ब्लॉग: सबसे बड़ा मुद्दा सरकार की पहचान का है

By Amitabh Shrivastava | Published: September 23, 2023 09:55 AM2023-09-23T09:55:28+5:302023-09-23T09:56:53+5:30

जब बात राज्य सरकार के कठघरे में आने की होती है, तब सबसे पहले भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) का एक वर्ग ही नई सरकार से बहुत संतुष्ट नजर नहीं आ रहा है। उसका मानना है कि भाजपा का शिवसेना से टूटे गुट के साथ गठबंधन तो ठीक था, लेकिन उससे अजित पवार के जुड़ने की बात अस्वीकार्य है।

Blog The biggest issue is the identity of the government Maharashtra | ब्लॉग: सबसे बड़ा मुद्दा सरकार की पहचान का है

(फाइल फोटो)

Highlightsधरातल पर सरकार के काम का प्रभाव नहीं दिखाई दे रहा है जन आकांक्षाओं को सही अर्थों में समझना और पूरा करना आवश्यक हैसरकार अपने संदेश और उद्देश्य को बताने या उत्साह जगाने में विफल रही

करीब सवा साल पहले महाराष्ट्र में बनी और लगभग इतने ही समय तक काम करने के लिए तैयार वर्तमान राज्य सरकार निर्णय लेने में तेजी का दावा तो कर रही है, मगर धरातल पर उसका प्रभाव नहीं दिखाई दे रहा है। इसके पीछे कारण चाहे अलग-अलग विचारधारा के दलों की सत्ता के लिए एकजुटता लोगों को रास न आना हो या आम जन के कामकाज में हो रहा विलंब हो, लेकिन सरकार को जन आकांक्षाओं को सही अर्थों में समझना और पूरा करना आवश्यक है, वर्ना चुनावी संभावनाओं पर अधिक अंदाज लगाना मुश्किल होगा।

बीते सप्ताह महाराष्ट्र के एक महत्वपूर्ण अंचल मराठवाड़ा के निजाम शासन से मुक्ति मिलने के 75 साल पूरे होने पर अमृत महोत्सव के आयोजनों का समापन हुआ। इस उपलक्ष्य में छत्रपति संभाजीनगर में राज्य मंत्रिमंडल की बैठक का आयोजन किया गया। आश्चर्यजनक तो यह रहा कि उस बैठक में राज्य के पूरे मंत्री भी शामिल नहीं हुए। जैसे-तैसे बैठक निपटी तो घोषणाएं ऐसी हुईं कि दूसरे दिन भी कोई उनसे मराठवाड़ा का सीधा लाभ बताने के लिए तैयार नहीं था। हालात यहां तक थे कि पत्रकारों से बातचीत के दौरान मुख्यमंत्री के साथ दो उपमुख्यमंत्री थे, लेकिन उनमें से अजित पवार निरपेक्ष भाव के साथ बैठे हुए थे। अगले दिन जब मराठवाड़ा मुक्ति संग्राम का कार्यक्रम हुआ तो उसमें एक उपमुख्यमंत्री कम थे। बाकी मंत्रिमंडल की बात तो तब तक आई-गई हो चुकी थी। स्पष्ट है कि सम्पूर्ण आयोजन और बैठक के माध्यम से राज्य सरकार अपने संदेश और उद्देश्य को बताने या उत्साह जगाने में विफल रही।

मराठवाड़ा की बैठक से पहले मराठा आरक्षण के लिए हुए आंदोलन में सरकार को नाम कम, बदनाम अधिक होना पड़ा। वह जब मराठाओं के पक्ष में बोलती तो अन्य पिछड़ा वर्ग नाराज होता और जब वह खामोश रहती तो सब को उस पर गुस्सा आता था। 17 दिन के आमरण अनशन को क्रमिक अनशन में बदलने और लाठी भांजने के बाद आरक्षण तय करने की कार्रवाई के लिए सरकार के पास केवल कुछ ही दिन का समय है, जिसमें उसे आरक्षण का फैसला करना है। यह तय है कि जो निर्णय किया जाना है, उसमें मराठा समाज के एक वर्ग का ही भला होगा। सभी मराठाओं की मांग अपनी जगह कायम रहेगी। चूंकि सम्पूर्ण मराठा आरक्षण पर उच्चतम न्यायालय फैसला सुना चुका है तो आगे सरकार को अपना पक्ष दोबारा रखना आसान नहीं होगा। फिर भी वादे और इरादों में कोई कमी नहीं है।

