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बिहारी हीरो जो फुटपाथ पर जी रहा है 'बाग़बान' के अमिताभ बच्चन जैसी ज़िंदगी

By रोहित कुमार पोरवाल | Updated: June 25, 2019 15:34 IST

बेटों से गुस्सा हैं। गुस्सा इसलिए क्योंकि बेटे पिता के सिद्धान्तों को नहीं मानते हैं। पत्नी फोन पर रोती हैं। दामाद भी मनाने की कोशिश कर रहे हैं लेकिन अंकल हैं कि...

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फिर से मॉर्निंग वॉक शुरू की है। नगर निगम वालों का बड़ा सा पार्क मेरे कमरे से बमुश्किल 200 मीटर की दूरी पर है तो जाने में आलस नहीं लगता है। पार्क के गेट के पास एक अंकल कुछ आयुर्वेदिक उत्पादों की ऊबड़-खाबड़ सी कैनोपी लगाते है। उबड़-खाबड़ मतलब, एक बैनर है जो जुगाड़ करके पेड़ की शाखा से बांध देते हैं और प्रोडक्ट्स डिस्प्ले करने के लिए ईंट इकट्ठे कर उस पर प्लाई का एक जुगाड़ का टुकड़ा सजा लेते हैं।

बीते शनिवार (22 जून) को जब टहल और उछल-कूद करके पार्क से बाहर निकला तो आयुर्वेदिक उत्पादों के साथ तन्हा बैठे अंकल पर नज़र गई।

कुछ लोगों को आदत होती है कि आयुर्वेदिक चूरन-चटनी या टॉनिक देखे नहीं कि उन्हें थथोलने की जुन्न सवार हो जाती है, चाहे लें भलें कुछ भी नहीं। फ्री का सैंपल मिल जाए तो फिर क्या कहने। उन्हीं में से मैं हूं। दौड़-भाग के कारण लंबी चल रही सांसों को सामान्य करने का प्रयास करते हुए पहुंच गया अंकल के पास और आदत से मजबूर उठा-उठाकर देखने लगा प्रोडक्ट्स।

अरे अंकल, शुगर के लिए कोई आइटम नहीं है क्या?

आता तो है, एक मिनट देखता हूं।

अंकल ने एक बुकलेट निकाली और उसमें देखकर बताया-  टेबलेट आता है और टॉनिक भी।

तो ज़्यादा असरदार क्या है?

दोनों है, मेरे ख़्याल से आप टेबलेट ले लीजिए, कहीं जाओ-वाओ भी तो लाने-लेजाने में आसानी रहती है। रोज एक खाना है लेकिन अभी है नहीं, मंगाना पड़ेगा। आप कहेंगे तो मंगा दूंगा।

हां, मंगा दीजिए एक पत्ता।

अगले दिन...

अंकल अपनी दुकान सजाए सत्तू घोलते मिले।

अंकल टेबलेट का पत्ता?

मैंने अपने एक्सपर्ट से बात किया, वो बताया कि आयुर्वेदिक दवाई पहले बीमारी को बढ़ा देती है फिर ठीक करती है। भंगेल में एक्सपर्ट बैठता है। आप चाहें तो उसे मिलकर सलाह ले लें, फिर मंगा दूंगा।

अंकल की ईमानदार प्रतिक्रिया ने अचरज में डाला। अभी तक यह देखते आया हूं कि दुकानदार कैसे भी अपना सामान ग्राहक को थमाने पर ही चैन लेते हैं। अंकल की साफगोई और ईमानदारी अच्छी लगी तो आभार प्रकट करने से पीछे कैसे रह जाता।

मैंने कहा- अंकल आपकी यह ईमानदार प्रतिक्रया भी मुझे दवा के समान लगी।

अंकल मुस्कराए और शिष्टाचार की दो-चार बातें और हुईं।

बातें दिलचस्प लगीं तो मैंने बात करना जारी रखा और उसमें जो कहानी निकली वह मज़ेदार और काफी हद तो प्रेणादायी लगी।

