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PM Narendra Modi Movie Review: ब्रांड के विज्ञापनों के साथ खींची हुई स्क्रिप्ट, टीम पर करते काम तो बेहतर हो सकती थी फिल्म

By लोकमत समाचार ब्यूरो | Updated: May 25, 2019 09:20 IST

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फिल्म- पीएम नरेन्द्र मोदीकास्ट- विवेक ओबेरॉयडायरेक्टर- उमंग कुमाररेटिंग- 2.5/5.0

बॉलीवुड में पिछले कुछ वर्षों से बायोपिक फिल्मों का ट्रेंड चल रहा है. खिलाडि़यों से लेकर अभिनेता, नेता जैसे विभिन्न क्षेत्रों के दिग्गजों की बायोपिक फिल्में देखने को मिल रही हैं. इसी कड़ी में शुक्रवार को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की जिंदगी पर आधारित फिल्म 'पीएम नरेंद्र मोदी' रिलीज हुई है. इसमें एक सामान्य परिवार के लड़के का प्रधानमंत्री पद तक का प्रेरक सफर दिखाया गया है. हालांकि निर्देशक ओमंग कुमार इसे उतनी सक्षमता से पर्दे पर उतार नहीं पाए हैं.

कहानी :

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी (विवेक ओबेरॉय) का संघर्ष इसमें देखने को मिलता है. घर की माली हालत ठीक न होने की वजह से मां (जरीना वहाब) घरेलू काम करती है, जबकि पिता (राजेंद्र गुप्ता) चाय बेच कर अपने संसार की गाड़ी चलाते हैं. अपनी माली हालत का एहसास होने की वजह से नरेंद्र मोदी पढ़ाई करने के साथ-साथ पिता की उनके व्यवसाय में मदद करते हैं. देशभक्ति, लोगों की मदद करने की भावना जैसी बातों की समझ उनमें बचपन से ही आ जाती है. वह तय कर लेते हैं कि एक आम इंसान की तरह वह नहीं जीएंगे. वह घरवालों को संन्यास लेने की बात कह कर कुछ साल उनसे अलग भी रहते हैं.

इस बीच उनकी ललक देखकर एक गुरु उन्हें समाजकार्य करने की सलाह देते हैं. इसके बाद नरेंद्र अपना जीवन इस कार्य में झोंक देते हैं. राष्ट्रीय सेवा संघ से वह इसकी शुरुआत करते हैं. लोगों को साथ लाने की क्षमता और बल के बजाय बुद्धि से असंभव को संभव बनाने की कला भारतीय जनता पार्टी के वरिष्ठों को भा जाती है. इसलिए उन्हें गुजरात विधानसभा चुनाव की जिम्मेदारी सौंपी जाती है. उनके प्रयासों से कई साल के बाद गुजरात में भाजपा की सरकार आ जाती है और उन्हें मुख्यमंत्री चुना जाता है.

मुख्यमंत्री बनने के बाद मोदी गुजरात पर आए तमाम संकटों का पूरे सामर्थ्य के साथ सामना करते हुए राज्य का बड़े पैमाने पर विकास करते हैं. इस वजह से 2014 के लोकसभा चुनाव के दौरान भाजपा की ओर से प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार के तौर पर उनके नाम की घोषणा की जाती है. भारत की जनता भी उन्हें प्रधानमंत्री के तौर पर स्वीकार करती है. निर्देशन : मोदी का प्रधानमंत्री पद तक का यह सफर सबको पता है. फिल्म में भी यही देखने को मिलता है और कुछ नया होने की चाह रखने वालों की उम्मीदें धराशाही हो जाती हैं.

हर फिल्म में नायक के साथ खलनायक भी होता है और इसमें भी है. लेकिन फिल्म के नायक को 'लार्जर दैन लाइफ' बनाने के लिए खलनायक की केवल गलत बातें ही दिखाई गई हैं. इसमें खलनायक का पक्ष रखा नहीं गया है. यही वजह है कि फिल्म में कई तरह की खामियां नजर आती हैं. कुछ चीजें बेवजह लगती हैं और फिल्म देखते समय नरेंद्र मोदी की जिंदगी पर डॉक्युमेंट्री देखने का एहसास होता है. इसे 'मेरी कोम' जैसी फिल्म के निर्देशक रहे ओमंग कुमार की नाकामी कह सकते हैं. नरेंद्र मोदी के किरदार को छोड़ अन्य कलाकारों की भूमिकाओं को उतनी अहमियत नहीं दी गई है.

रतन टाटा (बोमन ईरानी), अमित शाह (मनोज जोशी), नरेंद्र मोदी की मां (जरीना वहाब) को छोड़ तमाम किरदार केवल 3-4 सीन में देखने को मिलते हैं. इंदिरा गांधी, अटल बिहारी वाजपेयी, लालकृष्ण आडवाणी के किरदारों को भले ही स्पेस कम मिला हो, लेकिन ये भूमिकाएं ध्यानाकर्षित करती हैं. हालांकि सोनिया गांधी, राहुल गांधी, मनमोहन सिंह के किरदारों को बखूबी प्रस्तुत करने में निर्देशक फेल हुए हैं. उनका गेटअप तो अच्छा है, लेकिन मेकअप नहीं. इस कारण इन किरदारों को पहचानना भी मुश्किल हो जाता है. फिल्म इंटरवल तक दर्शकों को बांधे रखती है, लेकिन इसके बाद इसे जबरदस्ती खींचे जाने का एहसास होता है.

फिल्म की लंबाई कम होती तो अच्छा होता. एक्टिंग : विवेक ओबेरॉय ने अच्छा काम किया है, लेकिन कभी-कभी डायलॉग डिलिवरी के समय लगता है, मानों वह प्रधानमंत्री मोदी की नकल कर रहे हैं. मनोज जोशी, बोमन ईरानी और जरीना वहाब ने अपने किरदारों को उचित न्याय दिया है. फिल्म की सिनेमैटोग्राफी, बैकग्राउंड स्कोर और लोकेशन भी अच्छे हैं. लेकिन एडिटिंग में त्रुटियां महसूस होती हैं.

फिल्म में एक भी गाना ऐसा नहीं है, जो याद रहे. फिल्म देखते समय यह भी महसूस होता है कि कहानी की मांग न होने के बावजूद कई ब्रांड के विज्ञापन किए गए हैं. कुल मिलाकर इस बायोपिक की कहानी पर टीम अधिक मेहनत करती तो फिल्म और भी अच्छी बन सकती थी. फिर भी पीएम मोदी की जिंदगी के उतार-चढ़ाव देखने के लिए इस फिल्म को एक बार जरूर देखा जा सकता है.

टॅग्स :विवेक ओबेरॉयनरेंद्र मोदी
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