वर्तमान सरकार ने जनता से सीधे जुड़ाव के लिए ‘आपले सरकार’ नामक पोर्टल शुरू किया है। इसके माध्यम से जनता की समस्याओं को सुलझाने का प्रयास किया जा रहा है। इसके प्रति जागरूकता बढ़ाने की दिशा में राज्य के अनेक इलाकों में कार्यक्रमों का आयोजन भी किया जा रहा है। मगर मराठा आरक्षण आंदोलन का दावा है कि राज्य सरकार ने जालना में ‘आपले सरकार’ के आयोजन के लिए आमरण अनशनकर्ताओं को उठाने की कोशिश की और बाद में लाठीचार्ज भी करवाया। यह बात कहीं न कहीं सरकार की कमजोरी या फिर उसका संदेश सही स्तर पर न पहुंच पाना साबित करती है। इसके अलावा उपमुख्यमंत्री अजित पवार का दूसरे उपमुख्यमंत्री देवेंद्र फडणवीस के विभाग की बैठक लेना, मुंबई-गोवा राजमार्ग पर मंत्री रवींद्र चव्हाण का महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना के कार्यकर्ताओं द्वारा घेराव करना, राजस्व मंत्री राधाकृष्ण विखे पर धनगर समाज के कार्यकर्ताओं का रंग डाला जाना जैसे अनेक मामले सवा साल की सरकार की छवि और छाप पर सवाल खड़े करते हैं।

जब बात राज्य सरकार के कठघरे में आने की होती है, तब सबसे पहले भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) का एक वर्ग ही नई सरकार से बहुत संतुष्ट नजर नहीं आ रहा है। उसका मानना है कि भाजपा का शिवसेना से टूटे गुट के साथ गठबंधन तो ठीक था, लेकिन उससे अजित पवार के जुड़ने की बात अस्वीकार्य है। भाजपा ने लंबे समय तक उनके खिलाफ अभियान चलाया है। ऐसे में एकाएक उन्हें स्वीकार नहीं किया जा सकता है। इसके अलावा दूसरी सोच में शिवसेना और भाजपा को अलग-अलग नहीं देखा जाता है। वह भगवा गठबंधन में आपसी तोड़-फोड़ की राजनीति को स्वीकार नहीं करता है। उसे सत्ता के लिए सोच में पतन स्वीकार्य नहीं है। वहीं दूसरी ओर शिवसेना के पास एक बड़ा निष्ठावान वर्ग है। उसी प्रकार राष्ट्रवादी कांग्रेस के पास भी शरद पवार के प्रति ईमानदार रहने वालों का एक समूह है। इस परिस्थिति में राज्य सरकार में सदा बेचैनी बनी रहना स्वाभाविक-सी स्थिति है। जिसे कम करने या कम दिखाने की कोशिश हर बार की जाती है, किंतु वास्तविकता उससे कोसों दूर होती है।

अब समस्या यह कि कुछ माह में लोकसभा चुनाव और अगले साल इसी समय विधानसभा चुनाव हो सकते हैं। यदि सरकार की कोई मजबूत और सार्थक छवि नहीं बनती है, तो तीनों दलों को खुद को संभालना मुश्किल होगा। खिचड़ी राजनीति में मतदाता के मन पर कोई प्रभाव न होना और मतदान के समय अनेक विकल्प उपलब्ध रहना शिंदे सरकार के लिए चिंताजनक होगा। भाजपा का वर्ष 2014 में 122 सीटों को जीतने के बाद पिछला सफर 105 पर थम गया था। यदि अब दो दलों के साथ मिलकर चुनाव लड़ा और जमकर मत विभाजन हुआ तो अधिक नुकसान भाजपा को हो सकता है। वहीं शिवसेना का शिंदे गुट और राकांपा का अजित पवार गुट तो बागी है। इसलिए उसके खाते में नुकसान गिना नहीं जाएगा। दोनों गुट जितनी सीटें बचा पाएंगे, वो उनकी सफलता का पैमाना होगा।

अब वक्त की नजाकत है कि राज्य सरकार अपनी छाप छोड़ने के लिए प्रयास करे। बार-बार शिवसेना को तोड़ने और शरद पवार को कमजोर बताने से काम नहीं चल पाएगा। पिछली ढाई साल की सरकार की बुराइयों को सुनकर लोग इतने थक चुके हैं कि वे उसके साथ अब थोड़ी सहानुभूति रखने लगे हैं। यदि वह ज्यादा बढ़ गई तो समस्या अधिक हो जाएगी। इसलिए जनभावना को भांपकर सतर्क होना आवश्यक है। तभी बेहतर भविष्य की उम्मीद लगाई जा सकती है। वर्ना राजनीति में यादें बनने में देर नहीं लगती है।

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