खिलाना था। उस दिन आप नहीं गये। छुट्टी होने पर आप घल चले आये। आरामकुर्सी पर लेटे दरवाज़े पर आप अख़बार पढ़ रहे थे। सामने ही से इन्सपेक्टर अपनी मोटर पर जा रहा था। वह आशा करता था कि उठकर सलाम करेंगे। लेकिन आप उठे भी नहीं। इस पर कुछ दूर जाने के बाद इन्सपेक्टर ने गाड़ी रोककर अपने अर्दली को भेजा। 
अर्दली जब आया, तो आप गये।
"कहिए क्या है?"
इन्सपेक्टर- तुम बड़े मगरूर हो। तुम्हारा अफ़सर दरवाज़े से निकल जाता है। उठकर सलाम भी नहीं करते।
"मैं जब स्कूल में रहता हूं, तब नौकर हूँ। बाद में मैं भी अपने घर का बादशाह हूँ। यह आपने अच्छा नहीं किया। इस पर मुझे अधिकार है कि आप पर मैं केस चलाऊँ।"इन्सपेक्टर चला गया। आपने अपने मित्रों से राय ली कि इस पर केस चलाना चाहिए। मित्रों ने सलाह दी, जाने दीजिए। आप भी उसे मग़रूर कह सकते थे। हटाइए इस बात को। मगर इस बात की कुरेदन उन्हें बहुत दिनों तक रही।"

2- गाय की हत्या

जब मैं गोरखपुर में थी, तो मेरे गाय थी। वह गाय एक दिन कलक्टर के हाते में चली गई। कलक्टर ने कहला भेजा कि अपनी गाय ले जाएँ, नहीं तो मैं गोली मार दूँगा। आपको ख़बर भी न होने पाई, ढाई-तीन सौ के लगभग लड़के नौकरों के साथ पहुँचे। 

जब मैंने शोरगुल बहुत सुना और दरवाज़े पर देखती हूँ कि कोई आदमी नहीं है तो मैं आपके कमरे में गई। मैंने क्या देखा- आप शान्ति से लिख रहे थे।

'आप तो यहाँ बैठे हैं। हाते में कोई भी आदमी नहीं है।'
'अच्छा'

जाड़े के दिन थे। एक कुर्ता और स्लीपर पहने बाहर निकले।  कलक्टर के बँगले की तरफ़ गये। वहाँ जाकर पूछा- आख़िर तुम लोग यहाँ क्यों आये?

आदमियों ने कहा- साहब के हाते में गाय आ गई है। उसने गोली मारने को कहा है।
'तुम लोगों को कैसे ख़बर हुई?'
'साहब, आदमी गया था। वही यह सह कह रहा था।'
'जर अर्दली गया तो मुझसे बताना चाहिए था।'
'आपसे इसलिए नहीं कहा कि हमीं कौन कम थे।'

'मगर साहब को जब गोली ही मारनी थी तो मुझे बुलाने की क्या ज़रूरत थी। यह तो साहब की बात बिल्कुल बच्चों की-सी है। गाय को गोली मारना और मुझे दिखाकर!'

लड़के- बग़ैर गाय लिये हम नहीं जाएंगे।
आप बोले- अगर साहब ने गोली मार दी?
लड़के- गोली मार देना आसान नहीं है। यहाँ खून की नद बह जाएगी। एक मुसलमान गोली मार देता है तो खून की नदियाँ बहती हैं।
'फौजवाले तो रोज़ गाय-बछड़े मार-मारकर खाते हैं, तब तुम लोग कहाँ सोते रहते हो? यह तो ग़लती है कि मुसलमानों की एक कुर्बानी पर सैकड़ों हिन्दू-मुसलमान मरते-मारते हैं। गाय तुम्हारे लिए जितनी ज़रूरी है, मुसलमानों के लिए भी उतनी ज़रूरी है। चलो। अभी तुम्हारी गाय लेकर आता हूँ।'
'साहब के पास जाकर आप बोले- आपने मुझे क्यों याद किया?'

