गिरीश्वर मिश्र का ब्लॉगः हिंदी के सामर्थ्य को बढ़ाने का प्रयास
By लोकमत समाचार ब्यूरो | Published: December 29, 2018 11:14 AM2018-12-29T11:14:31+5:302018-12-29T11:14:31+5:30
महात्मा गांधी हिंदी को ‘प्यार और संस्कार की भाषा’ कहते थे. उनकी मानें तो ‘इसमें सबको समेट लेने की अद्भुत क्षमता है’.
गिरीश्वर मिश्र
हिंदी भारत में बोली और समझी जाने वाली न केवल एक प्रमुख भाषा है बल्कि यहां की संस्कृति, मूल्य और राष्ट्रीय आकांक्षाओं का व्यापक रूप से प्रतिनिधित्व भी करती है. इसका अस्तित्व उन सुदूर देशों में भी है जहां भारतीय मूल के लोग रहते हैं. संख्या बल की दृष्टि से हिंदी का विश्व भाषाओं में ऊंचा स्थान है. महात्मा गांधी हिंदी को ‘प्यार और संस्कार की भाषा’ कहते थे. उनकी मानें तो ‘इसमें सबको समेट लेने की अद्भुत क्षमता है’. वे कहते थे कि हिंदी ‘अपने आप में बहुत मीठी, नम्र और ओजस्वी’ भाषा है. भारत के स्वतंत्नता संग्राम में हिंदी ने पूरे भारत को जोड़ने का काम किया था. यद्यपि इसे जनमानस में स्वाभाविक रूप से राष्ट्र भाषा का गौरव मिला था और वर्धा में बापू ने राष्ट्रभाषा प्रचार परिषद की स्थापना की थी. दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा भी स्थापित हुई.
भाषा किसी भी समाज और संस्कृति की जीवनदायिनी शक्ति होती है. यदि आम जनों को उनकी भाषा में व्यवहार करने का अवसर मिले तो उनकी भागीदारी बढ़ती है और उन्हें अवसर भी मिलता है. इसी दृष्टि से औपनिवेशिक इतिहास से आगे बढ़कर स्वतंत्न भारत के संविधान ने देवनागरी लिपि में लिखी जाने वाली हिंदी को ‘राजभाषा’ का दर्जा दिया पर साथ में यह प्रावधान भी किया कि अंग्रेजी का प्रयोग तब तक चलता रहेगा जब तक देश का एक भी राज्य वैसा चाहेगा. ऐसी स्थिति में राजनीतिक समीकरण कुछ ऐसे बने कि सभी साहित्यिक विधाओं में उल्लेखनीय उपलब्धि के बावजूद जीवन के व्यापक कार्यक्षेत्न (कानून व्यवस्था, शिक्षा, स्वास्थ्य) और ज्ञान-विज्ञान की भाषा के रूप में हिंदी को वह स्थान नहीं मिल सका जिसकी वह हकदार है. हिंदी का यह संघर्ष जारी है. इस परिप्रेक्ष्य में वर्ष 1975 में नागपुर में आयोजित प्रथम विश्व हिंदी सम्मलेन में विश्व हिंदी विद्यापीठ की स्थापना का संकल्प लिया गया. सन 1997 में भारतीय संसद के विशेष अधिनियम के अंतर्गत महात्मा गांधी अंतर्राष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय की स्थापना हुई और पांच वर्ष बाद वर्धा में उसका परिसर आरंभ हुआ.
पूज्य बापू की कर्मभूमि वर्धा में स्थापित यह केंद्रीय विश्वविद्यालय हिंदी के संवर्धन और विकास के लिए एक बहुआयामी उपक्र म के रूप में निरंतर अग्रसर है. हिंदी न केवल भाषा है बल्कि भारतीय संस्कृति, ज्ञान और लोक-परंपरा को भी धारण करती है. इस पृष्ठभूमि में विश्वविद्यालय की संकल्पना हिंदी को ज्ञान की भाषा के रूप में स्थापित करने और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर हिंदी को माध्यम बनाकर ज्ञान के आदान-प्रदान के लिए एक विश्वस्तरीय ज्ञान-केंद्र के रूप में की गई थी. व्यावहारिक रूप में यह विश्वविद्यालय अध्ययन-अध्यापन और शिक्षण के अतिरिक्त हिंदी को बढ़ावा देने के लिए प्रकाशन, सांस्कृतिक संवाद और साहित्य-संकलन और उसके संरक्षण का भी कार्य करता है.