प्रभु चावला
उपराष्ट्रपति के जिस पद को कभी गणतंत्र की खामोश अंतरात्मा माना जाता था, वह आज इसका वाचाल परिचालन केंद्र है. जो कुर्सी कभी दार्शनिक, राजनीतिज्ञ और संविधान के रक्षक की कुर्सी मानी जाती थी, वह अब परम सत्ता संरक्षक, चुनावी प्रतिनिधि और सत्ता की विचारधारा के आक्रामक समर्थक की कुर्सी बन गई है. इस साल का विवाद, पहले की तरह, दो भारत के बारे में बताता है. एनडीए ने संघ के स्वयंसेवक सीपी राधाकृष्णन को इस पद के लिए चुना है, जो तमिलनाडु से हैं. इसके विपरीत, इंडिया गठबंधन ने न्यायमूर्ति बी सुदर्शन रेड्डी को चुना है, जो न्यायशास्त्र की अंतरात्मा के प्रतिनिधि हैं.
ऊंची जाति के होने के बावजूद वह उदारवादी हैं तथा नागरिक आजादी, संवैधानिक नैतिकता और न्यायिक शुद्धता के आग्रही हैं. गणतंत्र के शुरुआती दशक में उपराष्ट्रपति का चुनाव सर्वसम्मति से हुआ करता था, और समान विचारधारा की बजाय योग्यता पर जोर दिया जाता था. सर्वपल्ली राधाकृष्णन, जाकिर हुसैन, गोपाल स्वरूप पाठक-ये सभी सर्वसम्मति से चुने गए थे.
लेकिन इंदिरा गांधी ने दबाव बनाने के युग की शुरुआत की. उन्होंने परंपरा पर निष्ठा को तरजीह दी. इस तरह जाति, पंथ तथा क्षेत्र चुनाव के आधार बनने लगे. यह प्रवृत्ति रणनीतिक रूप से महत्वपूर्ण मानी जाने लगी, क्योंकि सत्ताधारी वर्ग ने संसद को संवाद के मंच की बजाय विधेयकों को पारित करने की जगह मान लिया.
चूंकि उत्तरोत्तर आने वाली सरकारों ने अपने बहुमत के बूते लोकसभा में विधेयकों को पारित कराना शुरू कर दिया, ऐसे में राज्यसभा लोकतंत्र की खासियत की आखिरी सीमा बनी. ऐसे में, उच्च सदन में उपराष्ट्रपति का नियंत्रण बहुत महत्वपूर्ण हो गया. उपराष्ट्रपति अगर तटस्थ होता है, तो चीजें मुश्किल हो सकती हैं, समान विचारधारा का होने पर फायदा है.
अब तक के उपराष्ट्रपतियों का रोस्टर समाजशास्त्र के सिलेबस की तरह लगता है : ब्राह्मण, दलित, मुस्लिम, लिंगायत, जाट, कायस्थ, कम्मा. हर चुनाव ने एक सांस्कृतिक गणना दिखाई, तो हर हार में गहरे मतभेद सामने आए. जैसे, शिंदे बनाम शेखावत (दलित बनाम राजपूत), हेपतुल्ला बनाम अंसारी (मुस्लिम विविधता बनाम मुस्लिम कूटनीति), अल्वा बनाम धनखड़ (ईसाई अल्पसंख्यक बनाम हिंदू बहुसंख्यक).
हर उपराष्ट्रपति चुनाव की अपनी कहानी है. वर्ष 2002 में यूपीए ने महाराष्ट्र से चर्चित दलित चेहरे सुशील कुमार शिंदे को भाजपा दिग्गज और राजस्थान के प्रमुख राजपूत नेता भैरों सिंह शेखावत के मुकाबले मैदान में उतारा. वह शुद्ध रूप से जाति आधारित मुकाबला बन गया.
वर्ष 2007 में एनडीए ने विमर्श बदल दिया : उसने उपकुलपति रहे दिग्गज कूटनीतिज्ञ और शैक्षणिक तथा भारतीय विदेश सेवा से जुड़े संस्थानों से जुड़े मुस्लिम प्रत्याशी हामिद अंसारी के मुकाबले मुस्लिम महिला नजमा हेपतुल्ला को उतार दिया. यूपीए के सांस्थानिक उदारवाद के मुकाबले एनडीए ने विविधता का पक्षधर होने की सुविचारित कोशिश की.
यह सिलसिला 2022 में भी जारी रहा, जब यूपीए ने कर्नाटक से एक वरिष्ठ ईसाई नेत्री मार्गरेट अल्वा को उपराष्ट्रपति पद का प्रत्याशी बनाया. महिला और अल्पसंख्यक होने के साथ दक्षिणी राज्य कर्नाटक का होने के कारण यूपीए की प्रतीकवाद राजनीति सुस्पष्ट थी. मार्गरेट अल्वा का मुकाबला राजस्थान के जाट नेता और नरेंद्र मोदी के प्रति घोषित निष्ठावान जगदीप धनखड़ से हुआ.
नतीजा जोरदार रहा : धनखड़ 346 मतों से विजयी हुए. एक बार फिर भाजपा का राज्यसभा में नियंत्रण हो गया. कभी प्रतिनिधित्व को संतुलित करने के लिए जिस जातिगत समीकरण का प्रयोग किया जाता था, अब उसका इस्तेमाल विपक्षी एकता को विभाजित और बाधित करने के लिए किया जाने लगा. वर्ष 2025 में भी यह सिलसिला जारी है.
इंडिया गठबंधन उम्मीद कर रहा है कि सुदर्शन रेड्डी की क्षेत्रीय पहचान एनडीए में फूट पैदा कर सकती है. इसके विपरीत, एनडीए को विश्वास है कि संघ का एक परंपरावादी आदमी धर्मनिरपेक्ष शिविर में सेंध लगा देगा. ये दोनों प्रत्याशी नहीं, शतरंज के दांव हैं, और खेल का उद्देश्य संघवाद को विखंडित करना है.