ब्लॉग: अनावश्यक रिवाजों को छोड़ने की सार्थक शुरुआत

By विश्वनाथ सचदेव | Published: June 1, 2022 03:06 PM2022-06-01T15:06:43+5:302022-06-01T15:10:12+5:30

यह सच्चाई आज भी हमारे समाज के माथे पर एक कलंक की तरह उजागर है कि विधवा होना किसी महिला का दुर्भाग्य नहीं, उसका अपराध माना जाता है और इस अपराध की सजा के रूप में न वह अच्छे कपड़े पहन सकती है, न हाथों में चूड़ियां.

womens rights orthodox widow customs maharashtra kolhapur | ब्लॉग: अनावश्यक रिवाजों को छोड़ने की सार्थक शुरुआत

ब्लॉग: अनावश्यक रिवाजों को छोड़ने की सार्थक शुरुआत

Highlightsवृंदावन और काशी में आज भी विधवा आश्रम हैं जहां विधवाएं अपराधी भाव के साथ जीवन जी रही हैं.आज भी हमारे समाज में किसी महिला का विधवा होना उसका कसूर ही माना जाता है.आज भी हमारे समाज में किसी महिला का विधवा होना उसका कसूर ही माना जाता है.

खबर छोटी-सी है, पर इसका प्रभाव बड़ा होने वाला है. महाराष्ट्र के कोल्हापुर जिले के छोटे से गांव हेरवड में घटी थी यह घटना. गांव की पंचायत ने एक निर्णय लेकर गांव की विधवाओं को फिर से चूड़ियां पहनने और माथे पर बिंदिया लगाने का अधिकार दिए जाने की घोषणा की है.

यह घोषणा अपने आप में किसी क्रांति से कम नहीं है. यह सही है कि 21वीं सदी के भारत में, खासतौर पर शहरी इलाकों में, विधवाओं की सामाजिक स्थिति में सुधार हुआ है पर यह सच्चाई आज भी हमारे समाज के माथे पर एक कलंक की तरह उजागर है कि विधवा होना किसी महिला का दुर्भाग्य नहीं, उसका अपराध माना जाता है और इस अपराध की सजा के रूप में न वह अच्छे कपड़े पहन सकती है, न हाथों में चूड़ियां.

माथे पर बिंदिया लगाने का अधिकार भी उनसे छिन जाता है. यही नहीं, परिवार में मांगलिक कार्यों में उसे पीछे ही रहने की सलाह दी जाती है. हेरवड गांव के लोगों ने इस स्थिति को बदलने की दिशा में एक ठोस कदम उठाया है.

हेरवड गांव की पंचायत द्वारा लिए गए इस निर्णय के कुछ ही दिन बाद कोल्हापुर जिले के ही मानगांव में भी इसी आशय का निर्णय लिया गया और फिर पुणे के उदयची वाड़ी गांव ने इस निर्णय को क्रियान्वित भी कर दिया-गांव की पंचायत ने एक सार्वजनिक समारोह आयोजित कर विधवाओं को फिर से चूड़ियां पहनाईं, उनके माथे पर बिंदिया सजाई.

यह सही है कि आज सधवा होने के चिह्न धारण करना कम से कम समाज के समझदार कहे जाने वाले तबके में विवाद का मुद्दा नहीं माना जाता, पर ऐसा भी नहीं है कि स्थिति सचमुच बदल गई है. हम इस हकीकत से आंख नहीं चुरा सकते कि वृंदावन और काशी में आज भी विधवा आश्रम हैं जहां विधवाएं अपराधी होने के भाव के साथ जीवन जी रही हैं.

उनका अपराध यह है कि उनके पतियों का निधन उनसे पहले हो गया. उन्हें एक खास तरह की जिंदगी जीने के लिए विवश करके हमारा समाज अपनी मान्यताओं-परंपराओं के पालन का संतोष ओढ़ना चाहता है. संतोष के इस भाव पर सवालिया निशान लगना जरूरी है.

ऐसा नहीं है कि ऐसा निशान लगाने की कोशिशें नहीं हुईं, पर सारी कोशिशों के बाद, सामाजिक विकास के सारे दावों के बावजूद, आज भी हमारे समाज में किसी महिला का विधवा होना उसका कसूर ही माना जाता है.

अपवाद हैं, पर नियम यही है कि यदि कोई महिला विधवा हो गई है तो उसे न अच्छे कपड़े पहनने का अधिकार है, न सजने-संवरने का. यही नहीं, परंपरा के नाम पर उसे हाथों की चूड़ियां भी छोड़नी पड़ती हैं, माथे की बिंदिया भी. पति के शव पर शोक मनाती विधवा की चूड़ियां जबरदस्ती तोड़ दी जाती हैं. माथे का सिंदूर पोंछ दिया जाता है और ऐसा सिर्फ अनपढ़ समाजों में ही नहीं होता.

मुझे याद है, मुंबई जैसे महानगर में एक पढ़े-लिखे परिवार में पति के असामयिक निधन के बाद उसकी कॉलेज में पढ़ाने वाली पत्नी के हाथ पकड़ कर जबर्दस्ती चूड़ियां तोड़ने की रस्म निभाई गई थी. और जब ऐसा किया जा रहा था तो उस महिला ने चीखकर कहा था ‘नहीं...’ वह चीख सिर्फ पीड़ा का प्रकटीकरण नहीं था, वह एक ऐसी स्थिति के अस्वीकार के लिए क्रंदन था जो किसी भी दृष्टि से उचित नहीं कही जा सकती. वह चीख आज भी मेरे कानों में गूंज जाती है.

हेरवड, मानगांव और उदयची वाड़ी गांवों की पंचायतों ने विधवाओं के साथ जुड़ी प्रतिगामी परंपराओं के विरुद्ध आवाज उठाकर ऐसी ही किसी चीख से उठे सवालों का जवाब देने की सार्थक पहल की है. इस पहल का स्वागत होना ही चाहिए और इसका अनुकरण भी.

आज, जब नारी जीवन के हर क्षेत्र में पुरुष के कंधे से कंधा मिला कर आगे बढ़ रही है, यह सवाल भी उठना जरूरी है कि सधवा होने का प्रमाण साथ लेकर चलने की शर्त नारी पर ही क्यों लगाई जाए? c

यह एक संयोग ही है कि इस संदर्भ में बदलाव की शुरुआत उसी पुणे के एक गांव से हुई है जहां लगभग पौने दो सौ साल पहले 1848 में सावित्रीबाई फुले ने पहला महिला बालिका विद्यालय खोला था. यह विद्यालय वस्तुत: स्त्रियों को पुरातन रूढ़ियों से मुक्त कर एक खुला आसमान देने का एक क्रांतिकारी कदम था.

यह एक सामाजिक क्रांति की शुरुआत थी. आज पुणे के उदयची वाड़ी और कोल्हापुर के हेरवड तथा मानगांव से भी ऐसी ही एक क्रांति की आवाज उठी है. इस आवाज के सुने जाने की ही नहीं, इसके सार्थक्य को समझे जाने की भी जरूरत है.

Web Title: womens rights orthodox widow customs maharashtra kolhapur

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