पटना से विकास कुमारः
बिहार की सड़कों कर फुटकर ही सही लेकिन अब छठ के गीत सुनाई देने लगे हैं। जनता अभी दिवाली और छठ की तैयारियों में ज़्यादा लगी है। नेता अपनी सीट बचाने और गँवाने की स्थिति में दूसरी सीट सुरक्षित करने में लगे हैं। इस सब ए बीच हमने पटना से सहरसा, मधेपुरा, भागलपुर के रास्ते जमुई तक की यात्रा की। इस चुनावी यात्रा में हमने गाँव-देहात, क़स्बों और समाज के सबसे निचले पायदान पर बैठ के जीवन की यात्रा तय करने वाले वर्गों से बातचीत की। उनका मन टटोला। कुछ बातें साफ़ हैं। इस चुनाव में जनता अपना मन बना चुकी है। उसे मालूम है कि कौन उसके अरमानों को पंख देगा और कौन केवल दावे कर रहा है।
नीतीश पर भरोसा अभी भी क़ायम
सोशल मीडिया और नेशनल मीडिया में इस बात को खूब उछाला जा रहा है कि नीतीश कुमार की उमर हो चली है। अब वो खुद फ़ैसले नहीं ले रहे हैं। लिहजा इस चुनाव के बाद उनकी विदाई तय है। जो संकेत आ रहे हैं वो भी इसी तरफ़ इशारा कर रहे हैं। हर चुनाव में बीजेपी से ज़्यादा सीटों पर चुनाव लड़ने वाली जदयू इस चुनाव में बराबर-बराबर सीटों पर चुनाव लड़ रही है।
लेकिन ज़मीन पर जनता अभी भी नीतीश के चेहरे पर ही वोट करने का मन बना रही है। अगर आप बिहार में किसी से पूछे कि वो किसे वोट करने वाला है तो तपाक से जवाब मिलता है, “नितिशे के करब”। कहने का मतलब कि NDA को वोट करने वाले मतदाता नीतीश के चेहरे को ही सामने रख रहे हैं।
वो बीस साल भी बिहार में एक भरोसेमंद नेता की छवि बनाए हुए हैं और ये कम बड़ी बात नहीं है। हालाँकि बिहार में हर स्तर पर करपशन और अफ़सरशाही के लिए नीतीश को निम्मेदार ठहराया जाता लेकिन लगातार बीस सालों तक राज्य की सत्ता में रहने के बाद उनके ख़िलाफ़ वैसी एंटी इनकम्बेंसी नहीं दिखती।
जिसके आधार पर आप नीतीश के पाँव उखड़ने की बात करें! नीतीश बीस साल की सत्ता के बाद भी बिहार में एक भरोसेमंद नाम बने हैं और चुनाव में इसका फ़ायदा NDA को मिलने जा रहा है। खुल कर कहें तो नीतीश के कंधे पर सवार होकर बीजेपी राज्य की सत्ता के सिंघासन पर पहुँचने की जुगत में लगी हुई है।
तेजस्वी के तेज पर जातिवाद का ग्रहण
बिहार के पूर्व उपमुख्यमंत्री, वर्तमान में नेता प्रतिपक्ष और लालू यादव के छोटे बेटे तेजस्वी यादव के लिए ये विधानसभा चुनाव करो या मारो जैसी स्थिति लिए हुए है। परिवार में चुनाव से ठीक पहले एक विवाद हुआ। भाई अलग हुआ। बहन नाराज़ हुई। कुल मिलाकर चुनाव से ठीक पहले परिवार का झगड़ा सतह पर आया।
और अगर चुनाव के बाद रिज़ल्ट उनके पक्ष में नहीं आता है तो ये पारिवारिक झगड़ा उनके लिए नई सिरदर्द लेकर आएगा। लिहजा, तेजस्वी के बाद मैदान चुकाने का मौक़ा नहीं है। और वो लगे भी हुए हैं पूरे दम-खम के साथ। तेजस्वी के पास एक संगठन है। कैडर है। लालू यादव जैसा नाम है।
लेकिन इस सब के साथ ही उनके पास “जातीय उन्माद” का एक ऐसा अनचाहा ज़ख़ीरा भी है जो उनका खेल ज़मीन पर ख़राब कर रहा है। 1990 तक बिहार में दबंग का मतलब होता था-भूमिहार और राजपूत। 2025 में दबंग का मतलब है-यादव। बिहार के गाँवों में ख़ासकर यादव बहुल गाँवों में रहने वाली कथित निचली जाति के लोगों से बात कीजिए तो वो यादवों से प्रतरना की कहानी सुनाने लगते हैं।
अब जब वोट करने की बारी आई है तो ये सभी जातियाँ गोलबंद होकर RJD के ख़िलाफ़ वोट करने का मन बनाती है। अगर इस आधार वो वोटिंग होती है तो RJD के लिए मुश्किलें पैदा हो सकती हैं लेकिन तेजस्वी के पास उनका युवा होना एक ऐसी ताक़त है जो चुनाव में पार्टी के लिए बहुत से रास्ते आसान भी बना सकती है।
PK चुनाव जीत चुके हैं
अगर बिहार विधानसभा का चुनाव सोशल मीडिया पर हो रहा होता तो जन सुराज चुनाव की अकेली बड़ी पार्टी होती और प्रशांत किशोर पटना के गांधी मैदान में मुख्यमंत्री पद की शपथ ले रहे होते। लेकिन अफ़सोस ऐसा है नहीं। ये चुनाव बिहार की ज़मीन पर लड़ी जा रही है जहां से प्रशांत किशोर अभी भी बहुत दूर हैं।
प्रशांत किशोर के लिए अच्छी बात ये है कि जनता उन्हें ख़ारिज नहीं कर रही। उनकी बातों को सुन रही है। समझ रही और गुण भी रही है। बस, उनके नए होने का हवाला दे रही है। अगर वो इसी जोश-जज़्बे के साथ बिहार में टिके रहते हैं तो अगले विधानसभा चुनाव में उनके लिए जनता दिल के दरवाज़े ज़रूर खोल देगी। लेकिन इस दफे उन्हें “वोट कटवा” के तगमे से ही संतोष करना होगा।
प्रशांत किशोर गाँव तक अभी पहुंचे नहीं हैं। शहरों में उनको लेकर बहुत थोड़े से वर्ग में क्रेज़ है। ये क्रेज़ और पहुँच उन्हें और बढ़ाने पर कम करना होगा। सकारात्मक राजनीति की तरफ ध्यान देना होगा। प्रशांत को ये भी ध्यान रखना पड़ेगा कि बिहार के वर्तमान सीएम नीतीश कुमार को बुरा-भला बोलना उनके लिए अच्छा माहौल तैयार नहीं कर रहा।