रहीस सिंह का ब्लॉग: जिनपिंगवाद की छाया और बूढ़े होते चीनी

By रहीस सिंह | Published: November 5, 2022 10:15 AM2022-11-05T10:15:33+5:302022-11-05T10:16:23+5:30

शी जिनपिंग ने अपने दोनों कार्यकाल में पार्टी के अंदर मौजूद सभी प्रकार के विरोधियों को समाप्त कर चुनौतीविहीन तानाशाह बनने का रास्ता साफ कर लिया। 

The shadow of Jinpingism and the aging Chinese | रहीस सिंह का ब्लॉग: जिनपिंगवाद की छाया और बूढ़े होते चीनी

रहीस सिंह का ब्लॉग: जिनपिंगवाद की छाया और बूढ़े होते चीनी

Highlightsयुआन की कमजोरी बाहरी निवेशकों को चीन से बाहर जाने को प्रेरित कर रही है।चीनी वित्तीय बाजार अनिश्चितता से गुजर रहा है और चीनी केंद्रीय बैंक अर्थव्यवस्था में अतिरिक्त पैसा डालकर सबकुछ ठीक करने की कोशिश कर रहा है।सबसे अहम बात यह है कि चीन बूढ़ा हो रहा है।

शी जिनपिंग अपने तीसरे कार्यकाल की ओर बढ़ चुके हैं और चीन एक नई तानाशाही की दिशा में। चीन के गांवों से लेकर शहरों तक में एक अजीब सी अशांति है जो भले ही दबा रखी गई हो लेकिन जिस प्रकार से आंतरिक सुरक्षा बजट में चीन वृद्धि कर रहा है, उससे यह लगता है कि इस तरह की अशांति एवं प्रतिरोध की निर्मित हो रही प्रवृत्तियां इतिहास की नई पटकथा लिखने की क्षमता रखती हैं। लेकिन शी जिनपिंग नव चीनी समाजवाद या दूसरे शब्दों में कहें तो जिनपिंगनिज्म (जिनपिंगवाद) को सांगोपांग के साथ चीन में प्रतिष्ठापित करने की कोशिश में हैं। 

जिनपिंगवाद चीन के लोगों को किस सीमा तक रोजगार और सुरक्षा देगा, यह कहना मुश्किल है लेकिन यह शी जिनपिंग की महत्वाकांक्षाओं को ठीक उसी प्रकार से पूरा करने के लिए समर्पित रहेगा जैसा माओत्से तुंग की महत्वाकांक्षाओं की पूर्ति का साधन 'ग्रेट लीपफाॅरवर्ड' और कल्चरल रिवोल्यूशन बने थे। इसका नमूना दिख भी रहा है कि चीन के कई शहर लॉकडाउन से गुजर रहे हैं और चीन के शासक चीन को एक सुपर पाॅवर बनाने के लिए ताइवान पर निशाना साध रहे हैं। 

क्या ऐसा नहीं लगता कि चीन जिस फाउंडेशन पर खड़े होकर अपनी ताकत का प्रदर्शन करने की कोशिश कर रहा है, वह उतना मजबूत नहीं जितना दुनिया के कुछ विश्लेषक और चीनी शासक दिखाने की कोशिश कर रहे हैं? इस बात से दुनिया परिचित ही है कि विश्व की दूसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था की वैश्विक मंदी (रिसेशन) के कारण सांस फूलती हुई दिख रही है। यह अलग बात है कि चीनी शासन की निरंकुशता और स्वतंत्र प्रेस का अभाव इस सच को बाहर नहीं आने देते। 

सच यही है कि चीन इस समय घरेलू और अंतरराष्ट्रीय, दोनों ही बाजारों में मांग की गिरती हुई प्रवृत्ति का सामना कर रहा है। हालांकि यह प्रवृत्ति एकाएक नहीं उभरी है। ऐसी प्रवृत्तियां उस समय भी चीनी अर्थव्यवस्था में मौजूद थीं जब अमेरिकी अर्थव्यवस्था सब-प्राइम संकट की चपेट में आई थी और विश्व बैंक के कुछ अर्थशास्त्रियों ने डि-कपलिंग की घोषणा कर चीन को ग्लोबल इकोनाॅमिक लीडर के तौर पर पेश कर दिया था। 

ये प्रवृत्तियां तब भी मौजूद थीं जब यूरो जोन आर्थिक संकट से गुजर रहा था और यूरोप में मौजूद चीनी माल के बाजार सिकुड़ रहे थे और ये प्रवृत्तियां उस समय भी देखी गईं जब वुहान वायरस का प्रसार पूरी दुनिया में हुआ था और चीन कोविड-19 के मामले में खुद को क्लीन चिट देने के बावजूद विश्वास के संकट (ट्रस्ट डेफिसिट) से गुजर रहा था। स्थितियों को और जटिल बनाया अमेरिका-चीन व्यापार युद्ध ने, जिसका सीधा असर चीनी अर्थव्यवस्था की ग्रोथ पर पड़ा। आज चीनी मुद्रा युआन डॉलर के मुकाबले बेहद खराब प्रदर्शन कर रही है। 

