जन्मदिन विशेष: पढ़ें प्रख्यात व्यंग्यकार ज्ञान चतुर्वेदी की रचना 'नरक-यात्रा' का कुछ अंश

By लोकमत न्यूज़ डेस्क | Updated: August 2, 2019 14:13 IST2019-08-02T13:57:46+5:302019-08-02T14:13:28+5:30

ज्ञान चतुर्वेदी का यह उपन्यास नरक-यात्रा महान रूसी उपन्यासों की परंपरा में है, जो कहानी और इसके चरित्रों के हर संभव पक्ष तथा तनावों को अपने में समेटकर बढ़ा है। 

Gyan Chaturvedi birth anniversary: Chaturvedi, read some of the most interesting episodes of his book | जन्मदिन विशेष: पढ़ें प्रख्यात व्यंग्यकार ज्ञान चतुर्वेदी की रचना 'नरक-यात्रा' का कुछ अंश

जन्मदिन विशेष: पढ़ें प्रख्यात व्यंग्यकार ज्ञान चतुर्वेदी की रचना 'नरक-यात्रा' का कुछ अंश

आज (2 जुलाई) को प्रख्यात व्यंगकार ज्ञान चतुर्वेदी की है। ज्ञान चतुर्वेदी का जन्म उत्तर प्रदेश के झांसी के मऊरानीपुर में 2 अगस्त, 1952 को हुआ था। ज्ञान चतुर्वेदी मध्य प्रदेश के सबसे विख्यात हृदयरोग विशेषज्ञ के रूप में जाने जाते हैं। ये 2002 में अपने उपन्यास बारामासी के लिए यू.के. कथा सम्मान से सम्मानित किये गये। उनके जन्मदिन पर पढें उनके किताब नरक यात्रा के कुछ प्रसंग...

- साहब की सनक ही अस्पताल का कानून था।
- साहब यानी चौबे जी. डा. चौबे।
डॉ. चौबे मेडिसिन के प्रोफ़ेसर तथा हैड थे। जैसा कि पहली पंक्ति में ही निवेदित है, वे सनकी थे तथा भारत की उन सभी आत्माओं की भाँति, जो कुर्सियों में व्याप्त है, एक-दो सनकों में विश्वास नहीं रखते थे । वे सनकों का पुलिंदा थे। वे उठते-बैठते नई सनक ले आते। जब तक लोग पुरानी सनकों के आदी होते, वे नई तैयार कर लेते। फिर भी उनकी कुछ सनकें स्थायी भाव की भाँति थीं। पैसे को लेकर उनकी भावनाओं की चर्चा हम पहले ही कर चुके हैं। वे पैसे को ही भगवान, ईश्वर, अल्लाह, जीसस आदि मानते थे । 

वे इस मामले में धर्मनिरपेक्ष था। उनके डिपार्टमेंट में हर डॉक्टर धीरे-धीरे पैसे की ही बात करना सीख जाता था। जो भी शेयरों की बातें, पूंजीबाजार के नवीनतम आंकड़े, नई कंपनियों की स्थिति आदि की बातें कर लेता था, वही डा. चौबे की निगाहों में चढ़ जाता। जो डॉक्टर मरीजों से ज्यादा से ज्यादा पैसे खींचकर चौबेजी के बँगले पर पहुँचवाता, उसकी एम. डी. पक्की हो जाती। पैसे के अलावा चौबेजी की दो और स्थायी सनकें थीं। वे जब बात करते थे, तो सामनेवाला उनके होंठ हिलने से पूर्व ही समझ जाता था कि उनकी बात में पैसे के अलावा ये दो बातें अवश्य होंगी।
 
ये दो सनकें थीं-मलेरिया तथा उनके पिताजी ।
 
वे हर बीमारी के संदर्भ में अपने पिताजी को घसीट लाते। हर बीमारी उनके स्वर्गीय पिताजी को हो चुकी थी। वे जब मलेरिया पढ़ाते तो मच्छर के विषय में तो विस्तार से बताते ही, परंतु इससे भी अधिक विस्तार से वे यह बताते कि किस तरह उनके पिताजी सन पैंतीस में मलेरिया के कारण मृत्यु को प्राप्त हुए थे। 

