ब्लॉग: अवध की होली में खूब बिखरते हैं गंगा-जमुनी तहजीब के रंग
By कृष्ण प्रताप सिंह | Updated: March 18, 2022 13:24 IST2022-03-18T13:23:52+5:302022-03-18T13:24:20+5:30
पूरे देश में होली को खेले जाने की कई अलग-अलग परंपराएं हैं. अयोध्या की बात करें तो उसमें होली का हुड़दंग पांच दिन पहले रंगभरी एकादशी के उत्सव से ही आरंभ हो जाता है.

अवध की होली में खूब बिखरते हैं गंगा-जमुनी तहजीब के रंग
इस बहुलतावादी देश में जैसे कई दूसरे त्यौहारों के, वैसे ही होली और उससे जुड़ी ठिठोलियों के भी अनेक रंग हैं. कुछ परंपरा, आस्था व भक्ति से सने हुए तो कुछ खालिस हास-परिहास, उल्लास और शोखियों के. कोई चाहे तो इन्हें ‘भंग के रंग और तरंग’ वाले भी कह ले. शौक-ए-दीदार फरमाने वाले तो कई बार यह देखकर दांतों तले उंगली दबा लेते हैं कि ब्रज के बरसाना में जाकर ये रंग लट्ठमार हो जाते हैं तो अवध पहुंचकर गंगा-जमुनी.
अयोध्या की बात करें तो उसमें होली का हुड़दंग पांच दिन पहले रंगभरी एकादशी के उत्सव से ही आरंभ हो जाता है. इस अवसर पर नागा साधु हनुमानगढ़ी में विराजमान हनुमंतलला के साथ होली खेलते, फिर उनके निशान के साथ अयोध्या की पंचकोसी परिक्रमा पर निकल जाते हैं. यह परिक्र मा सारे मठों-मंदिरों के रंगोत्सव में शामिल होने का निमंत्नण होती है. फिर तो सारा संत समाज सड़कों पर निकल आता है और सारे भेदभाव भूलकर पांच दिन रंगों के साथ भंग आदि की तरंग में भी डूबता-उतराता रहता है.
यों, अवध में होली के रंगों की गिनती तब तक पूरी नहीं होती, जब तक उनमें उसकी गंगा-जमुनी तहजीब की रंगत शामिल न की जाए. नवाबों द्वारा पोषित और अपने अनूठेपन के लिए दुनिया भर में प्रसिद्ध इस तहजीब का जादू ही कुछ ऐसा है. क्या गांव-क्या शहर, क्या गली-क्या मोहल्ले और क्या चौराहे, जलती होलिकाएं और रंगे-पुते चेहरों वाले हुड़दंग मचाते हुरियारे किसी को किसी भी बिना पर होली से बेगानगी बरतने का मौका नहीं देते.
इस तहजीब की नींव अवध के तीसरे नवाब शुजाउद्दौला ने अपनी तत्कालीन राजधानी फैजाबाद में रखी थी. 26 जनवरी 1775 को उन्होंने फैजाबाद में ही अंतिम सांस भी ली. यों तो उन्हें कई ऐबों के लिए भी जाना जाता है, लेकिन मजहबी संकीर्णताएं उन्हें छूते भी डरती थीं. 1775 में उनके पुत्र आसफुद्दौला ने राजधानी फैजाबाद से लखनऊ स्थानांतरित की, तो भी इस तहजीब का दामन नहीं छोड़ा. वे अपने सारे दरबारियों के साथ फूलों के रंग से होली खेला करते थे. यह परंपरा आगे चलकर आखिरी नवाब वाजिद अली शाह के काल तक मजबूत बनी रही.
आसफुद्दौला की बेगम शम्सुन्निसा उर्फदुल्हन बेगम को भी, जो दुल्हन फैजाबादी नाम से शायरी भी करती थीं, रंग खेलने का बड़ा शौक था. शम्सुन्निसा 1769 में फैजाबाद में ही आसफुद्दौला से शादी रचाकर दुल्हन बेगम बनी थीं और उनकी सबसे चहेती बेगम थीं. एक होली पर आसफुद्दौला शीशमहल स्थित दौलतसराय सुल्तानी पर रंग खेल रहे थे तो हुरियारों ने दुल्हन बेगम पर भी रंग डालने की ख्वाहिश जताई. तब बेगम ने अपने उजले कपड़े बाहर भेजे और हुरियारों ने उन पर जी भर रंग छिड़का. फिर वे रंग सने कपड़े वापस महल में ले जाए गए जहां बेगम उन्हें पहनकर खूब उल्लसित हुईं और दिनभर उन्हें ही पहने घूमती रहीं.
आसफुद्दौला के बाद के नवाबों में से कई को लोग उनके होली खेलने के खास अंदाज के कारण ही जानते हैं. नवाब सआदत अली खां के जमाने में होली का गंगा-जमुनी रंग तब और गाढ़ा हो गया जब उन्होंने होली के लिए राजकोष से धन देने की परंपरा डाली. आखिरी नवाब वाजिदअली शाह ने होली पर कई ठुमरियां लिखी हैं.
अंग्रेजों द्वारा उनकी बेदखली के बाद 1857 का स्वतंत्नता संग्राम शुरू हुआ और उनके अवयस्क बेटे बिरजिस कद्र की ताजपोशी के बाद सूबे की बागडोर उनकी मां बेगम हजरतमहल के हाथ आई, तो उन्होंने भी होली के इन गंगा-जमुनी रंगों को फीका नहीं पड़ने दिया. गोरी सत्ता द्वारा कत्लोगारत के उन दिनों में बेगम ने सारे अवधवासियों को एकता के सूत्न में जोड़े रखने के लिए जिस तरह होली, ईद, दशहरे और दीवाली के सारे आयोजनों को कौमी स्वरूप प्रदान किया, उसके लिए कवियों ने दिल खोलकर उनकी प्रशंसा की और उन्हें ‘अवध के ओज तेज की लाली’ कहा है.
यह सही है कि अब वक्त की मार ने उस होली के कई रंगों को बदरंग करके रख दिया है, लेकिन लखनऊ में आज भी हुरियारे होली खेलते हुए मुस्लिम इलाकों से गुजरते हैं तो वहां उन पर इत्र छिड़का जाता और मुंह मीठा कराकर स्वागत किया जाता है. फिर तो फिजां में मुहब्बत का रंग ऐसे घुलता है कि किसी को अपना हिंदू या मुसलमान होना याद ही नहीं रह जाता.