योगिराज भगवान श्री कृष्ण का जीवन अद्भुत और अविस्मरणीय है। गीता में एक जगह उन्होंने कहा है कि मुझे मनुष्य समझने की भूल मत करना। यह चराचर का दृश्य और अदृश्य जगत उनकी प्रेरणा से चलायमान है जिसे उन्होंने अपनी योगमाया के एक अंश मात्र से धारण किया हुआ है।
भगवान श्री कृष्ण का जन्म धर्म की स्थापना और अधर्म के नाश के लिए ही हुआ था। भगवान श्रीकृष्ण में विरोधों का अद्भुत सामंजस्य था। श्री राम गीता में भगवान श्रीराम ने जहां कर्म मात्र को दोषपूर्ण बताया वहीं भगवत गीता में भगवान श्रीकृष्ण ने निष्काम कर्म का उपदेश दिया।
भगवान श्री कृष्ण ने कर्म के सिद्धांत को ब्रह्म के सिद्धांत के रूप में व्याख्यायित किया। गीता में भगवान श्रीकृष्ण ने कर्म के 4 रूप बताए हैं ये हैं- कर्म, अकर्म, विकर्म और निष्काम कर्म। सामान्यतया रोजमर्रा के किए जाने वाले नित्य नैमित्तिक कार्य कर्म की श्रेणी में आते हैं।
अकरणीय या ना किए जाने वाले कर्म, अकर्म की श्रेणी में आते हैं। विशिष्ट प्रकार के कर्म जिनसे व्यक्तित्व का विकास होता है विकर्म कहलाते हैं।
कर्तव्य बोध से केवल कर्म करना कर्म की निष्काम स्थिति है। भगवान श्री कृष्ण का जीवन प्रेममय था उन्होंने कभी प्रेम करने का दावा नहीं किया बल्कि वह सदैव प्रेम पूर्ण रहे।
भगवान श्री कृष्ण के जीवन चरित्र को ध्यान में रखते हुए उनके प्रेमियों तथा भक्तों के बीच यह कहावत प्रचलित हो गई जिसमें श्री कृष्ण कहते हैं कि अपना मान भले टल जाए भक्त का मान न टलते देखा।