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विजय दर्डा का ब्लॉग: मतदाता के रूप में हमारी कुछ कीमत है क्या?

By विजय दर्डा | Updated: October 17, 2022 07:34 IST

यह बड़ा गंभीर सवाल है कि पद और गोपनीयता की शपथ लेने के बाद भी यदि जनप्रतिनिधि अपने वादों से मुकर जाए, खुद को शक्तिमान के रूप में स्थापित करके मतदाता को ही भूल जाए तो फिर मतदाता क्या करे? भारतीय लोकतंत्र को यदि मजबूत करना है तो हमें इस सवाल का जवाब ढूंढ़ना ही होगा।

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प्रख्यात कलाकार एवं एक्टिविस्ट नाना पाटेकर का अंदाज तो अपने आप में निराला है ही लेकिन जब वे आम आदमी के मन में पल रहे सवालों को लेकर डायलॉग बोलते हैं तो लोग उनकी अदा पर झूम उठते हैं. उनका यह अंदाज फिल्मों में तो दिखाई देता ही है, इस बार लोकमत समूह के वृहद प्रकल्प महाराष्ट्रीयन ऑफ द ईयर अवार्ड में उन्होंने मुख्यमंत्री एकनाथ शिंदे और उपमुख्यमंत्री देवेंद्र फडणवीस के सामने भी ऐसा ही सवाल दाग दिया! उन्होंने पूछा कि एक मतदाता के रूप में हमारी कुछ कीमत है क्या? हमने वोट दे दिया उसके बाद भी यदि जनप्रतिनिधि कुछ नहीं करते तो हम क्या करें? पांच साल बाद तो जो हमें करना है वह करेंगे लेकिन उस बीच में क्या करें?

नाना पाटेकर का सवाल वास्तव में इस देश के हर मतदाता का सवाल है. हमने बचपन से यही पढ़ा और यही सुना है कि लोकतंत्र में मतदाता ही सर्वशक्तिमान होता है. उसका एक मत किसी उम्मीदवार की जीत या हार तय कर सकता है. मतदाता का प्रतिनिधि इस देश की सर्वोच्च संस्था संसद से लेकर विधानसभा और पंचायत तक में बैठता है, नीतियां बनाता है, देश चलाता है इसलिए मतदाता सैद्धांतिक रूप से सबसे ज्यादा शक्तिशाली होता है. लेकिन आज हालत क्या है, यह किसी से भी छिपा नहीं है. 

भारतीय लोकतंत्र की परिकल्पना करने वाले हमारे श्रेष्ठजनों ने कभी सपने में भी नहीं सोचा होगा कि वोटर केवल कागजों पर सर्वशक्तिमान रह जाएगा, शक्ति के सारे सूत्र नेताओं के हाथ में चले जाएंगे. मतदाता बेहाल बना रहेगा और नेता समृद्ध होते चले जाएंगे! आम आदमी के मन में यह सवाल हमेशा पैदा होता है कि कोई नेता जाहिर तौर पर क्या काम करता है किसी को पता नहीं होता लेकिन नेता बनने के कुछ ही दिन बाद उसकी किस्मत कैसे पलटने लगती है? 

उसका घर शानदार हो जाता है, वह महंगी गाड़ियों में चलने लगता है. हवा में उड़ने लगता है! मैं जानता हूं कि सभी नेता भ्रष्ट नहीं होते हैं लेकिन यदि आम आदमी के मन में इस तरह के सवाल खड़े होते हैं तो यह मानने में कोई हर्ज नहीं है कि बगैर आग के धुआं नहीं उठता!

बात केवल भ्रष्टाचार की नहीं है! अब तो राजनीति को अपराध ने भी काफी हद तक अपनी चपेट में ले लिया है. 1993 में वोहरा समिति की रिपोर्ट और 2002 में संविधान के कामकाज की समीक्षा के लिए गठित राष्ट्रीय आयोग ने स्पष्ट रूप से कह दिया था कि राजनीति में गंभीर आपराधिक पृष्ठभूमि वालों की संख्या बढ़ रही है. बाद के आंकड़े भी इसकी पुष्टि करते हैं. 

