चलिए, सबसे पहले आपको 46 साल पुरानी एक घटना की याद दिलाता हूं क्योंकि पाकिस्तान के भीतर मौजूदा हालात को समझने के लिए उस घटना को याद करना जरूरी है. वो 21 नवंबर 1979 की दोपहर थी जब जमात-ए-इस्लामी से जुड़ी उग्र भीड़ ने इस्लामाबाद में अमेरिका के दूतावास को आग के हवाले कर दिया था. उसमें चार लोगों की मौत हो गई थी. पिछले सप्ताह तहरीक-ए-लब्बैक नाम की कट्टर धार्मिक संस्था ऐसा ही कुछ करने वाली थी. मगर सेना ने गोलियों की बौछार कर दी और तहरीक-ए-लब्बैक का कारवां इस्लामाबाद नहीं पहुंच पाया.
1979 में अमेरिकी दूतावास पर हमले का कारण यह था कि ईरानी धार्मिक नेता रुहोल्लाह खुमैनी ने ईरानी रेडियो पर झूठी तकरीर की कि अमेरिका और इजराइल ने सऊदी अरब में ग्रैंड मस्जिद पर कब्जे की साजिश रची. ये झूठी खबर फैलते ही पाकिस्तान जलने लगा. न केवल इस्लामाबाद में हमला हुआ बल्कि लाहौर, कराची और रावलपिंडी में भी भयंकर दंगे हुए और अमेरिका के कई प्रतिष्ठानों को जला दिया गया.
जब अमेरिका ने जियाउल हक को धमकाया तब जाकर दंगे पर काबू पाया जा सका लेकिन तब तक चार लोगों की मौत हो चुकी थी जिसमें दो अमेरिकी थे. इस बार ऐसा कोई झूठ नहीं फैला है लेकिन पाकिस्तान के लोगों को लग रहा है कि अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प की खुशामद में पाकिस्तानी प्रधानमंत्री शहबाज शरीफ और सेना प्रमुख आसिम मुनीर ने सारी हदें पार कर दी हैं.
शरीफ और मुनीर की जोड़ी इजराइल के प्रति नरम रवैया अपना रही है और फिलिस्तीनियों को धोखा दे रही है. पाकिस्तानियों को लग रहा है कि ट्रम्प ने गाजा में शांति के लिए समझौते की जो रूपरेखा रची है, उससे इजराइल को ही फायदा होने वाला है. फिलिस्तीनियों के हाथ कुछ नहीं आएगा. तो फिर पाकिस्तान ट्रम्प के साथ क्यों खड़ा है?
इसी बात को लेकर तहरीक-ए-लब्बैक पाकिस्तान (टीएलपी) ने लाहौर में तो गदर मचाया ही, उसके हजारों समर्थक इस्लामाबाद में अमेरिका के दूतावास को घेरने के लिए निकल पड़े. सीआईए हरकत में आई और अमेरिका ने पाकिस्तान को हड़काया कि 1979 जैसा कुछ हुआ तो तुम्हारी खैर नहीं है. इसके बाद पाक सेना ने बल प्रयोग किया.
टीएलपी का दावा है कि उसके नेता साद हुसैन रिजवी को गोलियां लगी हैं और उसके 250 कार्यकर्ता मारे गए हैं तथा 1500 घायल हुए हैं. ये साद रिजवी, खादिम हुसैन रिजवी के पुत्र हैं जिन्होंने 2015 में तहरीक-ए-लब्बैक की स्थापना की थी. मजेदार बात यह है कि इसकी स्थापना के पीछे भी पाकिस्तानी सेना ही थी.
बहरहाल पाकिस्तानी मीडिया में इतनी बड़ी घटना की ज्यादा रिपोर्टिंग नहीं है क्योंकि सेना ने शिकंजा कस रखा है. पाकिस्तान में यह बात भी कही जा रही है कि ट्रम्प की खुशामद में मुनीर और शरीफ अंधे हो चुके हैं. जानकार कह रहे हैं कि शरीफ और मुनीर के खिलाफ जिस तरह का गुस्सा आम आदमी में है, वह कभी भी अत्यंत गंभीर रूप ले सकता है.
