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विश्वनाथ सचदेव का ब्लॉगः जब जेएनयू में एक श्रोता ने तान दी थी फहमीदा रियाज़ पर पिस्तौल

By लोकमत समाचार ब्यूरो | Published: November 29, 2018 1:58 PM

अमृता प्रीतम के आग्रह पर तत्कालीन प्रधानमंत्नी इंदिरा गांधी ने फहमीदा रियाज को राजनीतिक आश्रय दिया था और तब लगभग सात साल फहमीदा ‘अपने दूसरे घर’ भारत में रही थीं.

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महिला सशक्तिकरण की प्रबल प्रवक्ता और पाकिस्तान में अभिव्यक्ति की स्वतंत्नता की लड़ाई लड़ने वाली जानी-मानी शायरा फहमीदा रियाज शायद अपने वतन पाकिस्तान से ज्यादा अपने ‘दूसरे घर’  भारत में सराही जाती थीं. अपने विचारों और विश्वासों को उन्होंने कभी छिपाया नहीं था. खुलकर लड़ती रहीं वे उन ताकतों से जो मजहब या परंपराओं के नाम पर मानवीय अधिकारों को दबाने-कुचलने पर आमादा थीं. अपनी इस जिद की कीमत भी उन्होंने चुकाई. 22 साल की उम्र में उनका पहला कविता-संग्रह ‘पत्थर की जबां’  छपा था.

रूमानी कविताओं के इस संकलन को तो सराहा गया, पर जब उनका संग्रह ‘बदन दरीदा’ छपा तो जैसे पाकिस्तान के साहित्यिक जगत में गुस्सा भड़क उठा. फिर जब उन्होंने मानवीय अधिकारों की बात करनी शुरू की, सिंधियों और बलूचों के आंदोलनों के पक्ष में खड़ी हुईं, सैनिक तानाशाही को चुनौती दी तो सत्ता और समाज का एक तबका, दोनों, उनके खिलाफ हो गए थे.  

जिया-उल-हक के शासन के दिनों में फहमीदा एक पत्रिका निकालती थीं- आवाज. शासन द्वारा चौदह मुकदमे चलाए गए थे इस  पत्रिका के खिलाफ. देशद्रोह के आरोप में फहमीदा को गिरफ्तार कर लिया गया था. लेकिन किसी तरह उन्हें जमानत मिल गई. फिर एक निमंत्नण पर उन्हें भारत आने का मौका मिला, जहां उनकी पुरानी मित्न पंजाबी की ख्यातनाम कवियित्नी अमृता प्रीतम के सहयोग से उन्हें भारत में बने रहने का अवसर मिल गया.

अमृता प्रीतम के आग्रह पर तत्कालीन प्रधानमंत्नी इंदिरा गांधी ने फहमीदा को राजनीतिक आश्रय दिया था और तब लगभग सात साल फहमीदा ‘अपने दूसरे घर’ भारत में रही थीं. यही वह काल था जब भारत ने उन्हें और उन्होंने भारत को अच्छी तरह पहचाना. ‘तुम भी हम जैसे निकले..’ कविता से मैं फहमीदा रियाज के लेखन की ओर आकर्षित हुआ था. पाकिस्तान के तानाशाही माहौल में एक लेखिका और पत्नकार के रूप में उन्होंने जिस बहादुरी और जीवट का परिचय दिया था, उससे शायद सब परिचित थे.

भारत में बिताए उन सात सालों में उनकी कविताओं से, उनके विचारों से भी हम भारत वाले परिचित हुए थे. लेकिन ‘तुम भी हम जैसे निकले’  वाली इस एक कविता ने फहमीदा रियाज को मेरे जैसे सोच वाले न जाने कितने लोगों ने समझा-सराहा. अपनी इस कविता में वे हम भारतीयों को मुखातिब हैं. हम भारतीयों को अपने जनतांत्रिक और धर्म-निरपेक्ष सोच पर बड़ा अभिमान है. पर हकीकत यह भी है कि इस सोच के बावजूद कहीं गहरे में देश में एक तनाव की स्थिति बनी हुई है जो हमारी धार्मिक और सांप्रदायिक सहिष्णुता पर सवालिया निशान लगा देती है. फहमीदा रियाज ने इस सवालिया निशान को देखा ही नहीं, महसूस भी किया. वे आहत हुईं. उनकी यह कविता उनकी व्यथा की अभिव्यक्ति ही नहीं, एक ईमानदार पड़ोसी द्वारा दी गई चेतावनी भी है. 

फहमीदा रियाज जब अपनी यह कविता जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय (जेएनयू) में सुना रही थीं तो सुना है, श्रोताओं में से एक व्यक्ति ने उन पर पिस्तौल तान दी थी. हमारे भीतर पल रही असहिष्णुता का यह अकेला उदाहरण नहीं है. फहमीदा की आवाज तो हमें आगाह कर रही थी कि हम उनके देशवासियों जैसी गलती करने से बचें. ऐसी ही चेतावनी उसने अपने देशवासियों को भी दी थी. पर पाकिस्तान के बुद्धिजीवी वर्ग ने भी इस आवाज को समझना नहीं चाहा. सुना है लाहौर में फहमीदा को जब सुपुर्द-ए-खाक किया गया तो कब्रगाह में पाकिस्तान के सिर्फ तीन लेखक उपस्थित थे.

तीन बुद्धिजीवियों वाली यह खबर पढ़ कर मैं भीतर से हिल गया था. आदमी विवेक की आवाज के साथ खड़ा होने में क्यों डरता है? हां, डरना ही कहूंगा मैं इसे. यह अस्वीकृति नहीं है. फिर, यदि कोई असहमति है, तो भी जनतांत्रिक और मानवीय परंपराओं का तकाजा है कि भिन्न तथा विपरीत सोच रखने वालों के इस अधिकार का सम्मान किया जाए. मैं भीतर तक इसलिए भी हिला था कि लगभग तीन दशक पहले हमारे भारत में भी ऐसी ही घटना घटी थी. उर्दू की शीर्ष रचनाकार इस्मत चुगताई की अंत्येष्टि जब मुंबई के चंदनवाड़ी श्मशान में हुई तो तीन ही लेखक-पत्नकार वहां भी उपस्थित थे. एम्बुलेंस में इस्मत आपा का शव लाने वाले उनके कुछ परिजनों के अलावा कुल तीन रचनाकार हमारे समय की एक सशक्त रचनाकार को अलविदा कह रहे थे. सुना है, कुछ तरक्कीपसंद लेखक  उनके घर तक पहुंचे थे, पर इस्मत आपा की इच्छा के अनुसार शव-दाह उन्हें मान्य नहीं था. मैं कहना चाहूंगा, वे डर गए थे. नहीं आए श्मशान तक.

यही डर फहमीदा के आखिरी सफर में दिखा. उन तीन लेखकों से ज्यादा हिम्मत तो दिखाई चालीस-पचास आम लोगों ने जो अंत्येष्टि में शामिल हुए. फहमीदा विरोध का स्वर नहीं थीं, विवेक का स्वर थीं. फिर भी कोई इस स्वर से असहमत हो सकता है, लेकिन जनतांत्रिक और मानवीय मूल्यों का तकाजा है कि असहमति का सम्मान हो. असहमति को समझने की कोशिश हो. तभी हम ‘मूरखता और घामड़पन’ से बच सकते हैं, तभी किसी फहमीदा को दु:ख से यह नहीं कहना पड़ेगा कि ‘तुम बिल्कुल हम जैसे निकले’!

टॅग्स :फ़हमीदा रियाज़कला एवं संस्कृति
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