BLOG: कश्मीर में ठोस पहल किए जाने की जरूरत
By लोकमत समाचार हिंदी ब्यूरो | Updated: June 27, 2018 04:05 IST2018-06-27T04:05:36+5:302018-06-27T04:05:36+5:30
केंद्र में चाहे किसी की भी सरकार रही हो, सभी सरकारें कश्मीर घाटी को लोकतंत्र देने में विफल रही हैं। इस बात को इस तरह से भी कहा जा सकता है कि कश्मीर में ‘दिल्ली नियंत्रित लोकतंत्र’ चलता रहा है।

BLOG: कश्मीर में ठोस पहल किए जाने की जरूरत
(अभय कुमार दुबे)
नई दिल्ली, 27 जून: अमिताभ मट्टू एक वरिष्ठ अकादमीशियन तो हैं ही, कश्मीर की राजनीति के गहरे जानकार भी हैं। उन्होंने महबूबा मुफ्ती की सरकार के पतन पर लिखते हुए इस प्रकरण की तुलना 1953 में शेख अब्दुल्ला की सरकार की बर्खास्तगी से की है। उनका कहना है कि जिस तरह शेख अब्दुल्ला को उनकी बर्खास्तगी का आदेश दिखाया गया था, तकरीबन उसी तरह से नौकरशाही द्वारा महबूबा मुफ्ती को भी बताया गया कि भाजपा के विधायकों ने उनकी सरकार से अपना समर्थन वापस ले लिया है।
मट्टू साहब का यह निष्कर्ष एकदम दुरुस्त है कि 1953 की इस घटना के बाद से लगातार साल-दर-साल कश्मीर में ‘डेमोक्रेसी’ नहीं बल्कि ‘अन-डेमोक्रेसी’ रही है और इस ‘अन-डेमोक्रेसी’ को केंद्र सरकार की तरफ से प्रबंधित किया गया है। केंद्र में चाहे किसी की भी सरकार रही हो, सभी सरकारें कश्मीर घाटी को लोकतंत्र देने में विफल रही हैं। इस बात को इस तरह से भी कहा जा सकता है कि कश्मीर में ‘दिल्ली नियंत्रित लोकतंत्र’ चलता रहा है। कश्मीर की स्थिति के जानकारों के बीच में इस बात पर पूरी सहमति है कि वहां की राजनीति चुनी हुई सरकारें नहीं बल्कि गृह मंत्रलय और इंटेलिजेंस ब्यूरो और रिसर्च एनालिसिस विंग (रॉ) की कश्मीर डेस्क चलाती रही है। वहीं से तय होता है कि किस चुनाव को किस तरह से प्रबंधित किया जाएगा, और इस बार मुख्यमंत्री बनने का नंबर किसका है। इस तथ्य को फारूक अब्दुल्ला से लेकर महबूबा मुफ्ती तक हर राजनेता जानता है।
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जाहिर है कि इस तरह की गतिविधियों और राजनीतिक प्रबंधन के ठोस सबूत नहीं दिए जा सकते। लेकिन एक बात पर तो विचार किया ही जा सकता है कि कश्मीर की राजनीति के बारे में ऐसी आम छवि क्यों और कैसे बनी। हर कोई जानता है कि जिस दिन कश्मीर के मुख्यमंत्री के तौर पर फारूक अब्दुल्ला ने विपक्षी एकता की राह पकड़ी और विपक्षी नेताओं की राष्ट्रीय गोष्ठी श्रीनगर में करवाई, उसी दिन उनकी सरकार बर्खास्त होना तय हो गया था। फारूक को बताया गया कि उनकी पार्टी के कई विधायक इस समय राज्यपाल जगमोहन के पास हैं और उन्होंने अपना नया नेता चुन लिया है।
इसके बाद फारूक अब्दुल्ला ने कसम खाई कि वे कभी भी केंद्र सरकार के विरुद्ध विपक्ष की राजनीति नहीं करेंगे। चूंकि मट्टू साहब की हमदर्दयिां पीपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी के साथ हैं, इसलिए वे इस खुलासे के साथ यह बताने के लिए तैयार नहीं होते कि एक पार्टी के तौर पर पीडीपी की रचना में भी केंद्र सरकार की एजेंसियों का हाथ रहा है। दिल्ली में कश्मीर की नीति का संचालन करने वाले वहां एक ऐसा दल चाहते थे जो हुíरयत कांफ्रेंस और नेशनल कांफ्रेंस के बीच के अंतराल में काम करते हए उग्रवादियों और लोकतंत्रवादियों के बीच बफर की भूमिका निभा सके। जब तक पीडीपी ने भाजपा के साथ मिल कर सरकार नहीं बनाई थी, तब तक कश्मीर घाटी में उसकी यही छवि थी। पिछले तीन साल में पीडीपी को सबसे बड़ा नुकसान यही हुआ है कि उसने अपनी रचना के बुनियादी तर्क को ही अपने हाथों खत्म कर दिया है। यही कारण है कि जिस दक्षिण कश्मीर (उग्रवाद से सबसे ज्यादा प्रभावित) में पीडीपी का बोलबाला हुआ करता था, वहीं उसका आधार कमजोर हो गया है।
