जब स्कूल में फणीश्वरनाथ रेणु को मिली बेंत खाने की सजा, हर बेंत पर कहा - बन्दे मातरम....
By लोकमत न्यूज़ डेस्क | Published: March 4, 2022 01:59 PM2022-03-04T13:59:14+5:302022-03-05T08:50:53+5:30
विश्व प्रसिद्ध साहित्यकार फणीश्वरनाथ रेणु की आज 101वीं जयंती है। इस अवसर पर पढ़िए उनका लिखे संस्मरण, 'मेरा बचपन' का अंश।
फणीश्वरनाथ रेणु
सन् 1930-31 की बात है। मैं उन दिनों अररिया हाई स्कूल में चौथे दर्जे में पढ़ता था। महात्मा गांधी की गिरफ्तारी की खबर मिलते ही सारा बाजार बंद हो गया और स्कूल के सभी छात्र बाहर निकल आये। दूसरे दिन भी हम हड़ताल पर रहे। चूंकि मैं खद्दरधारी था, इसलिए हड़ताल के अलावा 'पिकेटिंग' भी कर रहा था। यानी, स्कूल जाने वालों को हाथ जोड़ कर समझाता और मना करता था। अतिरिक्त उत्साह में मैंने स्कूल के असिस्टेंट हेड मास्टर साहब को भी रोका। उन्होंने झुझला कर बंगला में कहा था 'तोमरा चुलोय जाच्छो, जाओ। आमाके केन टानछो....? अर्थात् तुमलोग चूल्हे भाड़ में जाते हो, जाओ, मुझे क्यों खींचते हो?"
मैंने तत्काल जवाब दिया- आप हमारे गुरु जो है।
दूसरे दिन हम स्कूल पहुंचे तो मालूम हुआ कि हर हड़ताली विद्यार्थी को आठ आने पैसे जुर्माने की सजा होगी। दो-तीन घंटी की पढ़ाई होन के बाद हेड मास्टर साहब का नोटिस निकला-जो विद्यार्थी कल नहीं आये थे उन्हें आठ आने बतौर जुर्मान के और जो लोग बीमार थे अथवा अन्य किसी कारण से स्कूल नहीं आ सके, उन्हें दर्खास्त लिख कर देना होगा और जो लोग अपनी गलती स्वीकार कर माफी मागना चाहे वे भी दर्खास्त दें।
नोटिस के अंत में विशेष रूप से मेरा नाम और वर्ग लिख कर कहा गया था कि असिस्टेंट हेडमास्टर साहब के साथ अशोभनीय बर्ताव (इम्पटिनेस्ट बिहेवियर) के लिए सारे स्कूल के छात्रों के सामने पांचवीं घंटी के बाद दस बेत लगाये जायेंगे। नोटिस निकलने के बाद ही मैं अचानक 'हीरो' हो गया। ऊंचे दर्जे के विद्यार्थी मुझे ढाढस बधाते. शाबाशी देते और कोई-कोई तरस खाकर कहते माफी मांग लो।
लेकिन मैंने जालियांबाग कांड के मदन गोपाल की कहानी पढ़ी थी। मेरे सिर पर मदनगोपाल की आत्मा आकर सवार हो गई मानो। कई अध्यापकों ने भी आकर समझाया डराया, धमकाया। लेकिन मैं माफी मांगने को तैयार नहीं हुआ। तब तक मित्रों ने न जाने कहाँ से फूलमाला, चंदन आदि की व्यवस्था कर ली थी।
नियत समय पर बार्निंग बेल बजा। सभी वर्ग के छात्र सामने मैदान में आकर एकत्रित हुए। सिक्स्थ मास्टर साहब, तुर्की टोपी और शेरवानी पहने हाथ में बेत घुमाते हुए मैदान के बीच में आये। सभी शिक्षक सिर झुका कर खड़े थे। मेरे नाम की पुकार हुई और मैं रिंग में जाकर खड़ा हो गया ठीक विवेकानन्दीय मुद्रा में- दोनों बाहों को समेटकर बेत मारने के पहले मास्टर साहब ने अंग्रेजों में कुछ कहा फिर अचानक चिल्लाए-स्ट्रेंच योर हैन्ड।
व्हिच हैंड! लेफ्ट आर राइट
भीड़ से कई आवाज एक साथ--शाबाश। मास्टर साहब ने जब राइट' कहा, तभी मैंने हाथ पसारा। मास्टर साहब ने शुरू किया वन! 'बन्दे मातरम्।" मैंने नारा लगाया।
एकत्रित छात्रों ने दुहराया-बन्दे मातरम्!"
'महात्मा गांधी की जै'
अब सड़क, कचहरियों और बाजार से लोग दौड़े-नारा लगाते-महात्मा गांधी की जै
'थ्री-ई-ई।'....
जवाहरलाल नेहरू की जै।
जै-जै-जै-जै-जै-बन्दे मातरम्-झन्डे तिरंगे-कौमी नारा-महात्मा गाँधी की जै-जै। 'इलाके के मशहूर सुराजी सत्याग्रही चुन्नी दास गुसाईं उस भीड़ को चीर कर न जाने कहाँ से आ ये। जनता नारे लगाने लगी। हेडमास्टर साहब ने 'केनिंग' रोकवा दिया। छुट्टी की घंटी बजा दी गई। लेकिन, भीड़ बढ़ती ही गई और नारे बुलन्द होते रहे। सारा कस्बा उमड़ पड़ा। इसके बाद मुझे किसी ने कंधे पर चढ़ा लिया और लोग जुलूस बनाकर निकल पड़े।
दस में सिर्फ तीन बेंच ही लगे। दूसरे दिन सारा बाजार फिर बंद रहा और स्कूल के सभी छात्र हड़ताल पर रहे। मैंने अपने उपन्यास 'कितने चौराहे' में इस घटना के आधार पर एक दृश्य की रचना की है।
(रेणु: संस्मरण और श्रद्धांजलि, नवनीता प्रकाशन, पटना से साभार)