अगले दिन वे अपने पूज्य पिताजी को फाइलेरिया से सन अड़तालीस में मारते, और उसके बाद उनके पिताजी को टाइफाइड, मायोकार्डियल इन्फार्कशन, सेरीबल हीमारहेज, निमोनिया, एनसेफिलाइरिस आदि से भी सन बत्तीस, छत्तीस,पचास तथा साठ में मरना पड़ता था। पिछले वर्षों से न तो चौबेजी बाप को मारते थकते थे और न पिताजी मरते हुए। शायद इस प्रकार पिताजी को बीच में घुसेड़कर वे सारी वैज्ञानिक बातचीत को एक व्यक्तिगत स्पर्श देते थे, या शायद उन्हें अन्य मरीजों की भाँति अपने पिताजी के विषय में भी अंत तक यह पता नहीं चल पाया था कि वे आखिर मरे कैसे, सो वे पुलिस की भाँति, जो अपराध होने पर शहर के सभी जरायमपेशा लोगों पर शक करती है, सारी बीमारियों को अपने पिताजी की मौत का कारण मानते थे ।

डा. चौबे हर मरीज को (संदेह + आशा+ विश्वास - वैज्ञानिक समझ x सनक ÷पिताजी) के बीजगणित पर तौलकर उसकी तकलीफों के पीछे मलेरिया का हाथ देखते थे उनके जूनियर डाक्टर तथा अन्य सहयोगी तब मलेरिया के पाँव भी देख लेते थे और मरीज को संपूर्ण मलेरिया समेत धर लिया जाता था। डा. चौबे के वार्ड में मरीज मलेरिया से ही भरती होता था और मरता भी मलेरिया से ही था। कभी-कभी भरती रक्तचाप, माईग्रेन, पागलपन आदि किसी अन्य बीमारी से भी होता था, पर मरते थे सभी मरीज़ मलेरिया से ही। इस वार्ड के दरवाजे पर आकर यमदूत ठहर जाते; मलेरिया को मेकअप करते, मलेरिया जैसा कुर्ता-पाजामा डालते और तब मलेरिया के रूप में अंदर जा पाते।
 
मलेरिया का खौफ, इहलोक से परलोक तक फैला दिया था डा. चौबे ने । वे मलेरिया-विशेषज्ञ थे । मलेरिया पर भाषण देते थे मलेरिया पर शोध-पत्र लिखते थे। मलेरिया पर बोलने के लिए विदेशों तक भागते थे। मलेरिया की बात हो तो लोग चौबेजी का मुँह ताकते थे डा. चौबे की राय क्या है ? वे क्या कहते हैं ? मलेरिया से डा. चौबे के संबंध पतिव्रता स्त्री जैसे थे, यानि कि 'सपनेहुँ आन पुरुष संग नाहीं।‘ वे हर मरीज में मात्र मलेरिया ही सोचते तथा देखते थे । मलेरिया ही उनका ओढ़ना, बिछौना, दस्तरखान तथा कमोड था। मलेरिया ही उनका सूरज, चाँद, सितारा था। मलेरिया ही उनका बाप था, वही बाप जिसे मलेरिया हो गया था और होता रहता था । ऐसा बाप तथा ऐसा मलेरिया डा. चौबे के अलावा और किसे मिल सकता था!
 
ऐसे डा. चौबे राउंड पर निकले थे जैसे कोई शहंशाह रियासत में तफरीह को निकले या हमारा प्रधानमंत्री लक्षद्वीप की तरफ चले। जैसे कोई सुबह की सैर को निकले या अफीम खानेवाला अफीम की दुकान की तरफ चले। जैसे कोई मोर जंगल में नाचने को निकले या भैंस पानी में मड़ियाने चले या मंत्री सचिवालय की तरफ या थानेदार अलमारी की तरफ दारू की बाटली  निकालने।

