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विश्वनाथ सचदेव का ब्लॉग: गलतियों से बचने के लिए इतिहास से सीख लें

By लोकमत समाचार ब्यूरो | Updated: April 11, 2019 05:13 IST

सौ साल पहले उठाया गया रौलेट एक्ट वाला कदम हर दृष्टि से गलत था. गांधीजी के नेतृत्व में उस काले कानून का विरोध करके हमने एक गलत को सही करने की मांग की थी. आज भी हमारी चुनी हुई सरकार यदि कुछ गलत करती है, हमारा नेतृत्व कुछ गलत करता है तो उसका प्रतिरोध जरूरी है.

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(विश्वनाथ सचदेव- जाने-माने स्तंभकार)   

कहते हैं जो इतिहास को भूल जाते हैं, वे इतिहास से कुछ नहीं सीख पाते. जरूरी है इतिहास से सीखना ताकि हम पुरानी भूलों को दुहराएं नहीं और पुरानी उपलब्धियों से प्रेरणा ले सकें. वर्ष 2019 का हमारे इतिहास से एक विशेष रिश्ता इस माने में है कि आज से सौ साल पहले यानी 1919 में हमारे इतिहास का एक स्वर्णिम अध्याय लिखा गया था- आजादी की लड़ाई के इतिहास का एक निर्णायक मोड़ था वह वर्ष. 

दो घटनाएं हुई थीं वर्ष 1919 में. पहली तो यह कि इसी वर्ष मार्च में रौलेट एक्ट नाम से हमारे विदेशी हुक्मरानों ने एक काला कानून बनाया था, जिसके विरोध में गांधीजी के नेतृत्व में देश में एक आंदोलन उठ खड़ा हुआ था. गांधीजी ने सरकार से असहयोग करने का एक मंत्न दिया देश की जनता को. 1857 की क्रांति के बाद यह स्वतंत्नता संग्राम का सर्वाधिक महत्वपूर्ण अध्याय था. 

इतने बड़े पैमाने पर एक आंदोलन में आम जनता की भागीदारी पहले कभी नहीं हुई थी. दूसरी घटना जो उस वर्ष में घटी वह जलियांवाला बाग में अंग्रेज जनरल द्वारा किया गया नरसंहार था, जिसमें दस मिनट के गोली चालन में सरकारी आंकड़ों के अनुसार तीन सौ से कुछ अधिक, और जानकारों के अनुसार एक हजार से ज्यादा लोग मारे गए थे. यह हत्याकांड हमारी आजादी के संघर्ष का एक ऐसा अध्याय था जिसे लिखने में सारा देश एक उद्देश्य से जुट गया था.आज देश रौलेट एक्ट और जलियांवाला बाग कांड की शताब्दी मना रहा है. 

गांधीजी की डेढ़ सौवीं जयंती के वर्ष ने हमारे इतिहास के उस पृष्ठ को और महत्वपूर्ण बना दिया है. यह अवसर विश्व-इतिहास में गांधी के योगदान को एक बार फिर से आंकने का तो है ही, रौलेट एक्ट और अमृतसर के जलियांवाला बाग-कांड के संदर्भ में इस बात को रेखांकित करने का भी है कि स्वतंत्नता की लड़ाई के यज्ञ में आहुति देने वालों को याद करते रहना जरूरी है- तभी हम अपनी स्वतंत्नता की रक्षा की लड़ाई लड़ते रह सकते हैं. 

उस दिन मुंबई के मणिभवन में इसी रौलेट एक्ट, असहयोग आंदोलन और जलियांवाला बाग की घटनाओं को याद करने के लिए इतिहास के कुछ पुराने पन्नों को पलटने का अवसर आयोजित किया गया था. 1919 में पारित रौलेट एक्ट एक काला कानून था, और इसके माध्यम से एक काला अध्याय रचा गया था. ‘एनार्किकल एंड रिवोल्यूशनरी क्राइम एक्ट’ के नाम से पारित इस कानून ने ब्रिटिश सरकार को ऐसे अधिकार दे दिए थे कि कानून के अंतर्गत सरकार कुछ भी कर सकती थी, और सरकार के अन्याय के खिलाफ न कोई दलील दी जा सकती थी, न वकील कोई अपील कर सकता था. रौलेट एक्ट अर्थात् न वकील, न दलील, न अपील. इस कानून के अंतर्गत तत्कालीन सरकार को किसी को भी बिना वारंट बंदी बनाने, प्रेस पर नियंत्नण रखने, धार्मिक और राजनीतिक गतिविधियों में भाग न लेने देने का असीमित अधिकार प्राप्त था. उद्देश्य स्वतंत्नता-आंदोलन को दबाना था. गांधी ने इसी का प्रतिरोध किया. गांधी ने कहा, अन्याय का प्रतिरोध करना मेरा अधिकार है, कर्तव्य भी.

बाद में आंदोलन के कुछ हिंसक हो जाने के कारण गांधीजी ने इसे वापस ले लिया. पर गलत के प्रतिरोध के अधिकार वाली बात ने देश की जनता को एक नई ताकत और एक नया मकसद दे दिया था. हकीकत यह है कि यह प्रतिरोध आजादी की लड़ाई का ही एक कारगर हथियार नहीं था, बल्कि आजादी को बनाए रखने का भी एक कारगर हथियार है. गलत को स्वीकार न करना और उसके खिलाफ सक्रिय होना-रहना एक ऐसा जनतांत्रिक मूल्य है जिसकी उपेक्षा का मतलब जनतंत्न के साथ गद्दारी करना है.

इस सारे इतिहास को याद करने, याद रखने का अर्थ यह है कि हम जनतंत्न में प्रतिकार की महत्ता को याद रखें. सौ साल पहले विदेशी शासन था, आज हमारा अपना शासन है. जरूरी है कि हमारा अपना शासन जनता के अधिकारों के प्रति अनदेखी करने की धृष्टता न करे और यह भी उतना ही जरूरी है कि जनता जनतंत्न में अपने कर्तव्यों के प्रति लगातार जागरूक रहे. प्रतिरोध हमारा अधिकार भी है, और हमारा कर्तव्य भी. यह बात विदेशी शासन में जितनी लागू होती है, अपने शासन में उससे कहीं अधिक लागू होती है. 

सौ साल पहले उठाया गया रौलेट एक्ट वाला कदम हर दृष्टि से गलत था. गांधीजी के नेतृत्व में उस काले कानून का विरोध करके हमने एक गलत को सही करने की मांग की थी. आज भी हमारी चुनी हुई सरकार यदि कुछ गलत करती है, हमारा नेतृत्व कुछ गलत करता है तो उसका प्रतिरोध जरूरी है. हमारा इतिहास इस बात का साक्षी है. जरूरत यह है कि हम इतिहास को भूलें नहीं- कुछ सीखें उससे. हमें यह भी याद रखना होगा कि सौ साल पहले अंग्रेजों ने हमारी असहमति को राजद्रोह कहा था. आज हम जानते हैं असहमति जनतंत्न का रक्षा-कवच है. इसे राजद्रोह या राष्ट्रद्रोह समझने वाले जनतंत्न में प्रतिकार के अधिकार और कर्तव्य को ही नकारते हैं. यह नितांत अस्वीकार्य स्थिति है- इतिहास से कुछ न सीखने का उदाहरण भी.

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