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तकरीबन एक साल पहले जब मैं दो वरिष्ठ पत्रकारों के साथ कश्मीर गया था, तो वहां के नागरिक समाज की प्रमुख हस्तियों से लेकर बाजार में खरीदारी करने वाले सामान्य कश्मीरियों से बातचीत करते हुए बार-बार ऊपर कही गई बातों को तरह-तरह से पुष्ट करने वाली दलीलों को सुनने का मौका मिला था। उस दौरे से मेरे दिमाग में स्पष्ट हो गया था कि कश्मीरी पाकिस्तान के साथ कतई नहीं जाना चाहते। वे मोटे तौर पर भारत के साथ ही रहना चाहते हैं, लेकिन उस तरह नहीं जिस तरह उत्तर प्रदेश और बिहार या किसी अन्य राज्य के लोग रहते हैं। कश्मीर के लोग एक ऐसी स्वायत्तता की इच्छा रखते हैं जो आजादीनुमा हो। दिक्कत की बात यह है कि केंद्र सरकार कश्मीर की विशेष स्थिति (अलग विधान-अलग झंडा) को तो मान्यता देती है, पर यह आजादीनुमा स्वायत्तता सुनिश्चित करने के लिए तैयार नहीं होती। याद कीजिए वह दृश्य जब भाजपा और पीडीपी की गठजोड़ सरकार शपथ ले रही थी, उस समय नरेंद्र मोदी भी मंच पर मौजूद थे, वहां पर भारत के तिरंगे के साथ-साथ कश्मीर का अलग झंडा भी लगा हुआ था।
इसमें कोई शक नहीं कि कश्मीर समस्या को हल करने में पाकिस्तान मुख्य बाधा है। उसके द्वारा प्रायोजित आतंकवाद भारत सरकार की इस दलील को मजबूत करता है कि घाटी में सशस्त्र सेना विशिष्ट अधिनियम लगाए रखना चाहिए। पाकिस्तान की इस बाधा को हटाने या निष्प्रभावी करने का एक मौका अटल बिहारी वाजपेयी सरकार को मिला था, और दूसरा मौका मनमोहन सिंह सरकार को। लेकिन दुर्भाग्य से इन दोनों अवसरों का लाभ नहीं उठाया जा सका। आज कांग्रेस के नेता सैफुद्दीन सोज अपनी किताब में और अपने सार्वजनिक बयान में पाकिस्तान के तत्कालीन राष्ट्रपति जनरल परवेज मुशर्रफ की भूमिका की चर्चा करते हैं। मुशर्रफ ने कश्मीर की सीमाओं को बदले बिना उसे भारत और पाकिस्तान के बीच एक बफर जोन बनाने का फार्मूला तैयार किया था। पृष्ठभूमि में अधिकारी स्तर पर इस बात को आगे बढ़ाने के लिए बातचीत भी शुरू हो गई थी, लेकिन तभी पाकिस्तान की राजनीति ने करवट बदली। मुशर्रफ को अपदस्थ कर दिया गया। उनके खिलाफ वहां के सुप्रीम कोर्ट ने आदेश दिया जिसके परिणामस्वरूप उन्हें पाकिस्तान छोड़ना तक पड़ गया। अगर किसी तरह से यह पहलकदमी पूरी हो पाती तो आज कश्मीर की स्थिति कुछ और होती।
मुश्किल यह है कि आज किसी में वह साहस नहीं है कि उस पहलकदमी को एक बार फिर जीवित करके आजमाया जाए। इस समय चुनावी साल (मोदी सरकार का पांचवां साल) चल रहा है और भाजपा को कांग्रेस कश्मीर के सवाल पर सारे देश में उग्र-राष्ट्रवाद भड़काने का मौका नहीं देना चाहती। पीडीपी के साथ सरकार बनाने के चक्कर में भाजपा को जम्मू में काफी नुकसान हुआ है। इस समय भाजपा की जम्मू इकाई बुरी हालत में है और वहां के लोगों में आज यह पार्टी पहले की तरह से लोकप्रिय नहीं रह गई है। भाजपा चाहती है कि वह न केवल जम्मू में अपना जनाधार पहले की तरह वापस हासिल करे, बल्कि पूरे देश में कश्मीर में आतंकवाद का हनन करने वाली पार्टी के रूप में स्वयं को पेश करे।
जाहिर है कि अगले कुछ महीनों में राष्ट्रीय राजनीति ‘कश्मीर में आतंकवादी मारे गए’ जैसी खबरों से गूंजती रहेगी। चुनावी फायदा उठाने की कोशिश होगी, लेकिन उसकी कामयाबी इस बात पर ही निर्भर करेगी कि मतदाता मोदी सरकार के कामकाज का कुल मूल्यांकन कैसे करते हैं।
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