युआन की कमजोरी बाहरी निवेशकों को चीन से बाहर जाने को प्रेरित कर रही है। चीनी वित्तीय बाजार अनिश्चितता से गुजर रहा है और चीनी केंद्रीय बैंक अर्थव्यवस्था में अतिरिक्त पैसा डालकर सबकुछ ठीक करने की कोशिश कर रहा है। सबकुछ कितना ठीक होगा, यह कहना मुश्किल है लेकिन इतना तय है कि यदि चीनी अर्थव्यवस्था और नीचे गिरी तथा घरेलू अशांति का वातावरण बना तो जिनपिंग एशियाई शांति के लिए काफी नुकसानदेह होंगे। शी जिनपिंग ने अपने दोनों कार्यकाल में पार्टी के अंदर मौजूद सभी प्रकार के विरोधियों को समाप्त कर चुनौतीविहीन तानाशाह बनने का रास्ता साफ कर लिया। 

लेकिन इसका यह मतलब कदापि नहीं है कि जिनपिंग जिस माॅडल को चीन पर थोप देंगे, वह वैश्विक रूप से स्वीकार्य भी होगा या उसमें दुनिया को लीड करने की क्षमता और योग्यता भी होगी। वैसे भी जिनपिंगवादी चाइनीज मॉडल में बहुत सी खामियां हैं जो चीन को संदिग्ध भी बनाती हैं जिसमें 'बेल्ट एंड रोड इनीशिएटिव' से लेकर वुहान वायरस और जीरो कोविड नीति तक कई उदाहरण दिए जा सकते हैं। सबसे अहम बात यह है कि चीन बूढ़ा हो रहा है। 

उसे जिनपिंगवाद जवान कैसे बना पाएगा? बूढ़ा चीन कम से कम कुलांचे तो नहीं भर सकता। उसका रियल स्टेट सेक्टर धीमी मांग का शिकार है।
इन सबके बीच शी जिनपिंग माओत्से तुंग और डेंग जियांग पिंग के बाद या उनसे भी आगे निकलकर सर्वाधिक ताकतवर नेता होने पर विशेष फोकस कर रहे हैं। यही वजह है कि शी जिनपिंग ने कम्युनिस्ट पार्टी की बैठक में अपने आर्थिक माॅडल के बजाय ताइवान मुद्दे को वरीयता देना उचित समझा।

दरअसल जिनपिंग को पता है कि ताइवान, दक्षिण चीन सागर, क्वाड और दक्षिण एशियाई रणनीति (विशेषकर भारत विरोध) ऐसे विषय हैं जो उनके खिलाफ उपजने वाली प्रतिक्रियाओं के लिए ढाल साबित होंगे। इसमें कोई संशय नहीं कि चीन की बूढ़ी आबादी चीनी अर्थव्यवस्था की उत्पादकता को और धीमा करेगी। शी जिनपिंग और उनका स्टैटिस्टिकल विभाग यह भलीभांति जानता भी है। यही वजह है कि चीन ने अपनी अर्थव्यवस्था में अतिरिक्त पूंजी के प्रवाह को पर्याप्त मात्रा में बढ़ाया है। 

लेकिन ऐसा करते समय उसने यह ध्यान नहीं दिया कि अर्थव्यवस्था में बेतहाशा पूंजी की वृद्धि उसी प्रकार से आर्थिक गति को प्रभावित कर सकती है जिस प्रकार से एक सीमित क्षमता वाली पुरानी मोटर बाइक की क्षमता से अधिक भार बढ़ाने या निर्धारित गति से ज्यादा तेज रफ्तार देने पर इंजन हीट कर जाता है। चीनी अर्थव्यवस्था में भी ऐसी हीटिंग देखी जा सकती है। 

अभी हीटिंग के कम होने की संभावनाएं दिख भी नहीं रही हैं। कारण यह है कि चीन इस समय बड़ा कर्जदार है। कुल मिलाकर जिनपिंग की तानाशाही शायद जिनपिंगवादी माॅडल के बड़े-बड़े सुराखों पर पैबंद लगाने की एक युक्ति है जो चीन की सीमाओं से बाहर अपनाई जा रही चीनी आक्रामकता तक में देखी जा सकती है। अभी यह और बढ़ेगी, जिसके प्रभाव भारत की सीमा पर भी दिख सकते हैं।

Web Title: The shadow of Jinpingism and the aging Chinese

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