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ब्लॉगः भारत की अफगान नीति में बड़ा बदलाव, 11 सितंबर को अमेरिकी और नाटो फौजों की वापस जाने की डेडलाइन

By शोभना जैन | Updated: June 26, 2021 13:39 IST

अमेरिका में अफगानिस्तान के राष्ट्रपति जो बाइडन और अफगानिस्तान के राष्ट्रपति अशरफ गनी और सीईओ अब्दुल्ला अब्दुल्ला से 25 जून की चर्चित मुलाकात की खबरें सुर्खियों में हैं.

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ठळक मुद्देअफगानिस्तान के साथ साझीदारी और सहयोग जारी रखने पर अहम चर्चा हुई.समीकरणों के बीच पेचीदा अफगान मसले को लेकर भारत से जुड़ी एक महत्वपूर्ण  खबर आई. भारत सरकार की तरफ से तालिबान के डिप्टी लीडर मुल्लाह घनी बरादर के साथ आमने-सामने कतर में बातचीत हुई है.

ज्यों-ज्यों अफगानिस्तान से अमेरिकी और नाटो फौजों की 11 सितंबर की नई निर्धारित तारीख तक पूरी तरह से वापसी हो जाने की डेडलाइन नजदीक आ रही है, अनिश्चितताओं और  लंबे  दौर की मंत्नणाओं के बीच अफगान घटनाक्रम तेजी से घूम रहा है.

ऐसे में दोहा में इस सप्ताह एक बार फिर अफगान सरकार के प्रतिनिधियों और तालिबान के बीच  इस जटिल मुद्दे के समाधान के लिए सहमति बनाने के प्रयास स्वरूप वार्ता  शुरू हो गई है तो दूसरी तरफ अफगान मुद्दे के केंद्रबिंदु रहे अमेरिका में अफगानिस्तान के राष्ट्रपति जो बाइडन और अफगानिस्तान के राष्ट्रपति अशरफ गनी और सीईओ अब्दुल्ला अब्दुल्ला से 25 जून की चर्चित मुलाकात की खबरें सुर्खियों में हैं, जिसके बारे में कहा जा रहा है कि इसमें अमेरिकी, नाटों फौजों की वापसी के बाद वहां शांति, स्थिरता सुरक्षा बनाए रखने और अफगानिस्तान के साथ साझीदारी और सहयोग जारी रखने पर अहम चर्चा हुई.

लेकिन इन तमाम उलझे समीकरणों के बीच पेचीदा अफगान मसले को लेकर भारत से जुड़ी एक महत्वपूर्ण  खबर आई. कतर, जो कि अफगान शांति वार्ता से सीधे तौर पर जुड़ा है, उसके एक वरिष्ठ नेता के हवाले से आधिकारिक तौर पर  खबर आई कि हाल ही में पहली बार भारत सरकार की तरफ से तालिबान के डिप्टी लीडर मुल्लाह घनी बरादर के साथ आमने-सामने कतर में बातचीत हुई है.

ये पहली बार है जब भारत सरकार ने तालिबान से बातचीत का  सीधा रास्ता खोला है. भारत अभी तक अफगान संकट पर तालिबान  के साथ  सीधे संवाद  नहीं करने की नीति का पालन करता रहा था, और भारत सरकार सिर्फ अफगानिस्तान की चुनी हुई सरकार के साथ ही रिश्ते कायम रखने की हिमायती थी.

आतंकी हमलों के आरोपी इस अतिवादी गुट के साथ किसी  प्रकार का संपर्क नहीं रखने की नीति का भारत पालन करता रहा है. निश्चित तौर पर भारत की अफगान नीति में यह बड़ा बदलाव है, जबकि वह तालिबान के साथ सीधे आधिकारिक रूप से बातचीत कर रहा है.

कतर के आतंकवाद और संघर्ष समाधान की मध्यस्थता के लिए विशेष दूत मुतलाक बिन माजिद अल कहतानी की इस महत्वपूर्ण टिप्पणी के बाद भारत सरकार की ओर से हालांकि अभी कोई प्रतिक्रि या नहीं आई है लेकिन पिछले सप्ताह विदेश मंत्नालय के प्रवक्ता अरिंदम बागची ने आधिकारिक तौर पर यह जरूर कहा था कि ‘‘भारत अफगानिस्तान  के विकास और पुनर्निर्माण की अपनी दीर्घकालिक प्रतिबद्धता स्वरूप  वहां  विभिन्न  हितधारक -स्टेक होल्डर्स-के साथ संपर्क में है. एक मित्न देश होने के नाते हम अफगानिस्तान और क्षेत्न की शांति और सुरक्षा को लेकर चिंतित हैं.’’

