Ravidas Jyanati 2025: आज भी राह दिखाते हैं संत रविदास के संदेश?
By कृष्ण प्रताप सिंह | Updated: February 12, 2025 05:48 IST2025-02-12T05:48:55+5:302025-02-12T05:48:55+5:30
Ravidas Jyanati 2025: देश के संविधान के समता, स्वतंत्रता, न्याय व बंधुत्व पर आधारित कल्याणकारी राज्य के संकल्प व अवधारणा के सर्वथा अनुरूप है.

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Ravidas Jyanati 2025: इक्कीसवीं शताब्दी के इस पच्चीसवें साल में भी सामाजिक व आर्थिक विषमताओं से भरी और निरंतर कठिन होती जा रही हमारी दुनिया में संत रविदास (जिनकी आज जयंती है) के संदेश हमारे पथ-प्रदर्शक हो सकते हैं- बशर्ते उन्हें ठीक से पढ़ा, सुना और समझा जाए. दरअसल, संत कवियों की हमारी लंबी परम्परा में एकमात्र वही हैं, सभी तरह की स्वतंत्रताओं व इंसाफों की साझा दुश्मन इन विषमताओं के प्रतिरोध के जिनके स्वर कहीं एक पल को भी कमजोर नहीं पड़ते. इससे भी ज्यादा महत्वपूर्ण यह कि इन विषमताओं की जाई अनैतिकताओं की खिल्ली उड़ाते हुए वे ऐसे राज्य की कल्पना करते हैं, जो हमारे देश के संविधान के समता, स्वतंत्रता, न्याय व बंधुत्व पर आधारित कल्याणकारी राज्य के संकल्प व अवधारणा के सर्वथा अनुरूप है.
संविधान के ही अनुरूप वे ऐसा मानवतावादी कल्याणकारी राज्य चाहते हैं ‘जहं मिलै सभन को अन्न, छोट बड़ो सभ सम बसैं रैदास रहै प्रसन्न’. इस कारण हिंदी की भक्ति काव्यधारा में उनकी अपनी सर्वथा अलग व विलक्षण पहचान है, लेकिन दूसरे संत कवियों की ही तरह उनके जन्म व जीवन आदि के बारे में ज्यादा जानकारी नहीं मिलती.
जो मिलती है, उसके अनुसार विक्रम संवत् 1441 से 1455 के बीच रविवार को पड़ी किसी माघ पूर्णिमा के दिन मांडुर नामक गांव में उनका जन्म हुआ. यह मांडुर उत्तर प्रदेश के वाराणसी जिले में मंडेसर तालाब के किनारे मांडव ऋषि के आश्रम के पास स्थित वही गांव है, जो अब मंडुवाडीह कहलाता है.
उनके पिता का नाम रग्घू अथवा राघव था जबकि माता का करमा, जिन्हें सामाजिक गैरबराबरी व ऊंच-नीच के पैरोकार हिकारत से ‘घुरबिनिया’ कहते थे. उनका लोकप्रचलित नाम रैदास है जो उनकी रचनाओं में बार-बार आता है. उनके समय में अस्पृश्यता समेत वर्णव्यवस्था की नाना व्याधियां देश के सामाजिक मानस को आक्रांत कर सहज मनुष्यता का मार्ग अवरुद्ध किए हुए थीं.
अन्त्यज (अछूत) के रूप में खुद उनकी जाति पर भी उनका कहर टूटता रहता था. वे इन व्याधियों को धर्म व संस्कृति का चोला पहन कर आती और स्वीकृति पाती देखते, तो कुछ ज्यादा ही त्रास पाते थे. तभी वे अपनी रचनाओं में अपने समकालीनों में सबसे अलग, प्रतिरोधी और वैकल्पिक नजरिये के साथ सामने आते और उस श्रमण संस्कृति से ऊर्जा ग्रहण करते दिखाई देते हैं, जो उन दिनों की मेहनत-मजदूरी करने वाली जनता का एकमात्र अवलम्ब थी.