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Bondi Beach attack: नफरत की आग में घी किसने डाला?, 45 दिनों में यहूदी विरोधी 365 से ज्यादा घटनाएं

By विकास मिश्रा | Updated: December 23, 2025 05:41 IST

Bondi Beach attack: अक्तूबर-नवंबर के बीच 45 दिनों में यहूदी विरोधी 365 से ज्यादा घटनाएं हुईं. ऐसी घटनाएं लगातार बढ़ती जा रही हैं. ऑनलाइन नफरत की तो जैसे आंधी चल रही है.

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ठळक मुद्देसवाल है कि आखिर ऐसी नफरत क्यों?गिरमिटिया मजदूरों को मॉरीशस, फिजी और दूसरे देशों में ले गए थे.न्यू साउथ वेल्स विधानसभा के पहले यहूदी सदस्य बने. वे मंत्री भी बने.

Bondi Beach attack: ऑस्ट्रेलिया के बोंडी बीच पर यहूदी त्यौहार हनुक्का के मौके पर हुए हमले को केवल इस्लाम अ‍ैर यहूदी मान्यताओं के संघर्ष के तौर पर नहीं देखा जाना चाहिए बल्कि उस नफरत के रूप में भी देखा जाना चाहिए जो ऑस्ट्रेलियाई समाज में यहूदियों के लिए सदियों से पोषित होती रही है. बोंडी बीच का हमला चूंकि बड़ा था इसलिए चर्चा में आ गया. हकीकत यह है कि लगातार हमले हो रहे हैं. अक्तूबर-नवंबर के बीच 45 दिनों में यहूदी विरोधी 365 से ज्यादा घटनाएं हुईं. ऐसी घटनाएं लगातार बढ़ती जा रही हैं. ऑनलाइन नफरत की तो जैसे आंधी चल रही है.

सवाल है कि आखिर ऐसी नफरत क्यों? इस सवाल का जवाब ढूंढ़ने के लिए हमें इतिहास मेंं पीछे लौटना होगा. ब्रिटेन ने जब ऑस्ट्रेलिया को अपना उपनिवेश बनाया तो बहुत सारे यहूदियों को जंजीरों में जकड़ कर गुलामों के रूप में लाया गया ताकि वे अंग्रेजों के लिए अपना खून-पसीना बहा सकें. ठीक उसी तरह जैसे कि भारत से वे गिरमिटिया मजदूरों को मॉरीशस, फिजी और दूसरे देशों में ले गए थे.

इन गुलाम मजदूरों ने अपना खून-पसीना बहाया और एक वक्त ऐसा भी आया जब अपनी अलग पहचान बनानी शुरू की. वे फलने-फूलने लगे. लियोनेल सैमसन पहले यहूदी थे जिन्होंने 1849 में पश्चिमी ऑस्ट्रेलियाई विधान परिषद के लिए जीत हासिल की. उनके बाद सर साउल सैमुअल 1854 में न्यू साउथ वेल्स विधानसभा के पहले यहूदी सदस्य बने. वे मंत्री भी बने.

उस वक्त तक यहूदियों का ऑस्ट्रेलिया में कोई विरोध नहीं था. यहूदियों के खिलाफ पहला स्वर 1880 के दशक में उठा जब वहां राष्ट्रवाद का उदय हुआ और संघीकरण का अभियान प्रारंभ हुआ. रूस में जब यहूदियों के लिए हालात खराब होने लगे तो वहां से शरणार्थी ऑस्ट्रेलिया पहुंचने लगे.

हलांकि उनकी संख्या कम ही थी लेकिन राष्ट्रवादी नेताओं, ट्रेड यूनियनों और यहां तक कि मीडिया ने भी ऐसा माहौल बनाया कि ऑस्ट्रेलिया नस्लीय पूर्वाग्रह का शिकार होने लगा और यहूदी विरोधी भावनाएं ज्यादा प्रबल होने लगीं. कुछ दिनों बाद मामला शांत हुआ और समाज में सहजता आने लगी.

यहूदी विरोध के बावजूद कई वर्षों तक स्थिति ठीक रही मगर द्वितीय विश्व युद्ध प्रारंभ होने से ठीक पहले 1938 से 1939 के बीच यहूदी शरणार्थियों की कई और खेपें ऑस्ट्रेलिया पहुंच गईं. फिर 1946 से 1954 के बीच भी शरणार्थी पहुंचे. ऑस्ट्रेलियन नेटिव्स एसोसिएशन ने तो यहूदियों को शरण दिए जाने के खिलाफ प्रस्ताव तक पारित किया.