वैसे ही निरर्थक, अर्थहीन, उद्देश्यहीन तथा फलविहीन कार्य की तरफ था उनका राउंड। एक तफरीह-सी कार्रवाई। एक हरामखोरी-सी कुछ बात । समय काटने के लिए जैसे आदमी मूंगफली खाता है, वसा टाइमपास करवाई। मुँहदिखाई की रस्म । रस्म-अदायगी की मजबूरी में राउंड लेना पड़ता है, सो वे जा रहे थे, वरना सारा काम जूनियर डॉक्टर चला ही रहे थे। सभी मरीजों को मलेरिया ही निकलता था तथा राउंड में खराब होनेवाले समय में वे प्राइवेट मरीजों को देख सकते थे जो फीस देने के लिए रिरियाते धूम रहे थे। बिना पैसे लिए मुफ्त में राउंड लेने में वैसे भी उनकी जान पर बनती थी ।
 
डॉ. चौबे राउंड के लिए चलते-चलते अपने वार्ड के पास पहुँचकर बरामदे में रुक गए और दूर अस्पताल के अहाते में उगे बोगनबलिया के फूलों को ताकने लगे । वह बोगनवेलिया को ताकते रहे। पीछे जूनियर डाक्टरों की फौज बोगनबलिया को प्यार से देख रही थी धन्य बोगनबलिया है, जिसे हमारे डा. चौबे यूँ प्यार से देख रहे हैं-डाक्टरों ने सोचा ।

मलेरिया के बाद सबसे ज्यादा प्यार से चौवेजी ने इसी को देखा। बोगनबेलिया धन्य है। धन्य है वह माली । धन्य है वो धरा जहां पर यह बोगनबलिया खड़ी है। मैं आज राउंड के बाद ही उस धरती को चूमुंगा तथा उस मिट्टी को सिर पर लगाऊँगा जहाँ यह बोगनबलिया खड़ा है-एक 

डाक्टर ने सोचा । मैं कल ही डा. चौबे के यहाँ से निकलते समय बोगनबलिया के पेड़ के नीचे धूल में लौटूंगा-दूसरे ने सोचा । मैं अभी बरामदे की छत से कूदकर कछ फूल तोड़ लाऊँ क्या-तीसरे ने सोचा । सभी सादर खड़े सोचते रहे और खड़े रहे । डा. चौबे खिले हुए फूलों के दृश्य में खोए रहे।
कितना प्यारा दृश्य है, चौबेजी ने कहा।
"बहुत प्यारा और," सभी ने कहा ।
"क्या?
"दृश्य, सर।"
"हैं, बहुत प्यारा दृश्य लग रहा है। बोगनबलिया खिली हो तो देखने बहुत अच्छी लगती है, चौबेजी ने बताया।
जी सर, मुझे भी अच्छी लगती है।
"लगनी चाहिए। एम. डी. करना है तो लगनी ही होगी।
“जी सर ।"
हमारे पिताजी को भी खिली हुई बोगनबलिया देखना अच्छा लगता था। छत पर चढ़ जाते और बोगनवेलिया को देखने में जुट जाते | एक बार इसी कर में वे छत से गिरकर मर गये। वैसे हमें आज भी शक होता है कि उन्हें मलेरिया रहा होगा, जिसके कारण उन्हें चक्कर आ गया होगा मलेरिया बडी खतरनाक बीमारी होती है। इसमें चक्कर से लेकर गर्भपात तक कुछ भी हो सकता इसके बाद चारों तरफ मलेरिया के फूल खिल गए। मलेरिया हौले-हौले बहने
लगा । 

मलेरिया की गंध फैल गई। मलेरिया की लहरें आकर जूनियर डाक्टरों के तट से टकराने लगी। मलेरिया का समंदर बरामदे में फैल गया। “मलेरिया के समंदर में टखने तक डुबोकर खड़े होना और फिर बोगनबलिया देखना, आज का दिन सार्थक हुआ। आज राउंड में साहब का मूड ठीक रहेगा"-जूनियर डाक्टर ने सोचा और राहत की साँस ली।

Web Title: Gyan Chaturvedi birth anniversary: Chaturvedi, read some of the most interesting episodes of his book

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