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डॉ. विजय दर्डा का ब्लॉग: तानाशाहों की चाल और तिब्बत पर ताल

By विजय दर्डा | Updated: June 24, 2024 05:20 IST

एक तरफ दुनिया के तीन तानाशाह- चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग, रूस के राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन और उत्तर कोरिया के तानाशाह किम जोंग उन का खतरनाक गठजोड़ और उनकी साजिश भरी चाल है तो दूसरी ओर भारत के कंधे पर अमेरिका का बंदूक है। अंदरखाने बहुत कुछ चल रहा है।

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विश्व की राजनीति में अचानक एक के बाद एक तेजी से ऐसी घटनाएं सामने आने लगीं कि विदेशी मामलों के जानकार भी हैरान हो रहे हैं। मगर इन घटनाओं को आपस में जोड़ कर देखना बहुत जरूरी है क्योंकि सारी घटनाएं एक-दूसरे को प्रभावित करने वाली हैं और सबसे बड़ी बात कि इन घटनाओं का सीधा असर हमारे देश पर पड़ने वाला है। हम चाहकर भी इससे अप्रभावित नहीं रह सकते। एक तरफ दुनिया के तीन तानाशाह- चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग, रूस के राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन और उत्तर कोरिया के तानाशाह किम जोंग उन का खतरनाक गठजोड़ और उनकी साजिश भरी चाल है तो दूसरी ओर भारत के कंधे पर अमेरिका का बंदूक है। अंदरखाने बहुत कुछ चल रहा है।

अब जरा एक-एक कर घटनाओं पर नजर डालिए। पिछले कुछ वर्षों से चीनभारतीय राज्य अरुणाचल प्रदेश के विभिन्न स्थानों के नाम बदलता रहा है और भारत ने शाब्दिक विरोध के अलावा कोई और खास कदम नहीं उठाया। लेकिन सत्ता में तीसरी बार आने के ठीक बाद एनडीए सरकार ने अचानक तिब्बत के तीस स्थानों के नाम बदलने का प्रस्ताव पारित कर दिया। जिस तरह से यह निर्णय लिया गया, उसे सोची-समझी रणनीति का हिस्सा ही माना जाना चाहिए। यह चीन को एक तरह से चुनौती देने जैसा है. इसी बीच अमेरिकी हाउस ऑफ रिप्रेजेंटेटिव ने तिब्बत-चीन विवाद के समाधान को बढ़ावा देने वाले एक एक्ट को बहुमत के साथ पारित कर दिया।

इस एक्ट के पक्ष में 391 मत तथा विरोध में महज 26 मत पड़े। अमेरिकी सीनेट इसे पहले ही पारित कर चुकी थी। अब इस बात पर गौर करिए कि इस एक्ट से क्या फर्क पड़ेगा? इसमें कहा गया है कि तिब्बत के इतिहास, लोगों और संस्थाओं के बारे में चीन की ओर से जो गलत बातें फैलाई जा रही हैं, उसे रोकने के लिए अमेरिका फंड उपलब्ध कराएगा। इसका मतलब है कि तिब्बत आंदोलन के लिए अमेरिका पैसे देगा। यह एक तरह से चीन को खुली चुनौती है क्योंकि चीन ने तिब्बत पर कब्जा कर रखा है।

अमेरिका यहीं नहीं रुका बल्कि उसका सात सदस्यीय प्रतिनिधिमंडल भारत आया और हिमाचल प्रदेश के धर्मशाला में जाकर तिब्बती धर्मगुरु दलाई लामा से मिला। धर्मशाला में तिब्बत की निर्वासित सरकार रहती है। 1959 में तिब्बत पर चीनी कब्जे के बाद दलाई लामा अपने सहयोगियों के साथ भारत आ गए थे और तिब्बत की निर्वासित सरकार यहां स्थापित हुई थी। दलाई लामा से मिलने वाले प्रतिनिधिमंडल में अमेरिकी कांग्रेस की पूर्व स्पीकर नैंसी पेलोसी भी शामिल थीं। प्रतिनिधिमंडल ने तिब्बत की स्वायत्तता का मुद्दा उठाया और अमेरिका के पूर्ण सहयोग की बात भी की। 

