Maharashtra Assembly Elections 2024: शिवसेना उद्धव ठाकरे गुट के संजय राऊत या भास्कर जाधव, भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के नीतेश राणे या फिर किरीट सोमैया, राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी (राकांपा) शरद पवार गुट के जितेंद्र आव्हाड़, प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष नाना पटोले या विपक्ष के नेता विजय वडेट्टीवार, राकांपा अजित पवार गुट के मंत्री छगन भुजबल या अमोल मिटकरी, शिवसेना शिंदे गुट के संजय शिरसाट या मंत्री अब्दुल सत्तार आए दिन राजनीतिक बयानबाजी से सुर्खियों में बने रहते हैं. किंतु जैसे-जैसे विधानसभा चुनाव पास आते जा रहे हैं, वैसे-वैसे हमलों के तौर-तरीके से लेकर हमलावर भी बदलते जा रहे हैं. पिछले माह केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने राकांपा शरद पवार गुट के नेता शरद पवार को भ्रष्टाचारियों का बादशाह कहा तो पवार ने जवाब में उन्हें तड़ीपार कहने में संकोच नहीं किया.
इसी तरह बीते बुधवार को शिवसेना उद्धव गुट के नेता उद्धव ठाकरे ने उपमुख्यमंत्री देवेंद्र फड़नवीस पर तीखी भाषा में हमला बोलकर आर या पार की चेतावनी दे डाली. स्पष्ट है कि चुनाव समीप आने से राजनीतिक दलों के लिए सुर्खियों में बने रहना आवश्यक है. किंतु यह तय नहीं हो रहा है कि राजनीतिक हमलों के लिए कोई एक सीमा होनी चाहिए.
इसीलिए सीमोल्लंघन के लाभ-हानि की चिंता किसी को नहीं है. बीते कुछ वर्षों से मुद्दों पर आधारित राजनीति गौण होती जा रही है और बयानबाजी और आरोप-प्रत्यारोप को समाज में एक विशेष स्थान मिलता जा रहा है. पहले इसे टीवी पर की जाने वाली टिप्पणियों ने प्रोत्साहन दिया. उसके बाद टीवी स्टूडियो की चर्चाओं ने स्तर गिराया.
खास तौर पर उस समय जब स्टूडियो के बाहर से नेताओं ने चर्चाओं में भाग लेना आरंभ किया. उसके बाद सोशल मीडिया मंच फेसबुक, यूट्यूब, टि्वटर और इंस्टाग्राम ने तो जबान से नियंत्रण ही समाप्त कर दिया. नौबत यहां तक है कि अब सीधे सोशल मीडिया मंचों से विवादित सामग्री को हटाने के लिए कहा जाने लगा है.
इसी दौर में राजनीति की रोटी सेंकने वालों ने नई-नई तकनीक का लाभ उठाते हुए अपनी समूची बयानबाजी को अत्यधिक नीचे ला दिया है. निचले स्तर के पैमाने तय हो चुके हैं और उस पर बोलने वाले भी अपनी अलग पहचान रखने लगे हैं. उन्हीं के बीच राजनीति के चटखारे बनते हैं और उन्हीं के बीच से विवादों को नया रंग मिलता है.
जिनका परिणाम अदालत के दरवाजे तक पहुंचने से लेकर हिंसा के रूप में भी सामने आता है. इंटरनेट क्रांति के बाद से डिजिटल सामग्री की उपलब्धता बहुत सहज हो गई है. टीवी-कम्प्यूटर स्क्रीन से बात अब मोबाइल स्क्रीन पर आ गई है. वह किसी भी समय और स्थान पर सहजता से देखी और सुनी जा सकती है. इसी को अपने राजनीतिक लाभ के रूप में राजनेताओं ने अपनाना आरंभ किया है.
उपहासात्मक वीडियो से लेकर आलोचनात्मक वीडियो तक कहीं भी देखे जा सकते हैं. तरह-तरह की रील बना कर अपनी टोपी सीधी और दूसरे की उछाली जा सकती है. इसी में एक तरीका बयानों और भाषणों के कुछ हिस्सों का है. जिसे संदर्भ बिना किसी भी तरीके से उपयोग में लाया जा सकता है. जिसके सहारे लोकसभा चुनाव के बाद अब विधानसभा चुनाव की तैयारी हो रही है.
