राजेश बादलअभी छह महीने पहले ही भाजपा की सरकार अपने बूते पर शानदार बहुमत के साथ सत्ता में लौटी थी. इतने कम समय में तीन राज्यों के निर्वाचन परिणाम अपने-अपने ढंग से सत्तारूढ़ दल को गंभीर संदेश दे रहे हैं. ऐसा नहीं लगता कि चंद महीनों में ही भाजपा की लोकप्रियता में इतनी गिरावट आ चुकी है.
यह ध्यान में रखते हुए कि भाजपा सरकार के अनुच्छेद 370 हटाने और नागरिकता संशोधन कानून जैसे बड़े ऐतिहासिक फैसले भी पार्टी के सम्मान की अपेक्षित रक्षा नहीं कर पाए. झारखंड से भी सत्ता गंवाने के बाद दुनिया की इस सबसे बड़ी पार्टी को इस सवाल पर गंभीरता से मंथन करना होगा कि राज्यों से एक के बाद एक सत्ता क्यों फिसल रही है? कहीं यह राजनीतिक संगठन कौशल में कोई गड़बड़ तो नहीं है.
दरअसल, सियासत का शिखर बड़ा भरमाने वाला होता है. जब कोई पार्टी शिखर की ओर बढ़ रही होती है तो वह एड़ी-चोटी का जोर लगा देती है. इस काम में बहुत पसीना बहाना पड़ता है. लेकिन शिखर पर पहुंच जाने के बाद उस स्थान पर बने रहना उससे भी कठिन काम होता है. भाजपा के साथ कुछ ऐसा ही हुआ है.
दल के शिखर पुरुष जमीनी स्तर पर पार्टी में आए बिखराव का मनोवैज्ञानिक विश्लेषण नहीं कर पाए. यदि उन्होंने ऐसा किया होता तो लगातार गठबंधन में शामिल छोटे दलों की भावना आहत नहीं होती. महाराष्ट्र में अगर शिवसेना जैसी सबसे पुरानी और भरोसेमंद पार्टी छिटक गई तो उसके पीछे उपेक्षा और अपमान का दंश बड़ी वजह थी.
भाजपा का नेतृत्व भी बड़ी पार्टी का दिल नहीं दिखा सका. दूसरी बात यह समझ से परे थी कि बिहार में उनकी पार्टी एक सहयोगी दल के मुख्यमंत्नी को स्वीकार कर सकती है तो महाराष्ट्र में क्यों नहीं? झारखंड के मामले में भी सहयोगी घटक दलों की उपेक्षा एक महत्वपूर्ण कारण रहा. पिछली बार आजसू भाजपा के साथ मिलकर लड़ी थी, लेकिन इस बार भाजपा ने उससे किनारा कर लिया. यही नहीं, केंद्र में साथ दे रहे लोजपा और जेडीयू जैसे दल भी खुलकर भाजपा के खिलाफ चुनाव मैदान में ताल ठोंकते नजर आए.
यह गठबंधन धर्म अजीबोगरीब था. बड़े दल ने छोटे दलों के साथ झारखंड में यह व्यवहार क्यों किया - यह एक पहेली है. बदले में उसे अपने मुख्यमंत्नी तक की कुर्बानी देनी पड़ी. जमशेदपुर पूर्व से पार्टी के दिग्गज मुख्यमंत्नी रघुबर दास के मुकाबले भाजपा के बागी सरयू राय उतरे और उन्हें जेडीयू ने समर्थन दे दिया. इसके बाद तो चुनाव एक तरह से हादसा ही था. गठबंधन में शामिल छोटी पार्टियों का तो साफ कहना है कि भाजपा का दंभ उनके लिए दु:ख और ताज्जुब का विषय रहा.
एक तथ्य चुनाव में उठे मुद्दों को लेकर भी रेखांकित करने लायक है. भाजपा ने अब जैसे परंपरा बना ली है कि वह विधानसभाओं के चुनाव में भी स्थानीय और प्रादेशिक मुद्दों से जैसे परहेज करती है. शिखर नेता अध्यक्ष अमित शाह और प्रधानमंत्नी नरेंद्र मोदी की रैलियों में राष्ट्रीय मसले ही प्रधान रहे. उनके प्रवक्ता टीवी चैनलों के परदे पर तो कहते रहे कि राज्यों के निर्वाचन स्थानीय मसलों पर लड़े जाते हैं मगर उनके ही बड़े लीडर स्थानीय मुद्दों पर बात भी नहीं करते. प्रदेश के लोगों को यह अटपटा लगता है कि सत्तारूढ़ दल उनकी रोजमर्रा की समस्याओं का जिक्र तक न करे.
नक्सल समस्या से जूझ रहे आदिवासी बहुल झारखंड में राज्य की सरकार ने संथाल परगना और छोटा नागपुर काश्तकारी अधिनियम बनाकर आदिवासियों को नाराज किया, पत्थलगढ़ी आंदोलन में दस हजार से अधिक आदिवासियों के विरुद्ध पुलिस में मामले दर्ज किए गए, 21 से अधिक लोगों को भीड़ की हिंसा का शिकार होना पड़ा हो, 20 लोगों ने भूख से तड़पते हुए जान दे दी हो और चुनाव में सत्तारूढ़ पार्टी इसके बारे में चर्चा तक न करे- यह बात आदिवासियों को नागवार गुजरी.
अरसे से आदिवासी राज्य में किसी आदिवासी को मुख्यमंत्नी बनाए जाने की मांग हो रही थी. भाजपा ने इस पर भी ध्यान नहीं दिया. स्थानीय मुद्दों की उपेक्षा विधानसभा चुनाव में अक्सर भारी पड़ती है. झारखंड, हरियाणा और महाराष्ट्र में यही हुआ.
हरियाणा, महाराष्ट्र और झारखंड में मुख्यमंत्रियों की केंद्र पर अति निर्भरता भी जोखिम भरी रही. प्रचार अभियान सिर्फ प्रधानमंत्नी और पार्टी अध्यक्ष पर केंद्रित रहा. स्थानीय नेतृत्व का कद बौना बना दिया गया. इस कारण झारखंड, हरियाणा और महाराष्ट्र में पार्टी के अभेद्य दुर्ग भी कमजोर हो गए. भाजपा के लिए यह समय गंभीर मंथन का है, दंभ और अहंकार से मुक्त होने का है और गठबंधन धर्म पर ईमानदारी से टिके रहने का है.
आने वाले दिनों में दिल्ली, बंगाल और बिहार में विधानसभाओं के चुनाव होंगे. दिल्ली तो भाजपा के लिए अभी भी बहुत दूर दिखाई देती है. बंगाल और बिहार के किले भी ध्वस्त करना कोई आसान नहीं है. बिहार में तो नीतीश कुमार केंद्र में साथ देते हुए भी अनेक संवेदनशील मसलों पर अपनी असहमति केंद्र सरकार से जता चुके हैं. जाहिर है भाजपा को अपना घर ठीक करना होगा.