संभवत: यह पहला मौका है जब भारत की धरती से किसी विदेशी प्रतिनिधिमंडल ने तिब्बत का मामला उठाया है. यहां दो बातें गौर करने वाली हैं। अमेरिका का यह प्रतिनिधिमंडल क्या सरकारी है? या फिर निजी स्तर पर भारत आया है? दूसरी बात कि प्रतिनिधिमंडल को क्या भारत का समर्थन प्राप्त है? इन दोनों ही सवालों पर फिलहाल चुप्पी छाई है। मगर इतना तय है कि इससे चीन बहुत परेशान है। उसे यह डर सता रहा है कि यदि तिब्बत का मामला फिर से गरमा गया तो उसे परेशानी हो सकती है। अमेरिका और भारत निश्चय ही यही चाहते हैं।

चीन इस बात को अच्छी तरह समझता है और उसने अमेरिका तथा भारत के बीच पनपते रिश्ते की काट के लिए तानाशाहों के गठजोड़ को बढ़ावा दिया है। रूस के साथ वह सहयोग लगातार बढ़ा रहा है। रूस और चीन की नजदीकी भारत के हित में नहीं है क्योंकि रूस भारत का सबसे बड़ा रक्षा साझीदार है। इधर रूस के साथ उत्तर कोरिया को जोड़कर चीन ने अमेरिका की चिंताएं बढ़ा दी हैं। तानाशाह किम जोंग उन सनकी स्वभाव का व्यक्ति है और अपनी सनक में वह कुछ भी कर सकता है। अमेरिका को सबक सिखाने की वह लगातार धमकी भी देता रहा है।

जरा सोचिए कि पुतिन और किम जोंग उन के खतरनाक गठजोड़ को यदि चीन का भी साथ मिला हुआ है तो यह कितना विनाशकारी हो सकता है! रूस और उत्तर कोरिया ने अनुबंध भी कर लिया है कि किसी भी हमले की स्थिति में दोनों एक-दूसरे का साथ देंगे। लेकिन इस फिल्म का डायरेक्टर चीन है और स्वाभाविक तौर पर वह इन दोनों को अपने गुर्गे की तरह इस्तेमाल कर सकता है। 

रूस चूंकि इस समय दुनियाभर से कटा हुआ है इसलिए भारत के साथ ही उसके लिए चीन की नजदीकी ज्यादा मायने रखती है। लेकिन फिलहाल हमें रूस पर भरोसा रखना चाहिए क्योंकि हर फोरम पर उसने भारत के साथ दोस्ती को बरकरार रखा है और भारत भी इसमें पीछे नहीं रहा है। इस रिश्ते पर चीनी चाल का कोई असर नहीं होगा।

भारत अब किसी का पिछलग्गू देश नहीं है बल्कि अपनी सोच के साथ विश्व पटल पर तेजी से बढ़ता हुआ देश है। हमारी बात अब दुनिया भर में सुनी जाती है। हम बड़े आर्थिक खिलाड़ी भी हैं और बड़े उपभोक्ता भी। चीन चाहे कितना भी गठजोड़ कर ले, तिब्बत का मामला तो फिर से उठ गया है और इस पर शोर मचता रहेगा। निकट भविष्य में तिब्बत को भले ही स्वायत्तता नहीं मिले लेकिन चीन के गले की फांस तो रहेगा ही! 

चीन को क्या हम नाकों चने चबवा पाएंगे ताकि वह सीमा पर हरकतें बंद करे? तिब्बत पर ताल ठोंकना तिब्बत के लोगों के साथ ही हमारे भी हक में है। दुनिया गवाह है कि तानाशाह कितना भी मजबूत हो, उसका खात्मा तय होता है। हां, थोड़ा वक्त लगता है। इंतजार कीजिए!

टॅग्स :चीनभारतरूसउत्तर कोरियादलाई लामा
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