वैसे भी पाकिस्तान में कट्टरपंथियों की समानांतर सरकार चलती है. उनमें इतनी ताकत है कि सरकार भी उनसे पंगा लेने से घबराती है. तहरीक-ए-लब्बैक पर पाकिस्तानी सेना की कार्रवाई ने दूसरे कट्टरपंथियों का भी खून खौला दिया है. उन्हें लग रहा है कि सरकार और सेना यदि अमेरिका की गोद में बैठी रही तो उन्हें ज्यादा मुश्किलों का सामना करना पड़ेगा.
इस वक्त एक और कारण से पाकिस्तानियों का गुस्सा बढ़ रहा है. वह कारण है तालिबान के साथ पाकिस्तान की लड़ाई. पिछले सप्ताह बिना किसी कारण के पाक सेना ने जिस तरह से तालिबान पर हवाई हमले किए, उसे लोग पचा नहीं पा रहे हैं. उन्हें लग रहा है कि यह भी ट्रम्प के इशारे पर ही हुआ है. ट्रम्प चाहते हैं कि अफगानिस्तान अपना बगराम एयरफील्ड अमेरिका को सौंप दे.
ट्रम्प ने इसके लिए बड़ा बेतुका कारण बताया है. उनका कहना है कि चूंकि बगराम एयरफील्ड अमेरिका ने बनाया था, इसलिए उस पर उसी का हक है. ट्रम्प की इस कोशिश के विरोध में चीन, रूस और भारत तालिबान के साथ आ गए हैं. पाकिस्तानियों को लग रहा है कि ट्रम्प अपने फायदे के लिए उनका इस्तेमाल कर रहे हैं. इससे चीन के साथ दोस्ती खतरे में पड़ सकती है.
इन दिनों पाकिस्तानी चीन के प्रेम में पागल हुए जा रहे हैं. तो क्या हुक्मरानों और अपनी सेना के बारे में पाकिस्तानी जो सोच रहे हैं, वह सही है? लगता तो यही है. जिस तरह से ट्रम्प की चंपी मालिश चल रही है, उसके पीछे कुछ न कुछ फायदे की सोच ही होगी. मगर ये तय है कि उसमें पाकिस्तान की भलाई से ज्यादा सैन्य अधिकारियों और नेताओं का लाभ छिपा होगा.
वहां की सत्ता कभी आम आदमी के बारे में नहीं सोचती और आम आदमी इतना कमजोर है कि आटे-दाल में ही उलझा हुआ है. पाकिस्तानी अवाम को जानबूझ कर धर्म की चाशनी में इस कदर डुबो दिया गया है कि उससे ज्यादा कुछ सोचे ही नहीं! जनता सोचने लगेगी तो सत्ता कैसे टिकेगी? युवा यदि धर्म की चादर में नहीं लिपटेंगे तो जेहाद के नाम पर फटेंगे कैसे?
लेकिन इस बार पाकिस्तान खुद लपेटे में है. जिन सांपों को उसने पाला था, वही उसे डसने लगे हैं. आप कह सकते हैं कि पाकिस्तान चचा के चक्कर में उलझा हुआ है लेकिन चचा का क्या दोष? चचा का काम ही है उलझाना! ...और तुम कौन से कम हो? किसी दिन चचा की पीठ में ही खंजर भोंक दोगे.
चचा भी भूले कहां होंगे कि लादेन तुम्हारे ही आंगन में पल रहा था. चचा जानते हैं कि पाकिस्तानी सेना, उसकी खुफिया एजेंसी आईएसआई और उसके इशारों पर चलने वाली सरकार को जहां से भी माल-मत्ता मिलने की जरा सी भी उम्मीद हो, वहां वे किसी भी हद तक झुकने को तैयार हो जाते हैं और इसी बात का फायदा चचा उठा रहे हैं.