राजधानी दिल्ली के दो घर. इन दोनों के ड्राइंग रूम में एक ऐतिहासिक चित्र लगा है. उसे देखकर हरे हिंदुस्तानी का सीना गर्व से चौड़ा हो जाता है. इसमें भारतीय सेना के लेफ्टिनेंट जनरल जे.एस. अरोड़ा के साथ पाकिस्तानी सेना के लेफ्टिनेंट जनरल अमीर अब्दुल्ला खां नियाजी बैठे हैं.
नियाजी अपनी सेना के आत्मसमर्पण करने संबंधी एक पेपर पर हस्ताक्षर कर रहे हैं. उस चित्र में भारतीय सेना के कुछ आला अफसर प्रसन्न मुद्रा में खड़े हैं. उनमें जनरल जे.एफ.आर जैकब भी हैं. 1971 के युद्ध में जैकब की रणनीति के तहत भारतीय सेना को अभूतपूर्व कामयाबी मिली थी. वे यहूदी थे और समर नीति बनाने में महारत रखते थे.
पाकिस्तान सेना के रणभूमि में परास्त होने के बाद जनरल जैकब ने नियाजी से अपनी फौज को आत्मसमर्पण का आदेश देने को कहा था. जैकब के युद्ध कौशल का ही परिणाम था कि नब्बे हजार से ज्यादा पाकिस्तानी सैनिकों ने अपने हथियारों समेत भारत की सेना के समक्ष घुटने टेके. जैकब हुमायूं रोड के यहूदी कब्रिस्तान में चिर निद्रा में हैं.
अगर बात जनरल अरोड़ा की करें तो उन्होंने 1971 की जंग में भारतीय सेना को छोटी-छोटी टुकड़ियों में बांटकर पूर्वी पाकिस्तान में घुसने के आदेश दिए थे. उनकी इस रणनीति की मदद से हमारी सेना देखते ही देखते ढाका पहुंच गई थी. जरनल अरोड़ा ने 1984 में सिख विरोधी दंगों के दोषियों को दंड दिलवाने के लिए लगातार संघर्ष किया था.
बेशक, विजय दिवस पर सेकंड लेफ्टिनेंट अरुण खेत्रपाल के पराक्रम की याद आना लाजिमी है. वे सेंट कोलंबस स्कूल में भी पढ़े थे. उनके पिता भी उस जंग में लड़ रहे थे. अरुण खेत्रपाल ने पंजाब-जम्मू सेक्टर के शकरगढ़ में शत्रु के दस टैंक नष्ट किए थे. वे तब 21 साल के थे. इतनी कम आयु में अब तक किसी को परमवीर चक्र नहीं मिला है. नोएडा का अरुण विहार सेकंड लेफ्टिनेंट अरुण खेत्रपाल के नाम पर ही है.
उन्होंने इंडियन मिलिट्री अकादमी से जून, 1971 में ट्रेनिंग खत्म की. उसी साल दिसंबर में पाकिस्तान के साथ जंग शुरू हो गई. अरुण खेत्रपाल की स्क्वाड्रन 17 पुणो हार्स 16 दिसंबर 1971 को शकरगढ़ में थी. वे टैंक पर सवार थे. टैंकों से दोनों पक्ष गोलाबारी कर रहे थे. वे शत्रु के टैंकों को बर्बाद करते जा रहे थे. इसी क्रम में उनके टैंक में भी आग लग गई. वे शहीद हो गए. लेकिन उनकी टुकड़ी उनके पराक्रम को देखकर इतनी प्रेरित हुई कि वह दुश्मन की सेना पर टूट पड़ी.
युद्ध में भारत को सफलता मिली. अरुण को शकरगढ़ का टाइगर कहा जाता है. उनका परिवार आनंद निकेतन में रहता है. उधर, आप जब रेसकोर्स के पास से गुजरें तो फ्लाइंग ऑफिसर निर्मलजीत सिंह सेखों को याद अवश्य कर लिया करें. आपने उनके शौर्य की कथाएं अवश्य सुनी होंगी. भारत-पाक के बीच 1971 की जंग का जब भी जिक्र होगा, तब देश उनका अवश्य स्मरण करेगा. जब जंग चालू हुई तब वे राजधानी के रेस कोर्स क्षेत्र में रहते थे. उस जंग के लिए 14 दिसंबर 1971 का दिन खास था.
उस दिन फ्लाइंग ऑफिसर निर्मलजीत सिंह सेखों ने पाकिस्तान के दो लड़ाकू सेबर जेट विमानों को ध्वस्त कर दिया था. उन्हें उस जंग में अदम्य साहस के लिए मरणोपरांत परमवीर चक्र से नवाजा गया था. यदि भारत ने 1971 की जंग में पाकिस्तानी सेना के गले में अंगूठा डाल दिया था, तो इसका कहीं न कहीं श्रेय एयर चीफ मार्शल इदरीस हसन लतीफ को भी जाता है. वे 1971 के युद्ध के दौरान सहायक वायुसेनाध्यक्ष के पद पर थे. वे जंग के समय शत्रु से लोहा लेने की रणनीति बनाने के अहम कार्य को अंजाम दे रहे थे.
लतीफ लड़ाकू विमानों के उड़ान भरने, युद्ध की प्रगति तथा यूनिटों की आवश्यकताओं पर भी नजर रख रहे थे. लतीफ शिलांग स्थित पूर्वी सेक्टर में थे जब पाकिस्तान ने हथियार डाले थे. दिल्ली कैंट में उस महान योद्धा के नाम पर एक सड़क भी है.
इदरीस हसन लतीफ का देश के पहले गणतंत्र दिवस से एक अलग और खास संबंध रहा. दरअसल उन्हीं के नेतृत्व में उस गणतंत्र दिवस पर फ्लाई पास्ट हुआ था जिसे देखकर देश मंत्रमुग्ध हो गया था. देश ने पहले कभी लड़ाकू विमानों को अपने सामने कलाबाजियां खाते नहीं देखा था. लतीफ तब स्क्वाड्रन लीडर थे. वे और उनके साथ हॉक्स टैम्पेस्ट लड़ाकू विमान उड़ा रहे थे. तब लड़ाकू विमानों ने वायुसेना के अंबाला स्टेशन से उड़ान भरी थी.
लतीफ ने 1948 और 1965 की जंगों में भी सक्रिय रूप से भाग लिया था. लतीफ के एयर फोर्स चीफ के पद पर रहते हुए इसका बड़े स्तर पर आधुनिकीकरण हुआ. उन्होंने जगुआर लड़ाकू विमान की खरीद के लिए सरकार को मनाया था.