तो मिलिए, साकवा घाट, पूर्वी चंपारण, बिहार के वीके सिंह हीरो से। अबुधावी, कुबैत, कतर, ओमान और बहरीन में करीब सात साल कंट्रक्शन सुपरवाइजर के तौर पर काम करके खूब पैसा कमाया। करीब 50 लाख। जितना कमाया, बेटों में बांट दिया, बेटी की शादी कर दी, घर बनाया और ज़मीन खरीदी। जागीर अब भी बरकरार है लेकिन आजकल नोएडा की एक फुटपाथ पर ही जीवन गुज़र-बसर करते हैं। नारियल वाले ने मदद कर दी है तो फुटपाथ पर ही सोते है मच्छरदानी लगाकर।

बेटों से गुस्सा हैं। गुस्सा इसलिए क्योंकि बेटे पिता के सिद्धान्तों को नहीं मानते हैं। पत्नी फोन पर रोती हैं। दामाद भी मनाने की कोशिश कर रहे हैं लेकिन अंकल हैं कि फोन पर अपना सही पता नहीं बताते हैं और कह देते हैं कि बड़े मज़े में हैं। व्हाट्सऐप पर फ़ोटो शेयर कर खुशहाली के संदेशों का आदान-प्रदान कर देते हैं।

मैंने पूछा कि क्या आप परिवार के लिए अपने सिद्धान्तों को थोड़ा किनारे नहीं रख सकते हैं?

कहा कि घर जाने का मन करता है, बेटों के साथ रहने का मन करता लेकिन क्या है कि "अच्छाई को बदला नहीं जा सकता, बुराई को आप बदल सकते हैं।" सिद्धांतों से मजबूर हूं।

तो ये सिद्धान्तों वाली बात कहां से आयी, क्या यह ईमानदारी विरासत में मिली? पिता जी भी सिद्धांतवादी थे क्या?

हां, पिता जी ने तो जीवन में किसी बच्चे को हाथ तक नहीं लगाया, एकदम ईमानदार, उनके आगे मैं कुछ नहीं।

तो आपकी ईमानदारी की पृष्ठभूमि घर है? वहीं से सीख लिया?

एकबार एक मित्र ने फ़िल्म दिखाई थी प्रतिघात। वह देखकर लगा कि मुझे भी लोगों की मदद के लिए हाथ बढ़ाना चाहिए।

आपके नाम में हीरो है, इसके पीछे भी कोई कहानी है क्या, किसने रखा या कैसे पड़ गया?

दोस्तों ने रखा, हुआ यूं था कि एकबार एक लड़का नेपाल से घूमकर आ रहा था। उसने वहां से 2-3 जोड़ी कपड़े खरीद लिए थे। भारतीय बॉर्डर में कस्टम वालों ने उसके झोले में नेपाल से लाए गए कपड़े देखे तो ज़ब्त कर लिए। जुर्माना भी लगाया और उसके पास पैसे उतने थे नहीं तो अपने पहने हुए कपड़े बेचने पर तैयार हो गया। मैं यूं ही वहां से गुज़र रहा था तो माज़रा सामने आया। कस्टम विभाग के लोगों में एक मिश्रा जी मुझे कुछ जानते थे। मैंने उनसे कहा कि मिश्रा जी ऐसा मत करिए कि लड़के को अपने पहने हुए कपड़े भी बेचने पड़ रहे हैं। यह इंसानियत नहीं है। मिश्रा जी मान गए औए लड़के को छोड़ दिया।

इस वाकये को देखते हुए मेरे दोस्त मुझे हीरो कहने लगे। फिर यह नाम ऐसा चला कि आज दोस्तों, रिश्तेदारों, परिवार और जहां काम किया वहां इसी से जाना जाता हूं। रेडियो के विविध भारती वाले भी इससे परिचित हैं। 100 से ज़्यादा बार हैलो फरमाइश में कॉल कर चुका हूं। मैं बोलता था कि हैलो, साकवा घाट, पूर्वी चम्पारण, बिहार से वीके सिंह हीरो बोल रहा हूं। आज भी इसी नाम से फोन करूंगा तो वो पहचान लेंगे।

हीरो जी बातों में इतने मगन हो गए कि सत्तू घुला गिलास यूं ही रखा रहा।

अरे अंकल, आप सत्तू पी लीजिए।

आप भी लीजिए, मैं आपके लिए एक गिलास बनाता हूं।

नहीं अंकल, मुझे अभी थोड़ी उछल-कूद करनी है। धन्यवाद।

सत्तू के जिक्र से पता चला कि अंकल ने गुज़ारे के लिए तीन दिन इसे भी बेच लिया लेकिन बिका नहीं। कामगार सोसाइटी है तो सत्तू-अत्तू घर में ही गोलकर पी लेती है।

अंकल खर्चा निकल आता है इससे?

