वाजपेयी सरकार में मंत्री रहे इन 5 नेताओं को मोदी राज में बीजेपी ने किया किनारे
By लोकमत समाचार हिंदी ब्यूरो | Updated: May 27, 2018 11:47 IST2018-05-27T07:25:38+5:302018-05-27T11:47:37+5:30
नरेंद्र मोदी ने 26 मई 2014 को प्रधानमंत्री पद की शपथ ली थी। पीएम बनने के बाद राष्ट्रीय राजनीति में कुछ वरिष्ठ बीजेपी नेताओं को हाशिये पर धकेल दिया गया।

narendra modi and veteran BJP leaders
नरेंद्र मोदी के राष्ट्रीय राजनीति में उदय के साथ ही भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) के कुछ वरिष्ठ नेताओं का सूरज अस्त हो गया। ये कोई ऐरे-गैरे नेता नहीं हैं। इन सभी ने दशकों तक विपक्ष में रहकर बीजेपी को सत्ता में लाने के लिए एड़ी-चोटी का पसीना एक कर दिया। लेकिन जब बीजेपी को केंद्र में पहली बार अकेले दम पर पूर्ण बहुमत मिला तो पार्टी ने नींव के इन पत्थरों को किनारे कर दिया। कुछ बीजेपी नेता दबी-छिपी जुबान में साफ कह देते हैं कि सबका वक्त होता है और ये नेता अपना वक्त पीछे छोड़ चुके हैं। बहरहाल ये फैसला जनता-जनार्दन को करना है कि बीजेपी ने अपने बुजुर्गों के संग सही व्यवहार किया है या नहीं। हम आपको बताते हैं उन 5 नेताओं के बारे में जिनके लिए मोदी राज "अच्छे दिन" लेकर नहीं आया।
1- लाल कृष्ण आडवाणी![]()
एक जमाना था कि लालकृष्ण आडवाणी को बीजेपी का लौहपुरुष कहा जाता था। वो नरेंद्र मोदी के राजनीतिक गुरु भी माने जाते थे। अटल बिहारी सरकार में डिप्टी पीएम रह चुके आडवाणी को एक दौर में वाजपेयी से ज्यादा ताकतवर माना जाने लगा था। कहते हैं कि जब साल 2002 के गुजरात दंगों के बाद तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने राज्य के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी को पद से हटाने की ठान ली तो सीएम मोदी की कुर्सी को आडवाणी ने बचाया था। मोदी का आडवाणी से पुराना नाता था। 1980 के दशक के आखिर में आडवाणी ने जब रथयात्रा निकाली तो उसके संयोजक नरेंद्र मोदी थे। साल 2014 में बीजेपी ने नरेंद्र मोदी को पीएम पद का उम्मीदवार बनाया। एनडीए को प्रचण्ड बहुमत मिला। नरेंद्र मोदी देश ेक प्रधानमंत्री बने। पद ग्रहण करने के बाद पीएम मोदी ने सार्वजनिक रूप से अपेे राजनीतिक उत्थान का श्रेय आडवाणी को दिया। लेकिन जो मोदी कभी झुककर आडवाणी का पैर छूते थे। पिछले दो सालों में एक से ज्यादा मौकों पर सार्वजनिक मंचों पर ठीक से आडवाणी के अभिवादन का जवाब नहीं दिया। सार्वजनिक सभाओं में जब पीएम मोदी न आडवाणी के इग्नोर किया तो उसके वीडियो सोशल मीडिया पर वायरल हुए। हाल ये हो गया कि 90 वर्षीय आडवाणी के प्रति कांग्रेस राहुल गांधी भी सहानुभूति जताते नजर आते हैं।
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2- मुरली मनोहर जोशी
बीजेपी में कभी अटल, आडवाणी और जोशी की जोड़ी को त्रिदेव कहा जाता था। आडवाणी के साथ ही जोशी भी आज सक्रिय हैं लेकिन बीजेपी और राष्ट्रीय राजनीति के लिए लगभग अप्रासंगिक हो चुके हैं। आडवाणी की तरह जोशी भी लोक सभा सांसद हैं। जोशी ने 2014 के लोक सभा चुनाव में अपनी वाराणसी लोक सभा सीट नरेंद्र मोदी के लिए छोड़ी थी। जोशी कानपुर से लड़े और जीते। जोशी कभी जनाधार वाले नेता नहीं रहे लेकिन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) की विचारधारा के अनुरूप काम करने वाले नेता के रूप में उनकी छवि रही। नरेंद्र मोदी जब प्रधानमंत्री बने तो उन्होंने आडवाणी के संग जोशी को भी मार्गदर्शक मण्डल में डाल दिया। एनडीए की पिछली सरकार में जोशी शिक्षा मंत्री थे। नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में बनी एनडीए सरकार में 84 वर्षीय जोशी की जगह 38 वर्षीय स्मृति ईरानी ने ले ली। ये अलग बात है कि ईरानी का कार्यकाल काफी विवादित रहा और चार साल में वो अब तक तीन मंत्रालय संभाल चुकी हैं।
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3- शांता कुमार

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4- यशवंत सिन्हा
अटल बिहारी वाजपेयी सरकार में वित्त मंत्री और विदेश मंत्री रह चुके पूर्व बीजेपी नेता यशवंत सिंह आजकल पीएम नरेंद्र मोदी और बीजेपी के सबसे कड़े आलोचकों के रूप में सुर्खियाँ बटोर रहे हैं। पूर्व आईएएस अफसर सिन्हा पहली बार चंद्र शेखर सरकार में वित्त मंत्री बने थे। 1996 में सिन्हा बीजेपी में शामिल हुए। आडवाणी, जोशी और शांता कुमार की तरह यशवंत सिन्हा मोदी-शाह की जोड़ी के ड्राइविंग सीटबी पर आते ही किनारे किए जाने लगे। 80 वर्षीय यशवंत सिन्हा का बीजेपी के मौजूदा आलाकमान से विवाद इतना बढ़ा कि अप्रैल 2018 में उन्होंने पार्टी छोड़ दी। सिन्हा ने साल 2014 के लोक सभा चुनाव में अपनी परंपरागत हजारीबाग संसदीय सीट अपने बेटे जयंत सिन्हा के लिए छोड़ दी थी। जयंत सिन्हा इस सीट से जीतकर लोक सभा में पहुंचे। जयंत सिन्हा मोदी कैबिनेट में मिनिस्टर हैं। देश के सामने अजीबोगरीब स्थित तब पैदा हुई जब एक अखबार में यशवंत सिन्हा द्वारा अरुण जेटली और मोदी सरकार की आलोचना का जवाब दूसरे अखबार में जयंत सिन्हा ने दिया। कई राजनीतिक जानकारों ने माना कि मोदी-शाह ने जयंत सिन्हा को ये जवाब देने के लिए मजबूर किया होगा और पिता के सामने पुत्र को उतारना राजनीतिक नैतिकता की गिरावट का नया नमूना है।
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