'तुम्हारी गाय मेरे हाते में आई। मैं उसे गोली मार देता। हम अंग्रेज हैं।''
'साहब, आपको गोली मारनी थी तो मुझे क्यों बुलाया? आप जो चाहे सो करते। या आप मेरे खड़े रहते गोली मारते।'
'हाँ, हम अंग्रेज हैं, कलक्टर हैं। हमारे पास ताकत है। हम गोली मार सकता है।'

'आप अँग्रेज़ हैं। कलक्टर हैं। सब कुछ हैं पर पब्लिक भी तो कोई चीज़ है।'

3- शराब का नशा
 
सन 1924 की बात है। आप बेदार साहब के यहाँ प्रयाग गये हुए थे। 'माधुरी' ऑफ़िस की कुछ किताबें बोर्ड में मंजूर कराने के लिए गये थे। बेदार साहब शराबी थे। खुद पिया, आपको भी पिलाया। वहाँ से लौटे तो नशे में चूर। उसी दिन मेरे कान का फोड़ा फूटा था। मैं भी अपने कान में रूई लगाकर सोई गई थी। न मालूम आप दरवाज़े पर कब से आवाज़ दे रहे थे, मुझे कुछ भी पता नहीं। जब बच्चों के कान में आवाज़ गई तो धुन्नू बेटी के साथ दरवाज़ा खोलने दौड़ा। मुझे इसकी ख़बर नहीं। बच्चों को देखकर कुत्तों की तरह डाँटने लगे। उनके डाँटने की आवाज़ मेरे कानों में आई। मैंने पूछा- बेटी, कुत्ता किधर से आ गया। बेटी बोली- तुम सुन नहीं रही हो। बाबूजी आये हैं। मुझे और भाई को डाँट रहे हैं। बाबूजी! मैंने पूछा- क्या बात है?

बेटी बोली- बाबूजी बड़ी देर से आवाज़ दे रहे थे। हमने सुना नहीं।
मैं बोली- देखो बेटी, क्या समय है?

बेटी- डेढ़ बजा है। 
मैं उठने लगी कि चलकर उन्हें पानी-वानी दूँ और पूछूँ कि बच्चों को इस तरह डाँटना चाहिए?
बेटी बोली- तुम न जाओ। बाबूजी शराब पिये हुए हैं। तुम्हें भी डाँटेंगे। 
मैं बोली- यह नया नशा सीखा।
मुझे भी क्रोध आ गया। मैं सो रही। सुबह उठी तो उनका नशा उतर गया था, मैं बोली- बच्चों को इस तरह डाँटना चाहिए?
'मुझे आधे घण्टे तक चिल्लाना पड़ा था। तुम्हें ख़बर भी है?'
'सुनता कौन है? बच्चे रात भर जागते रहे?'
'अगर बच्चे न जाग सकते तो बच्चों की माँ तो जाग सकती थी।'
मैं बोली- मुझे कल ज़रा-सा आराम मिला, मैं भी सो गई। फिर मुझे मालूम होता कि आप शराब पीकर आये हैं तो मालूम होने पर भी न खोलती। फिर आपने शराब क्यों पी?
तब आप बोले- बेदार साहब माने ही नहीं।
मैं- आप बच्चे तो थे नहीं कि बेदार साहब ने ज़बरदस्ती आपके मुँह में उँड़ेल दी। आइंदा आप अगर फिर पी कर आये तो मैं जागती हुई भी दरवाज़ा न खोलूँगी। 
'मुझे पहले से मालूम होता तो मैं वही सो रहता।'
'तो क्या आप मुझसे कहकर गये थे कि मैं वहाँ शराब पिऊँगा। इन बुरी लतों में आप फँसते क्यों जा रहे हैं?
'वह माना नहीं।'
'मनवाना चाहिए था।'
'उसके फेर में तुम पड़तीं तो शायद तुम भी पी लेंतीं।'
'मैं ऐसों के फेर में पड़नेवाली जीव नहीं हूँ।'
'ख़ैर अब नहीं पिऊँगा।'
उसके 5-6 रोज़ के बाद फिर उन्हीं के यहाँ पी आये। उस दिन आठ बजे के लगभग लौट आये। रात को दो बार क़ै हुई। मैं तो उठी नहीं। मेरी भावज ने उठकर पानी-वानी दिया। रात ही को क़ै भी साफ़ की। सुबह नशा उतरा तो बोले- रात को मेरी यह हालत थी। तुम कहाँ थी?
मैं बोली- मैं इन आदतों के फेर  में में नहीं पड़ने वाली नहीं। मैं उसी दिन आपसे कह चुकी हूँ।

