खात्मे की कगार पर पहुंचे नक्सली एक के बाद एक नए पैंतरे आजमा रहे हैं. अब वो कह रहे हैं कि सरकार उन्हें आत्मसमर्पण के लिए 15 फरवरी तक का समय दे. इसका मतलब यह है कि नक्सली चाहते हैं कि सरकार ऑपरेशन ग्रीन हंट रोक दे. सामान्य सी समझ रखने वाला भी इस प्रस्ताव के निहितार्थ को समझ सकता है. कई नक्सली नेताओं ने मीडिया को दिए इंटरव्यू में खुद माना है कि नक्सलवाद इस समय सबसे कमजोर दौर में पहुंच चुका है.
जब उनसे पूछा गया कि क्या नक्सलवाद समाप्त हो रहा है तो उनका साफ कहना था कि विचार कभी खत्म नहीं होते. जाहिर सी बात है कि नक्सलियों की मंशा यह है कि ऑपरेशन ग्रीन हंट रुके तो उन्हें संभलने का कुछ मौका मिले और फिर आगे की रणनीति के अनुरूप वे कदम उठा सकें. अभी तो वे जंगल से बाहर निकलने की हालत में भी नहीं हैं क्योंकि सुरक्षा बलों ने नकेल कस रखी है. सरकार इस बात को समझ रही है कि यदि नक्सलियों के खिलाफ ऑपरेशन ग्रीन हंट इस वक्त यदि रोका गया तो नक्सलियों के बड़े नेता, खासकर भविष्य में नेतृत्व करने की क्षमता वाले नक्सली जंगलों से बाहर आकर शहरों में विलीन हो जाएंगे.
सरकार पहले भी कह चुकी है कि शहरी नक्सलियों का एक बड़ा तबका है जो जंगल में हथियार संभाल रहे नक्सलियों के लिए काम करता है. शहरी नक्सलियों का यही तबका कुख्यात नक्सली हिडमा की मौत पर हाहाकार मचा रहा है. चिल्ला रहा है कि हिडमा तो सरेंडर करने जा रहा था, उसे पुलिस ने बगैर किसी मुठभेड़ के मार डाला! यह आरोप कितना सच है और कितना झूठ, यह कहना मुश्किल है लेकिन आरोप लगाने वाला तबका यह क्यों भूल जाता है कि हिडमा सुरक्षा बलों के न जाने कितने जवानों का हत्यारा था.
एक हत्यारे को लेकर इस तरह का प्रेम खतरनाक है. फिलहाल सरकार ने स्पष्ट कर दिया है कि ऑपरेशन ग्रीन हंट रोकने का सवाल ही पैदा नहीं होता है. जिन्हें सरेंडर करना है वे सरेंडर करें! बात वाजिब भी है कि जो सरेंडर के लिए वाकई तैयार होगा, वह वक्त क्यों मांगेगा?
उसे तो बस जंगल से निकलना है और अपने हथियार डालने हैं. वक्त मांगने का मतलब है कि नक्सली कुछ नई योजना पर काम कर रहे हैं लेकिन उन्हें यह बात समझ में आ जाना चाहिए कि केंद्रीय गृहमंत्री अमित शाह ने 31 मार्च 2026 की तारीख तय कर रखी है. नक्सलियों को जान बचानी है तो बगैर किसी ना नुकर के उन्हें हथियार डालना ही होगा वर्ना सुरक्षा बलों की नीयत साफ है! कोई नक्सली नहीं बचेगा!