केजरीवाल के धरने को जनता सीरियसली क्यों नहीं ले रही है?
By खबरीलाल जनार्दन | Published: June 16, 2018 03:58 PM2018-06-16T15:58:39+5:302018-06-16T16:10:36+5:30
अरविंद केजरीवाल तीन साल से दिल्ली के मुख्यमंत्री हैं।
इतिहास गवाह है, आंदोलन से निकली पार्टियां शासन करने के दांव-पेंचों में हमेशा कमजोर साबित हुई हैं। केजरीवाल उसी कड़ी को आगे बढ़ा रहे हैं। तीन साल तक दिल्ली के मुख्यमंत्री रहने के बाद वे तीन मांगों को लेकर अपनी कैबिनेट के साथ दिल्ली के उपराज्यपाल के दफ्तर में धरने पर बैठे हैं। उनकी मांगे हैं- दिल्ली सरकार में कार्यरत भारतीय प्रशासनिक सेवा (आईएएस) अधिकारियों की हड़ताल खत्म कराएं। काम रोकने वाले आईएएस अधिकारियों के खिलाफ कड़ी कार्रवाई करें। राशन की दरवाजे पर आपूर्ति की योजना को मंजूर करें।
ये मांगे मनवाने के लिए उन्होंने अपने मुख्यमंत्री होने की सभी शक्तियां लगाईं। लेकिन उनकी नहीं सुनी गई। इसलिए उन्होंने लोकतंत्र की सबसे बड़ी ताकत धरना का रुख इख्तियार किया। वह अपनी सरकार के प्रमुख मंत्रियों नेताओं के साथ छह दिन से धरने पर हैं। एक तरफ बीते छह दिन से सरकारी कामकाज धरने के चपेट में हैं।
इस धरने का दूसरा पक्ष है कि अरविंद केजरीवाल के अपने जिन्होंने पार्टी को पाल-पोष कर यहां तक लाने में मदद की वही उनकी मुखालफत कर रहे हैं। जनता भी इस धरने में सोफे पर सोए नेताओं और मुख्यमंत्री की कॉमिक तस्वीर के अलावा ज्यादा दिलचस्पी नहीं दिखा रही। अलग-थलग पड़ते जा रहे है आंदोलनकारी केजरीवाल के नेताओं पर कई तरह के आरोप लग रहे हैं। छठें दिन मंत्री सत्येंद्र जैन का कथित तौर पर वजन 1 किलो 200 ग्राम बढ़ने पर कई सवाल उठ रहे हैं।
यहां सवाल उठता है कि केजरीवाल के धरने को जनता सीरियसली क्यों नहीं ले रही है? इसकी एक पृष्ठभूमि है।
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साल 2011 में देश में व्यापक स्तर पर अंदोलन चला। एक बयोवृद्ध आदमी भ्रष्टाचार को लेकर दिल्ली में आमरण अनशन पर बैठा। मीडिया ने शख्स को रातोंरात दूसरा गांधी बताना शुरू किया। पूरे देश में अपनी-अपनी जगहों से लोग जुटने शुरू हुए। जिससे जहां से बन पड़ा वो वहीं से अन्ना आंदोलन को आगे बढ़ाने लगा। आंदोलन की ताकत को देखते हुए सरकार ने शुरुआती मांगों को मान लिया। लेकिन आंदोलन की ताकत को ही देखते ही हुए एक सरकारी नौकरी करने वाले शख्स ने राजनैतिक पार्टी बना ली।
आंदोलन का चेहरा अन्ना हजारे ने पार्टी नहीं ज्वाइन की। आंदोलन का संचालन कर रहे अरविंद केजरीवाल ने पार्टी बनाई। कसमें खाईं, लोगों के बीच गए बच्चों के सिर की कसमें खाईं, लेकिन चुनाव बीतते वे सारी कसमें तोड़कर कांग्रेस के सहयोग से सरकार बना लिए। लेकिन 14 में नाटकीय तरीके से काम करने की आजादी ना देने की बात करते हुए इस्तीफा दे आए। तब तक जनता केजरीवाल को सीरियसली लेती रही। साल 2015 के चुनाव में उन्हें साल 2013 की 28 सीटों की तुलना में 67 सीटों पर जीत दिला दी। दिल्ली में कुल 70 सीटे हैं।
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लेकिन इसके बाद केजरीवाल अन्ना आंदोलन, जन लोकपाल, नेताओं के भ्रष्टाचार, दिल्ली को पूर्ण राज्य का दर्जा दिलाने की बात छोड़कर महाराष्ट्र से लेकर कर्नाटक तक चुनाव लड़ने में व्यस्त हो गए। उनकी बातें नेताओं पर भ्रष्टाचार का आरोप लगाने के लिए माफी मांगने, कांग्रेस से 20 दिन पहले पार्टी छोड़ आए शख्स को राज्यसभा की सीटें देने को लेकर होने लगीं। इसी महीने जब उन्होंने इफ्तार पार्टी रखी तो उनके अपने लोग ही खाने नहीं आए।
कभी आम आदमी पार्टी के लिए मसीहा रहे योगेंद्र यादव, प्रशांत भूषण, कुमार विश्वास जैसे कई लोग खुलकर अरविंद केजरीवाल को लताड़ने लगे। भगवंत मान जैसे आप नेता अरविंद के खिलाफ धरना करने लगे तो अरविंद को कितना सीरियसली लिया जाए?