आप बोले- बेचारी दुलहिन न होती तो मुझे पानी देनेवाला कोई नहीं था। 
'मैं इसके लिए पहले ही बता चुकी हूँ।'
'तुम्हारा दिल बड़ा कड़ा है।'
'आज आपने समझा?'
फिर उस दिन से उन्होंने कभी शराब नहीं पी।

4- लेखक का दायित्व और हिन्दू सभा की नाराजगी

काशी की एक घटना है। आपका एक लेख 'आज' में छपा। उस पर काशी के हिन्दू नाराज़ हुए। यहाँ हिन्दू-सभा का उस समय ज़ोर था। कांग्रेसी भी हिन्दू-सभा का पक्ष लेते थे। कई महाशय आये और बोले- आपने जो लेख लिखा है, उससे काशी के हिन्दू आपसे बहुत नाराज़ हैं। उन आनेवालों में अधिकतम कांग्रेसी थे।
बाबूजी जब अन्दर आये तो मैं बोली- ये लोग क्या कह रहे हैं?
'कुछ नहीं, जी। वह लेख बड़ा सुन्दर है।'
मैं- मारने की धमकी आख़िर क्यों दे रहे हैं?
'यह सब हिन्दू-सभावालों का काम है।'
'ये सब तो कांग्रेसी थे।'
'आज कल ये लोग भी उसी के पक्षपाती हैं।'
'ऐसे लेख आप क्यों लिखते हैं कि लोग दुश्मन बनें। कभी गवर्नमेंट, कभी पब्लिक, कोई-न-कोई तुम्हारा दुश्मन रहता ही है। आप ढाई हड्डी के तो आदमी हैं।'

'लेखक को पब्लिक और गर्वनमेंट अपना गुलाम समझती है। आखिर लेखक भी कोई चीज़ है। वह सभी की मर्जी के मुताबिक लिखे तो लेखक कैसा? लेखक का अस्तित्व है। गवर्नमेंट जेल में डालती है, पब्लिक मारने की धमकी देती है, इससे लेखक डर जाये और लिखना बन्द कर दे?'

मैं- सब कुछ करे, मगर अपनी जान का दुश्मन न तैयार करें। 
आप बोले- लेखक जो कुछ लिखता है, अपनी कुरेदन से लिखता है।
'यह बात तो ठीक है, लेकिन रोज का झगड़ा ठीक नहीं।'

'यह दुनिया ही झगड़े की है। यहाँ घबराकर भागने से काम नहीं चलता। यहाँ मैदान में डटे रहना चाहिए।'

5 - प्रेस मालिक प्रेमचंद, मैनेजर और मजदूर

मेरे प्रेस में हड़ताल हो गई थी। आप वहाँ से आये और सुस्त से बैठे रहे। मैं उन्हें उदास देखकर पूछ बैठी कि आपकी तबियत कैसी है?
आप बोले- तबियत तो बहुत अच्छी है।
मैं बोली- तो उदास क्यों हैं?
आप बोले- इस प्रेस के कारण मुझे बहुत परेशानी रहती है।
मैं बोली- क्या है? बताओ न।
'क्या बताऊँ, मैनेजर और मज़दूरों में पटती ही नहीं।'
'वे काम ठीक से न करते होंगे। मैनेजर बेचारा क्या करे।'