नेशनल इलेक्शन वॉच एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म की रिपोर्ट कहती है कि वर्ष 2009 में गंभीर आपराधिक मामलों वाले 76 लोग संसद में पहुंचे थे जबकि 2019 में ऐसे 159 लोग संसद में पहुंचने में कामयाब रहे. निश्चय ही राजनीतिक दल ऐसे उम्मीदवारों को वोट देते हैं जो जीतने की क्षमता रखते हैं लेकिन यह मतदाता की जिम्मेदारी है कि वह योग्य लोगों को चुने. 

बहुत से बाहुबली और गुनहगार बार-बार क्यों चुन कर आते हैं? आखिर क्यों नवल टाटा जैसे लोग चुनाव हार गए या दूसरे अच्छे लोग चुनाव हार जाते हैं? चुनावी प्रलोभन से मतदाता जब तक दूरी नहीं बनाएंगे तब तक स्थिति कैसे सुधरेगी?

चुनाव के वक्त तो नेता हाथ जोड़ कर वोट मांगते हैं लेकिन एक बार जीत गए तो फिर वे शहंशाह बन जाते हैं. हालांकि मैं ऐसे बहुत से  नेताओं को निजी तौर पर जानता हूं जो चुनाव जीतने के बाद भी उतने ही विनम्र और जनता के लिए सुलभ बने रहते हैं जितना चुनाव जीतने के पहले रहते हैं. ऐसे ही लोगों की बदौलत समाज टिका हुआ भी है. लेकिन ज्यादातर नेताओं के तेवर बदल जाते हैं. यदि उन्हें शंका है कि अमुक इलाके के लोगों ने वोट नहीं दिए हैं तो प्रतिशोध की राजनीति भी शुरू हो जाती है. 

जाहिर सी बात है कि वोटर की भूमिका केवल प्रतिनिधि चुनने की रह जाती है. जनप्रतिनिधि बाद में क्या गुल खिलाता है, इस पर मतदाता की पकड़ नहीं रह जाती है. यदि वह दल बदल ले तो मतदाता कुछ नहीं कर सकता. हालांकि दल-बदल के लिए भी कानून बनाया गया लेकिन वह किस कदर असफल हुआ है यह हम देख ही रहे हैं!

नाना के सवाल के जवाब में उपमुख्यमंत्री देवेंद्र फडणवीस ने कहा कि वोटर की कीमत से ही नेता की कीमत होती है. सैद्धांतिक तौर पर यह बात उन नेताओं पर सही बैठती है जो आम आदमी की राजनीति करते हैं लेकिन व्यावहारिक तौर पर यह बात उन नेताओं पर सटीक नहीं बैठती जो सत्ता को निजी शक्ति केंद्र के रूप में विकसित कर लेते हैं! वह शक्ति केंद्र विभिन्न स्वरूपों में समाज को खंडित करने लगता है.तो सवाल फिर वही है कि वोटर क्या करे? क्या उसे यह अधिकार नहीं होना चाहिए कि वह चाहे तो अपने प्रतिनिधि को वापस बुला ले? 

ग्रीस की एथेनियन डेमोक्रेसी में यह कानून चलन में था. बीसवीं शताब्दी के प्रारंभ में लॉस एंजिल्स, मिशिगन और ऑरेगन म्युनिसिपैलिटी में भी इसे लागू किया गया था. 1995 में ब्रिटिश कोलंबिया एसेंबली ने ‘राइट टू रिकॉल’ को लागू किया है. लोकनायक जयप्रकाश नारायण ने 1974 में और 2008 में लोकसभा के तत्कालीन अध्यक्ष सोमनाथ चटर्जी ने भी राइट टू रिकॉल का समर्थन किया था. 

बाद में भी इस पर चर्चाएं होती रहीं लेकिन कुछ ठोस हल सामने नहीं आया. नाना का सवाल वाजिब है. हमें जवाब ढूंढ़ना ही होगा अन्यथा भारतीय लोकतंत्र कमजोर होता चला जाएगा. नाना ने लोगों के मन की बात कही है, यही कारण है कि लोकमत के डिजिटल प्लेटफॉर्म पर 20 लाख से ज्यादा लोगों ने इंटरव्यू को देखा और सुना है!

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