 

एक अहम बात यह है कि भारत सरकार  का तालिबान से राजनीतिक संपर्क पाकिस्तान को नागवार लगेगा ही. मार्च महीने में जब भारत को भी अमेरिका ने अफगानिस्तान शांति वार्ता में शामिल किया था, उस वक्त पाकिस्तान ने इसका विरोध किया था. पाकिस्तान ने कहा था कि अफगानिस्तान शांति वार्ता में सिर्फ उन्हीं देशों को शामिल होना चाहिए, जिनकी सीमा रेखा अफगानिस्तान के साथ लगती है. लेकिन अमेरिका ने पाकिस्तान के विरोध को खारिज करते हुए भारत को शांति वार्ता का महत्वपूर्ण हिस्सा बनाया था.

गौरतलब है कि युद्ध से तबाह  अफगानिस्तान में तमाम सुरक्षा खतरों के बीच भारत वहां के  पुनर्निर्माण कार्यो में रत है और वहां की जनता के लिए बड़े पैमाने पर कल्याण योजनाएं चला रहा है. अफगानिस्तान के लोग भारत से काफी निकट तौर पर भावनात्मक रूप से भी जुड़े हुए हैं. पिछले दो दशकों में भारत अफगानिस्तान को तीन अरब डॉलर की सहायता दे चुका है.

एक विशेषज्ञ के अनुसार ये राशि चीन, रूस और ईरान के द्वारा अफगानिस्तान में चलाए जा रहे विकास कार्य से काफी ज्यादा है. इस परिप्रेक्ष्य में तालिबान के प्रवक्ता  सुहैल शाहीन का गत सप्ताहांत दिया गया यह बयान अहम है जिसमें उनसे तालिबान को लेकर भारत के बदले हुए रुख की बाबत पूछे जाने पर कहा था, ‘‘तालिबान अपने पड़ोस तथा क्षेत्न में शांतिपूर्ण सहअस्तित्व की भावना में विश्वास करते हैं.

पाकिस्तान हमारा पड़ोसी, हमारा साझा इतिहास और मूल्य है. भारत भी हमारा एक क्षेत्नीय देश है. कोई भी अपना पड़ोसी या क्षेत्न नहीं बदल सकता है. इस वास्तविकता को हमें स्वीकार करना होगा और शांतिपूर्ण सह अस्तित्व से रहना होगा. यह सभी के हित में होगा.’’

आगामी 11 सितंबर तक अमेरिका और नाटो की सेना को अफगानिस्तान से हट जाना है. जाहिर है कि भारत सरकार नहीं चाहती है अपने महत्वपूर्ण मित्न पड़ोसी अफगानिस्तान के मुद्दे पर वो पीछे रह जाए. आशंका है कि अफगानिस्तान से अमेरिकी सेना के हटने के साथ ही अफगानिस्तान में एक बार फिर से तालिबान का वर्चस्व स्थापित हो सकता है. वहीं, अफगानिस्तान की राजनीति में पाकिस्तान और चीन भी बड़े खिलाड़ी हैं, जो निहित स्वार्थो के लिए अफगानिस्तान में अपना दबदबा बनाने में जुटे हैं.  

ऐसे में भारत भी नई बदलती राजनीतिक व सुरक्षा स्थितियों और जमीनी वास्तविकताओं के अनुरूप  शांति प्रक्रि या  में तालिबान से  अब सीधे तौर पर जुड़ रहा है. सामरिक हितों के साथ-साथ अफगानिस्तान से भारत विकास परियोजनाओं से जुड़ा है, उसका भारी निवेश है.

भारत के शांति प्रक्रिया में सीधे शामिल होने से भविष्य की अफगानिस्तान सरकार को भी बल मिलेगा. स्थिर, प्रभुसत्ता संपन्न तथा हिंसा मुक्त अफगानिस्तान क्षेत्न की शांति और प्रगति का भी सही मायने में आधार हो सकता है. निगाह इस पर रहेगी कि शांति प्रक्रिया की परिणति क्या होगी.

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