2017 के गुजरात चुनाव पिछले चुनावों से कितना अलग
By लोकमत समाचार हिंदी ब्यूरो | Updated: December 16, 2017 09:39 IST2017-12-16T09:23:14+5:302017-12-16T09:39:01+5:30
गुजरात विधानसभा चुनाव के प्रचार में हिंदुत्व के मुद्दे से बीजेपी पूरी तरह से हटती दिखी। जो बीजेपी हिंदुत्व के बल पर चुनाव लड़ने के लिए जानी जाती है वह इस बार अपने इस मुद्दे को कहीं खो सी देती दिखी।

2017 के गुजरात चुनाव पिछले चुनावों से कितना अलग
गुजरात विधानसभा के परिणाम 18 दिसंबर को आ जाएंगे। इस बार का चुनाव पिछले हर बार के मुद्दों से थोड़ा अलग रहा। खास बात ये रही कि इस बार के विधानसभा चुनाव के प्रचार में हिंदुत्व के मुद्दे से बीजेपी पूरी तरह से हटती दिखी। जो बीजेपी हिंदुत्व के बल पर चुनाव लड़ने के लिए जानी जाती है वह इस बार अपने इस मुद्दे को कहीं खो सी देती दिखी।
पीएम मोदी ने इस बार प्रचार के दौरान कांग्रेस और पाक को अपना अहम मुद्दा बनाया । मगर, जमीनी स्तर पर इस बार गुजरात में सांप्रदायिक खेमेबंदी कम ही देखने को मिली। मोदी और बीजेपी की तमाम कोशिशों के बावजूद इस बार के गुजरात चुनाव में न तो हिंदुत्व मुख्य मुद्दा बना और न ही विकास। हमेशा हिंदुत्व के मुद्दे से पीछे रहने वाली कांग्रेस इस बार हिंदुत्व के मुद्दे में लिप्त दिखी।
इस बार गुजरात में चुनाव के अलग होने की कई वजहें रहीं। कयास ये भी है कि पहली बार मोदी के मुख्यमंत्री से प्रधानमंत्री बनने की वजह से गुजरात में 2002 के दंगों का जिक्र नहीं हुआ। जब तक मोदी मुख्यमंत्री थे, कांग्रेस और मीडिया गुजरात में 2002 के दंगों का जोर-शोर से जिक्र करते रहे थे। उसी चश्मे से गुजरात को देखा जाता रहा।
ये मुद्दे रहे हावी
खास बात ये है कि इस बार चुनावी माहौल में दूसरे मुद्दे हावी रहे। पहली बार 2002 के दंगों के बाद हुआ कि इस मुद्दे को विपक्ष ने एक बार भी नहीं उठाया। ब्लकि राज्य कीकमियों के बारे में लोगों को बताया। 2012 में पीएम बनने के बाद मोदी ने 2017 के गुजरात चुनाव के लिए कोई एजेंडा ना हना कर निष्पक्ष होकर प्रचार किया। इसके लिए उन्होंने अपने क्षेत्रीय भाषा का चयन किया जिसको लोगों को खासा प्रभाव पड़ सकता है। इस चुनाव में पाटीदार आंदोलन, खेती का संकट, जीएसटी से नाराजगी जैसे मुद्दे इस बार हावी रहे। इस बार गुजरात में जात भी एक मुद्दा बनी, भले ही दूसरे राज्यों के मुकाबले ये कमजोर मुद्दा रहा। हां, हिंदुत्व के नाम पर एकजुटता की बात नहीं हुई।
किसानों को शिकायत रही कि उनकी फसलों की सही कीमत नहीं मिल रही। वहीं, कारोबारी जीएसटी के सदमे से जूझ रहे हैं। इसी वजह से बीजेपी विकास के मुद्दे को जोर-शोर से नहीं भुना पाई और उसने पाक और कांग्रेस के हमले को अपना जरिया बनाया। नाराजगी के बावजूद गुजरात के शहरी और ग्रामीण इलाकों में बहुत से लोग ऐसे हैं, जो ये मानते हैं कि बीजेपी और मोदी ने पिछले दो दशकों में गुजरात को तरक्की को नई रफ्तार दी है। हालांकि, बीजेपी इसे वोटरों के बीच चर्चा का मुद्दा नहीं बना सकी।
हिंदुत्व के मुद्दे पर सबसे ज्यादा चोट पाटीदारों के आंदोलन ने की। इसके चलते हिंदुत्व के नाम पर एकजुटता में दरार साफ दिखी। हार्दिक पटेल की अगुवाई में पाटीदारों ने हिंदुत्व के मुद्दे को गहरी चोट पहुंचाई है। लोगों ने हिंदुत्व के बजाय आरक्षण पर ज्यादा चर्चा की। बात ये कि असल में गुजरात में पाटीदार ही हिंदुत्व की राजनीति के अगुवा रहे हैं।
ध्रुवीकरण का नया रूप
इस बार गुजरात में कांग्रेस ने भी हिंदू-मुस्लिम ध्रुवीकरण का कार्ड बड़ी सफाई से खेला। पार्टी ने इस बार पांच मुसलमानों को उम्मीदवार बनाया था। जबकि पिछली बार कांग्रेस ने 6 मुस्लिम प्रत्याशी उतारे थे। कांग्रेस के सूत्र बताते हैं कि राहुल गांधी को दरगाहों पर जाने की सलाह भी दी गई थी। मगर पार्टी ने ऐसे मशविरों की अनदेखी कर दी। राहुल गांधी ने खुद पूरे प्रचार की कमान संभाली और वह इस बार एक दम आक्रामक रूप में नजर भी आए।
हिंदुत्व का मुद्दा कमजोर हुआ है मगर खत्म नहीं
ऐसा नहीं है कि गुजरात रातों-रात सेक्युलर हो गया है। बहुत से लोगों को अभी भी ये डर है कि कांग्रेस सत्ता में आई तो मुस्लिम ताकतवर हो जाएंगे। इसीलिए वो कांग्रेस को वोट देने से डरते रहे। राहुल गांधी के मंदिरों के फेरे लगाने से ऐसे कई लोगों की आशंकाएं दूर तो हुईं। आज भी गुजरात में हिंदूवादी पहचान की अच्छी खासी अहमियत है। शहरी वोटरों के बीच तो ये बड़ा मुद्दा है। लेकिन इस बार के चुनाव में हिंदुत्व का मुद्दा उछालने पर वोट मिलने की गुंजाइश कम होती दिखी।
किसी भी चुनाव का अंतिम सत्य होता है उसका विजेता। अगर बीजेपी का प्रदर्शन खराब रहता है, तो हिंदुत्व कार्ड के नाकाम रहने को हवा दी जाएगी। लेफ्ट-लिबरल जमात शोर मचाएगी कि गुजरात में सेक्यूलरिज्म की जीत हुई है। ये सेक्यूलरिज्म नहीं है, साहब। असल में दूसरे मुद्दों ने हिंदुत्व को फिलवक्त के लिए किनारे लगा दिया है। अगर इस बार बीजेपी आराम से चुनाव जीत जाती है, जिसकी पूरी संभावना है, तो ये कहा जाएगा कि प्रधानमंत्री का पाकिस्तान और मुसलमानों को मुद्दा बनाना बीजेपी के लिए कारगर साबित हुआ। अगर कांग्रेस सत्ता में आती है तो मंदिरों में राहुल का जाना सफल माना जाएगा।