खाने भर का निकल आता है।

पैसे आप लाए नहीं तो कैनोपी कैसे लगाई?

एक दिन कंपनी वाले यहां प्रचार कर रहे थे, मैं यूं ही देखने लगा, उन्होंने पूछा क्या करते हैं? मैंने कहा कि कंस्ट्रक्शन सुपरवाइजर हूं। काम तलाश रहा हूं। काम मिल नहीं रहा है। उन्होंने कहा कोई बात नहीं, आप इन प्रोडक्ट्स की कैनोपी लगाइए। आपसे कोई पैसे नहीं लेंगे। जो बिके, उसके हिसाब से मुनाफा निकालकर आपको दे देंगे। तो उन लोगों ने मदद की और बिना लागत के मेरी दुकान चालू हो गयी। उम्मीद तो है कि 2-3 महीने में काम चल निकलेगा।

घर नहीं जाएंगे?

जाऊंगा लेकिन अभी नहीं, कुछ करके जाऊंगा।

आपकी उम्र क्या है?

सर्टिफिकेट में या असली में?

असली में?

65 साल।

सर्टिफिकेट में?

59 साल।

वाकई बड़े ईमानदार हैं आप!

जहां भी काम किया, इसी की वजह से लोग जानते हैं।

मोबाइल में कॉल लिस्ट दिखाते हुए बोले- कल एक दोस्त फोन किया था यूएई से। ये सब मुझे हीरो कहते हैं। आप इन सभी लोगों से बात करिए, ये बताएंगे मेरे बारे में।

चलिए, आपका नाम हीरो है और आपकी कहानी पर भी फ़िल्म बन सकती है। आपसे मिलकर अच्छा लगा, कुछ नहीं तो अपने फेसबुक पर छाप दूंगा आपकी कहानी।

जी बिल्कुल। दिखायेगा।

तो एक थे फ़िल्म बाग़बान के हीरो और एक ये हैं बिहार से आए असल जिंदगी के हीरो। कहानी कुछ वैसी ही है।

फ़िल्म दीवार में अमिताभ बच्चन विजय के किरदार में एक जगह पुलिसवाले रवि का किरदार कर रहे शशि कपूर से कहते है, "उफ़ तुम्हारे उसूल, तुम्हारे आदर्श... किस काम के हैं तुम्हारे उसूल? तुम्हारे सारे उसूलों को गूंथकर एक वक्त की रोटी नहीं बनाई जा सकती रवि। जिन आदर्शों पर तुम अपनी ज़िंदगी से खेलने के लिए तैयार हो, क्या दिया उन आदर्शों ने.. एक चार पांच सौ रुपये की पुलिस की नौकरी, एक किराये का क्वार्टर, एक ड्यूटी की जीप, दो जोड़ी खाकी वर्दी, देखो.. देखो, ये वही मैं हूं और ये वही तुम हो, हम दोनों एक साथ इस फूटपाथ से उठे थे लेकिन आज तुम कहां रह गए और मैं कहां आ गया हूं, आज मेरे पास बिल्डिंगें हैं, प्रॉपर्टी है, बैंक बैलेंस है, बंग्ला है, गाड़ी है, क्या है तुम्हारे पास?

और रवि कहता है- मेरे पास मां है।

इस डायलॉग से इतर देखें तो उसूल और आदर्शों पर चलने वाले हर इंसान के पास एक शक्ति होती है उन्हें पालन करने की, इच्छा शक्ति, और करोड़ों लुटाकर भी इसे खरीदा नहीं जा सकता.. और हमारे यहां शक्ति को भी मां कहते हैं।

मां हमेशा साथ में तो लोक परलोक यूं ही सुधर जाते हैं, स्वर्ग के रिजर्वेशन के लिए लाइन में नहीं लगना पड़ता है।

टॅग्स :कला एवं संस्कृतिबिहारअमिताभ बच्चनप्रेरणादायक
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