तो इतिहास बताता है कि ऑस्ट्रेलिया में यहूदी विरोधी भावनाएं लगातार बनी रही हैं. इधर कट्टरपंथी इस्लामी समूह भी यहूदियों के विरोधी हैं. इस विरोध में इजराइल-फिलिस्तीन का मुद्दा प्रबल है. इस तरह से ऑस्ट्रेलिया में यहूदियों को दोहरा विरोध झेलना पड़ रहा है. हालात इतने खराब हो गए हैं कि यहूदी बच्चे परंपरागत पोशाक भी पहनने से डरने लगे हैं.

सोशल मीडिया पर यहूदी विरोधी भावनाएं इतनी प्रबल हो चुकी हैं कि नफरत की जैसे बयार बह रही हो! अब सवाल पैदा होता है कि इस समस्या से निपटने के लिए सरकार ने आखिर क्या किया? बोंडी बीच पर जब यहूदी हनुक्का त्यौहार मना रहे थे तब उन्हें सुरक्षा क्यों नहीं दी गई? जबकि सरकार को पता था कि यहूदियों को डराने-धमकाने की घटनाएं लगातार बढ़ रही हैं.

साफ जाहिर होता है कि ऑस्ट्रेलिया में सरकारी स्तर पर भी कहीं न कहीं यहूदियों के विरोध की भावना मौजूद है. इजराइल के राष्ट्रपति बेंजामिन नेतन्याहू ने तो सीधे तौर पर ऑस्ट्रेलिया के प्रधानमंत्री एंथनी अल्बनीज पर निशाना साधा है. नेतन्याहू का कहना है कि 17 अगस्त को उन्होंने अल्बनीज को एक चिट्ठी भेजकर आगाह किया था कि ऑस्ट्रेलियाई सरकार की नीतियां ऑस्ट्रेलिया में यहूदियों के विरोध को बढ़ावा दे रही हैं, आपकी सरकार ने ऑस्ट्रेलिया में यहूदियों के विरोध को फैलने से रोकने के लिए कुछ नहीं किया है.

ऑस्ट्रेलियाई प्रधानमंत्री ने हालांकि अपना बचाव किया है और इसी बीच ऑस्ट्रेलियाई संघीय पुलिस ने यहूदी विरोधी खतरों और हिंसा की जांच के लिए एक विशेष टास्क फोर्स का गठन किया है. ऑस्ट्रेलिया का कहना है कि वह नफरत को प्रश्रय नहीं देता है. वैसे ऑस्ट्रेलिया में जो कुछ भी हो रहा है, उसे केवल मुस्लिमों और यहूदियों के बीच खिंची तलवार के रूप में नहीं देखा जाना चाहिए.

इसे स्पष्ट रूप से कट्टरपंथियों के हमले के रूप में देखा जाना चाहिए क्योंकि हमलावर साजिद अकरम और उसका बेटा नवीद अकरम ऑस्ट्रेलिया के नहीं बल्कि भारतीय मूल के हैं. बल्कि भाईचारे का शानदार उदाहरण  देखिए कि साजिद और नवीद का विरोध करने वाले अहमद अल अहमद एक मुस्लिम हैं, जिनके लिए मानवता पहले पायदान पर है.

उन्होंने हमलावरों की बंदूक छीनी, वे खुद घायल हो गए लेकिन उन्होंने दूसरों की जान बचा ली. यदि दुनिया भर में लोग इतने बहादुर हो जाएं और मानवीय भावनाओं से ओतप्रोत हो जाएं तो दुनिया की तस्वीर बदल सकती है. ऑस्ट्रेलिया की सरकार को समझना होगा कि जब आतंकवाद के लिए बेहतर हालात उपलब्ध कराते हैं यानी सांप पालते हैं तो वह किसी दिन आपको भी काटता है. पाकिस्तान से ज्यादा बेहतर उदाहरण और क्या हो सकता है. ऑस्ट्रेलिया को समझना होगा कि जिस नस्लीय पालने में वह झूलने का आनंद ले रहा है, वह उसके लिए भी घातक साबित होने वाला है.

टॅग्स :ऑस्ट्रेलियाआतंकवादी
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