'भाई मैनेजर भी तो अपने को खुदा से कम नहीं समझता।'
'खुदा क्यों समझेगा अपने को? अगर ठीक-ठाक काम न कराये तो आप भी उस पर बिगड़ेंगे।'
'तो फिर उसका क्या दोष?'
'नहीं, मैनेजर की सब शरारत है। कभी घड़ी को सुस्त कर देता है, कभी तेज़ कर देता है। मैंने एकान्त में भी बीसों बार समझा दिया है कि बाबा, ऐसा मत किया कर, पर माने तब न। फिर प्रेस में तो तरह-तरह के घाटे हैं। क्या इन्हीं मज़दूरों के बल पर घाटे पूरे होंगे? हम लोगों को तो ज़्यादा रुपये मिलते हैं, पर ख़र्चे भर को पूरा नहीं पड़ता। तब ग़रीबों को कैसे पूरा पड़ेगा? पैसों की मुसीबत तो इन लोगों के सिर पर है। इन लोगों की तनख़्वाह तब नहीं कटती, जब ये लोग हफ़्तों ग़ायब रहते हैं; तब क्यों मज़दूरों की ही तनख़्वाह, चार मिनट देर से आयें तो कट जाय? ज़रा भी ग़लती कहीं हुई कि चट निकालकर दूसरे को बुला लिया। हमारे यहाँ पढ़ा-लिखा समाज सबसे ज्यादा ख़ुदगर्ज़ हो गया है।'  

6- लेखक और उसकी जातीयता

गोर्की की मौत पर 'आज' ऑफ़िस में मीटिंग होने वाली थी। रात को जब आपको नींद नहीं आई तो आप उठकर भाषण लिखने लगे। उन दिनों मुझे भी रात को नींद नहीं आती थी। मेरी आँख खुली तो देखा कि आप ज़मीन पर बैठे कुछ लिख रहे हैं।
मैं बोली- आप यह क्या कर रहे हैं?
बोले- कुछ नहीं।
मैं बोली- नहीं, कुछ तो ज़रूर लिख रहे हैं।
तब बोले- परसों 'आज' ऑफ़िस में गोर्की की मृत्यु पर मीटिंग होने वाली है।
मैं बोली- कैसी मीटिंग? तबियत अच्छी नहीं, भाषण लिखने बैठे। मालूम है, दो बजे हैं।
आप बोले- नींद नहीं आती तो क्या करूँ। भाषण तो लिखना ही पड़ता।
मैं बोली- जब तबियत ठीक नहीं तो भाषण कैसे लिखा जाएगा।
आप बोले- ज़रूरी तो हई है। बिना लिखे काम नहीं चलेगा। अपनी खुशी से काम करने में आराम या तकलीफ़ का बोध नहीं होता। जिसको आदमी कर्तव्य समझ लेता है, उसके करने में मनुष्य को कुछ भी तकलीफ़ नहीं होती। इन कामों को आदमी सबसे ज़्यादा ज़रूरी समझता है।
मैं बोली- यह मीटिंग है कैसी?
आप ने कहा- शोक-सभा है।
मैं बोली- वह कौन हिन्दुस्तानी थे?
आप बोले- यही तो हम लोगों की तंगदिली है। गोर्की इतना बड़ा लेखक था कि उसके विषय में जातीयता का सवाल ही नहीं उठता, लेखक हिन्दुस्तानी या यूरोपियन नहीं देखा जाता। वह जो लिखेगा, उससे सभी का लाभ होता है।

7- प्रेमचंद और स्त्रियों की आजादी

मैं- स्त्रियों की आज़ादी पर आप क्या विचार रखते हैं?
'मैं दोनों में समानता चाहता हूँ।'
'समानता का आन्दोलन आप क्यों नहीं करते।'
'मैं उन ताकतों को साहित्य में भरना चाहता हूँ।'
'जनता क्या वह पढ़ती है?'
'इसके माने यह थोड़े ही है कि जनता की अशिक्षा के कारण साहित्य में इसको भरा ही न जाये। धीरे-धीरे सभी अपने रास्ते पर आ जाएंगे। तुम्हें मालूम है, रूस की वर्तमान दशा का चित्रण 200 वर्ष पहले वहाँ के लेखकों ने लिखा मारा।'

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English summary :
Premchand Birth Anniversary Special: Munshi Premchand was an famous Indian writer known for his Rachnaye, Stories, Upanyas in Hindi


Web Title: Premchand birth anniversary special 7 interesting facts, biography, Rachnaye, stories, upanyas

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