भयावह होता जा रहा जल संकट, प्रबंधन के लिए ठोस नीति जरूरी
By लोकमत समाचार सम्पादकीय | Published: August 22, 2023 09:04 AM2023-08-22T09:04:38+5:302023-08-22T09:07:26+5:30
केपटाउन जैसी स्थिति एशिया तथा अफ्रीका के कई देशों में निकट भविष्य में पैदा हो सकती है। हम अपने देश को ही लें। आजादी के 76 वर्ष बाद भी देश की आबादी का बड़ा हिस्सा स्वच्छ पेयजल आपूर्ति से वंचित है। 24 घंटे जलापूर्ति का स्वप्न तो शायद ही कभी साकार हो सके। महाराष्ट्र में मराठवाड़ा और खानदेश एवं पश्चिमी विदर्भ को लगातार पेयजल संकट का सामना करना पड़ता है।
राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मु ने जल सुरक्षा तथा पानी के संसाधनों के सतत विकास एवं उनके समुचित प्रबंधन पर जोर देते हुए भविष्य में संभावित पेयजल संकट को टालने का आह्वान किया है। केंद्रीय जल इंजीनियरिंग सेवा के अधिकारियों को सोमवार को संबोधित करते हुए राष्ट्रपति ने पानी की बर्बादी, जल संसाधनों के अनियंत्रित दोहन तथा जलवायु परिवर्तन से पेयजल स्रोतों पर मंडराते खतरे के प्रति आगाह किया। पेयजल संकट एक वैश्विक समस्या बन चुका है लेकिन भारत उन देशों में है जहां कुछ दशकों बाद पीने के पानी के लिए लोगों को जबर्दस्त जद्दोजहद करनी पड़ सकती है। दुनिया की अनेक संस्थाएं भविष्य में पैदा होनेवाले भीषण जल संकट को लेकर समय-समय पर अपनी रिपोर्ट में चिंता जताती रहती हैं। अमेरिका स्थित संस्था वर्ल्ड रिसोर्सेज इंस्टीट्यूट की रविवार को जारी रिपोर्ट के मुताबिक भारत दुनिया के उन 25 देशों में शामिल है, जहां जल संकट सबसे ज्यादा गहरा रहा है। 1960 के बाद से दुनिया में पीने के पानी की मांग दोगुनी से ज्यादा हो गई है लेकिन उस अनुपात में पेयजल आपूर्ति नहीं हो पा रही है। इस वर्ष मार्च में विश्व जल संकट पर यूनेस्को ने दुनिया में पीने के पानी की उपलब्धता तथा भविष्य में पैदा होनेवाली भयावह स्थिति पर विस्तृत रिपोर्ट जारी की थी। दो महीने बाद संयुक्त राष्ट्र ने भी वैश्विक जल संकट पर विश्लेषणात्मक रिपोर्ट जारी कर पीने के पानी के संरक्षण एवं संवर्धन पर जोर दिया था।
वस्तुत: पानी के बिना मनुष्य अपने अस्तित्व की कल्पना भी नहीं कर सकता। इसके बावजूद वह पानी को संरक्षित करने के प्रति उदासीन है। मानव सभ्यता जैसे-जैसे विकसित तथा उन्नत होती गई, पानी की जरूरत बढ़ती गई। औद्योगिकीकरण का युग आरंभ होने तक स्थिति नियंत्रण में थी क्योंकि जल पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध रहता था। जल स्रोत प्रदूषण से बचे हुए थे और उनका अंधाधुंध दोहन भी नहीं हो रहा था। इसके अलावा जलवायु परिवर्तन की आहट भी सुनाई नहीं देती थी। औद्योगिक क्रांति के साथ ही दुनिया में शहरीकरण का चलन भी तेजी से बढ़ा। नदियों, तालाबों, सरोवरों तथा अन्य परंपरागत जल स्रोतों को काटकर औद्योगिक इलाकों तथा रिहायशी इलाकों का निर्माण होने लगा। जल संवर्धन तथा संरक्षण में महत्वपूर्ण भूमिका निभानेवाले जंगलों की कटाई होने लगी। जलवायु परिवर्तन के कारण मौसमचक्र बदलने लगा, ग्लेशियरों के पिघलने से पानी के स्रोत सूखने लगे। औद्योगिकीकरण मनुष्य के विकास के लिए जरूरी है, सड़कों तथा अन्य बुनियादी सुविधाओं का विस्तार भी समय की मांग के मुताबिक होना चाहिए लेकिन हम विकसित होने की चाह में पानी जैसी बुनियादी धरोहर को खत्म करते जा रहे हैं। दुनिया में पेयजल संकट की भयावह स्थिति का अंदाज इसी बात से लगाया जा सकता है कि दक्षिण अफ्रीका के सबसे बड़े केपटाउन शहर में दैनिक उपयोग एवं पीने के लिए पानी बचा ही नहीं।
केपटाउन जैसी स्थिति एशिया तथा अफ्रीका के कई देशों में निकट भविष्य में पैदा हो सकती है। हम अपने देश को ही लें। आजादी के 76 वर्ष बाद भी देश की आबादी का बड़ा हिस्सा स्वच्छ पेयजल आपूर्ति से वंचित है। 24 घंटे जलापूर्ति का स्वप्न तो शायद ही कभी साकार हो सके। महाराष्ट्र में मराठवाड़ा और खानदेश एवं पश्चिमी विदर्भ को लगातार पेयजल संकट का सामना करना पड़ता है। इन क्षेत्रों के छोटे-बड़े शहरों ने ऐसे दिन भी देखे हैं, जब महीने में सिर्फ एक दिन पीने के पानी की आपूर्ति होती थी। ये इलाके कम वर्षा होने पर ऐसी परिस्थितियों का सामना करते रहते हैं। तमिलनाडु की राजधानी चेन्नई का जल संकट भी कई बार सुर्खियों में रहा है। चेन्नई में भूमिगत जल स्रोत लगभग पूरी तरह सूख गए थे। शहर को जलपूर्ति करनेवाले जलाशयों में पानी नहीं था। अस्सी के दशक से लेकर नई सदी की शुरुआत तक चेन्नई के लोग एक-एक बूंद पानी के लिए तरसते रहे। पिछले दो दशकों से हर वर्ष वहां अच्छी वर्षा हो रही है जिससे हालात सुधरे हैं। आंध्र प्रदेश की नदियों से चेन्नई तक पीने का पानी पहुंचाने की योजना कार्यान्वित होने से भी स्थिति सुधरी है। म।प्र। में शिप्रा नदी सूख गई थी जिससे महाकाल की नगरी में भीषण पेयजल संकट पैदा हो गया था। इस नदी को पुनर्जीवित करने के बाद हालात सुधरे हैं। लेकिन चेन्नई तथा उज्जैन शहरों में जलापूर्ति सुधारनेवाली योजनाएं अपवाद हैं। हमें इस सच को स्वीकार करना पड़ेगा कि जल प्रबंधन की ठोस नीति अब तक नहीं बनी है और इसका दुष्प्रभाव गंभीर से गंभीरतर होता जाएगा। पानी को बचाने तथा उसके संतुलित उपयोग की दिशा में ठोस कदम नहीं उठाए गए तो दुनिया के हर इलाके को केपटाउन बनने से रोका नहीं जा सकता। जल संकट मानवजनित समस्या है तथा उसे हल करने के लिए मनुष्य को ही पहल करनी होगी।