उमेश चतुर्वेदी का ब्लॉगः गांवों में सामूहिक चेतना का पैदा होना सराहनीय
By उमेश चतुर्वेदी | Published: April 21, 2020 06:59 AM2020-04-21T06:59:35+5:302020-04-21T06:59:35+5:30
दुनिया को गिरफ्त में ले चुके कोरोना को लेकर भारत में सबसे बड़ी चिंता यह थी कि अगर इसने देहाती इलाकों में पैर पसार लिए तो फिर भयावह नतीजों के लिए देश को तैयार रहना होगा. भारत में स्वास्थ्य सेवाओं का जो हाल है, उसे लेकर ऐसी चिंता होना स्वाभाविक ही है. वैश्विक स्वास्थ्य मानकों पर दुनिया में दूसरे नंबर पर स्थित देश इटली एवं दुनिया की आर्थिक-सामरिक महाशक्ति अमेरिका की हालत देखकर अगर चिंता नहीं बढ़ती तो ही हैरत होती. वैश्विक स्वास्थ्य मानकों के हिसाब से दुनिया में भारत का 112वां नंबर है. लेकिन करीब 135 करोड़ की आबादी वाले देश में कोरोना वैसी विभीषिका नहीं बन सका है तो इसके लिए लोगों की सामूहिक चेतना को श्रेय देना होगा.
आज हालत यह है कि सुदूर देहाती इलाकों के लोग भी कोरोना से बचाव के लिए जागरूक हो चुके हैं. कई गांवों में लोग या तो खुद पहरा दे रहे हैं या फिर वहां की महिलाओं ने मोर्चा संभाल रखा है. कुछ गांवों के लोगों ने खुद ही साफ-सफाई का इंतजाम अपने स्तर पर जारी रखा है. 24 मार्च को महाबंदी की घोषणा के बाद दिल्ली, मुंबई या ऐसे ही महानगरों से मजदूरों का जो पलायन हुआ, उससे महामारी की आंशका और बढ़ गई थी. लेकिन गांव-गांव के लोगों की जागरूकता इस मामले में भारी पडभारत के बारे में एक अवधारणा है कि यहां के सामाजिक ताने-बाने में सामूहिकता की चेतना व्यापक है. जब भी देश पर विपत्ति आती है, समाज की सामूहिक चेतना जागृत हो जाती है. समाज और राष्टÑ को बचाने की सोच वाली यह चेतना ही है कि जब भी अतीत में भारत पर विपत्ति आई है, वह उनसे पार पा गया है. पिछली सदी के दूसरे दशक के प्लेग की कहानियां इन पंक्तियों के लेखक ने अपने दादा और दादी से सुनी हैं. उन दिनों भी लोग सामाजिक हित में खुद ही अपने प्यारे प्लेग के रोगी को घर से दूर बाहर बगीचे या खलिहान में रख देते थे. तब बेशक परिवार का एक सदस्य उसकी सेवा-सुश्रूषा के लिए वहां रहता था. लेकिन वह व्यक्ति तब तक समाज से कटा रहता था, जब तक कि मरीज पूर्ण रूप से स्वस्थ न हो जाए. कोरोना के दौर में भी वही सामूहिक चेतना पूरे देश में दिख रही है.
आजाद भारत के बारे में कई लोगों की मान्यता रही है कि वह सीमाओं पर विवाद या हमले और क्रिकेट के मामले में ही एक होता रहा है. लेकिन देहाती इलाकों ने साबित किया है कि भारत में लोग हर संकट के समय जागरूक हो उठते हैं और खुद के दम पर भी संकट से जूझने लगते हैं. देहातों की कहानियां एक बार फिर भारतीयता की इसी सामूहिक सोच को ही उजागर कर रही हैं.