नेताओं ने अपने सुर बदलकर सीधे हमलावर होने की रूपरेखा बना ली है. व्यक्तिगत टिप्पणियों से लेकर सार्वजनिक जीवन को निशाने पर लेना लक्ष्य बनाया है. इसमें समय और परिस्थिति के बीच अधिक भेद नहीं है. पुणे में भाजपा का सम्मेलन और उसके बाद राकांपा नेता शरद पवार की टिप्पणी किसी भी तरह के संयम और राजनीतिक सभ्यता से अलग नजर आ रही है.
पूर्व मंत्री अनिल देशमुख का उपमुख्यमंत्री फडणवीस के बारे में बोलना और उसी आधार पर शिवसेना प्रमुख उद्धव ठाकरे का धमकी भरा भाषण देना भविष्य की राजनीति का संकेत है. फिलहाल इस अंदाज का मालिक महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना (मनसे) प्रमुख राज ठाकरे को जाना जाता था, लेकिन उनसे पहले उनके चचेरे भाई की भाषा बदलना नए दौर की ओर संकेत देता है.
बीते लोकसभा चुनाव में भी मुस्लिमों को लेकर की गई अनर्गल टिप्पणियों से लेकर मंगलसूत्र की बात और नस्लीय टिप्पणी ने नेताओं को चर्चा में ला दिया था. किंतु परिणामों के स्तर पर उनका अधिक लाभ नहीं देखा गया. जो यह साबित करता है कि मत विभाजन और जातिगत समीकरणों को साधने की कोशिश में अनेक बार नेताओं की फिसलती जबान हंगामा और मुश्किलें तो खड़ी कर देती है.
लेकिन चुनावी तस्वीर पर सीधा असर नहीं पड़ता है. फिर भी नेता सोशल मीडिया के माध्यम से मतदाता से सीधी पहुंच का लाभ उठाने की कोशिश करते रहते हैं. मतदाता का प्रयास होता है कि वह अपनी समस्याओं को मुखर बनाने और उनका हल देने वाले को पहचान कर मतदान करे. वहीं, इन दिनों राजनीतिक दलों की कोशिश छींटाकशी के बहाने मतदाता को अपनी ओर आकर्षित करने की है.
हालांकि इसमें सफलता की संभावना कम है और मुद्दों से भटकाव अधिक है. बदलते दौर में आवश्यक यह है कि तकनीक का उपयोग कर मतदाताओं के दिलों में बसने की कोशिश की जाए. इसके लिए आवश्यक आम जन की समस्याओं का हल ढूंढ़कर उनके जीवन को सरल और सुखद बनाना है.
अतीत की राजनीति में इस बात के अनेक उदाहरण हैं, जिनमें जनता से सीधा सरोकार रखने वाले नेताओं को लगातार सफलता मिली है और एक-दूसरे को नीचा दिखाने वालों को अपने पतन का सामना करना पड़ा है. लिहाजा चुनाव के पहले आक्रामक होकर हमले करने से सुर्खियां तो मिलेंगी, किंतु उनके मतों में बदलने की ‘गारंटी’ नहीं मिल सकती है.
लेकिन तीखी जबान के दुष्परिणाम कहीं मिल सकते हैं. इसलिए चुनावी रणनीति में तलवार की धार पर चलकर सफलता हासिल करने के प्रयास खतरे से खाली नहीं होते हैं. जनअपेक्षाओं की पूर्ति ही लक्ष्य बनाया जाए तो ठंडे दिमाग और मीठी जबान से भी परिणाम मिल सकते हैं. संभव है कि नए जमाने की परिस्थितियों और अनुभव से राजनीतिज्ञ सबक लेंगे.
कबीर दासजी ने भी कहा है-
‘ऐसी वाणी बोलिए, मन का आपा खोय,
औरन को शीतल करे, आपहुं शीतल होय.’