वेदप्रताप वैदिक का नजरियाः चुनावी बांड पर यह नरमी क्यों?
By वेद प्रताप वैदिक | Published: April 15, 2019 07:20 AM2019-04-15T07:20:12+5:302019-04-15T07:20:12+5:30
बांडों का सबसे तगड़ा प्रावधान यह था कि इन बांडों को बैंकों से खरीदकर पार्टियों को देने वालों का न तो नाम किसी को पता चलेगा और न ही राशि.
सर्वोच्च न्यायालय ने सरकार और भाजपा को अब एक और झटका दे दिया है. उसने कहा है कि सभी राजनीतिक दल 15 मई तक मिलने वाले सभी चुनावी बांडों का ब्यौरा चुनाव आयोग को 30 मई तक सौंप दें. ब्यौरा सौंपने का अर्थ यह हुआ कि किस पार्टी को किसने कितना चंदा दिया, यह चुनाव आयोग को बता दिया जाए. दूसरे शब्दों में चुनावी बांडों के जरिये कालेधन को सफेद करने का जो प्रयास था, उसे अदालत ने पंक्चर कर दिया है.
बांडों का सबसे तगड़ा प्रावधान यह था कि इन बांडों को बैंकों से खरीदकर पार्टियों को देने वालों का न तो नाम किसी को पता चलेगा और न ही राशि. 20-20 हजार के कितने ही बांड खरीदकर आप किसी भी पार्टी के खाते में जमा कर दीजिए. आपसे कोई यह नहीं पूछेगा कि यह पैसा आप कहां से लाए? यह काला है या सफेद? यह देशी है या विदेशी? एक सूचना के मुताबिक लगभग 220 करोड़ रु. के बांड खरीदे गए जिनमें से 215 करोड़ पर भाजपा ने हाथ साफ किया और कांग्रेस के पल्ले सिर्फ 5 करोड़ रु. आए.
कांग्रेस ने फिर भी इन बांडों का विरोध नहीं किया. मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के अलावा सभी पार्टियां इस गाय को दुहने में लगी हुई हैं. माकपा और एक अन्य संस्था ने याचिका लगाकर भ्रष्टाचार के इस नए पैंतरे का विरोध किया है. यह ठीक है कि नाम उजागर होने के डर से अब इन बांडों को कौन खरीदेगा? मैंने 4 जुलाई 2017 को ही लिखा था कि ‘चुनावी बांड जारी करना भ्रष्टाचार की जड़ों को सींचना होगा.’ यही बात मुख्य चुनाव आयुक्त ने उन्हीं दिनों कुछ नरम शब्दों में कही थी.
लेकिन यह सभी पार्टियों की मजबूरी है. वे क्या करें? दुनिया का सबसे खर्चीला चुनाव भारत में होता है. यह चुनाव ही सारे भ्रष्टाचार की गंगोत्री है. इस गंगोत्री में डुबकी लगाए बिना भारत में कोई नेता कैसे बन सकता है? चुनावों का खर्च कम से कम हो, चुनाव-पद्धति को बदला जाए और भारत की राजनीति को भ्रष्टाचार-मुक्त कैसे किया जाए, इस बारे में कई सुझाव हैं लेकिन उसकी चर्चा कभी बाद में करेंगे.