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यासनाया पोल्याना का दर्शन और 21वीं सदी में तोलस्तोय

By लोकमत समाचार ब्यूरो | Updated: August 12, 2025 07:19 IST

शिक्षा को ऐसी व्यवस्था में बदल देना क्रूर है, जो बच्चों को स्वतंत्र, आजादख्याल, विचारदर्शी, सृृजनशील नागरिक के रूप में बड़ा करने के बजाय आज्ञाकारी कर्मचारी और ग्राहक बनने के लिए प्रशिक्षित करती है

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सुनील सोनी

बलराज साहनी जब किशोरवय बेटे परीक्षित के साथ यासनाया पोल्याना पहुंचे, तो महात्मा तोलस्तोय को गुजरे तकरीबन 50 साल गुजर चुके होंगे. तब तक नामवर लेखक बन चुके बलराज साहनी ने तोलस्तोय के उस घर-गांव के बारे में लिखा, जहां बैठकर उन्होंने दुनिया को कमाल का खजाना सौंपा था. यह खजाना जीवनदृृष्टि थी. यासनाया पोल्याना में उन्होंने स्कूल खोला, तो वह साल संभवत: 1860 रहा होगा. बच्चों पर औपचारिक शिक्षा के असर को लेकर वे बेहद चिंतित थे और अब होते, तो देखते कि कैसे उनकी चिंता भयावह रूप ले चुकी है.

उनके गुजरने के साल 1910 में यही चिंता महात्मा बनने से पहले ही गांधीजी को दिख गई थी. द. अफ्रीका में तोलस्तोय आश्रम और भारत में ‘नई तालीम’ में इसका असर नजर आता है. गुरुदेव रवींद्रनाथ टैगोर का शांति निकेतन भी इसी चिंता से निकला होगा.

तोलस्तोय शिक्षा के दर्शन को अमल में लाए और यासनाया पोल्याना जर्नल में उसे दस्तावेज बना रहे थे. उस दर्शन की जरूरत सदीभर बाद बेतरह महसूस हो रही है, जब औपचारिक शिक्षा का भीषण ढंग से औद्योगिकीकरण हो गया है. भारत में फिलहाल शिक्षा का बाजार 225 अरब डॉलर का है और दस सालों में यह उतना ही हो जाएगा, जितनी भारत की अर्थव्यवस्था का आकार होने की कल्पना है.

शिक्षा को ऐसी व्यवस्था में बदल देना क्रूर है, जो बच्चों को स्वतंत्र, आजादख्याल, विचारदर्शी, सृृजनशील नागरिक के रूप में बड़ा करने के बजाय आज्ञाकारी कर्मचारी और ग्राहक बनने के लिए प्रशिक्षित करती है, जहां सिर्फ अमीर बनना सपना हो, पर पूरा न हो. सीखने की प्रक्रिया को मापने योग्य और यांत्रिक बना देना दिमागी जकड़बंदी है, जहां दंड और पुरस्कार से सब चीजों को तौला जाता है. यानी नैतिक और बौद्धिक विकास के बजाय स्कूल को नियंत्रण का उपकरण बना देना.

इसलिए तोलस्तोय याद आते हैं, जिनके दौर में संगठित धार्मिक केंद्र शिक्षा को औजार बनाकर बच्चों को स्वतंत्र विचार और आजादख्याली से दूर कर रहे थे. नतीजे में पढ़े-लिखे ‘दास’ पैदा हो रहे थे. औद्योगिकीकरण ने इसे तेज किया और बाजार ने हाथोहाथ लिया.

यासनाया पोल्याना का शिक्षा दर्शन है कि विद्यालय ऐसा हो जहां पढ़ाई-लिखाई स्वैच्छिक हो. शिक्षा का आधार डर नहीं, दिलचस्पी हो. तोतारटंत और अंक ही सबकुछ न हों, बल्कि व्यावहारिकता हो. शिक्षक मार्गदर्शक बनें, न कि निर्देशक. यानी विद्यार्थियों की स्वतंत्रता और संवाद ही शिक्षा का कारण हो. अनुशासन और आदेश के बजाय प्रेरणा वजह बने. भाषा जिंदा हो और सामग्री स्थानीय.

तोलस्तोय की प्रगति की अवधारणा कहती थी कि शिक्षा का दायरा केवल तकनीकी कौशल नहीं, मानवीय मूल्यों का उत्थान हो. जर्नल में उन्होंने शिक्षण विधियों का विश्लेषण किया और अनुभवजन्य साक्ष्यों से दस्तावेज के तौर पर रखा. यासनाया पोल्याना जैसे 12 स्कूलों ने कुछ ही वर्षों में झंझावात पैदा कर दिया था. महात्मा गांधी ‘हिंद स्वराज’ लिख रहे थे, तो उनकी कल्पना में शिक्षा में विकल्प की धारणा भी थी. बाद में उन्होंने ‘नई तालीम’ के आधार का दस्तावेज भी लिखा.

सन 1906 ही वह वक्त था, जब मारिया मोंटेसरी औपचारिक शिक्षा की विफलता को औद्योगिकीकरण के आईने में देख पा रही थीं. बच्चों को शिक्षा देने के नए तरीके खोजे. उसी समय इंग्लैंड में ए.एस. नील शिक्षा के दर्शन को नई आंख से देख पा रहे थे, जिसका नतीजा 1921 में सफ्लॉक में बोर्डिंग स्कूल के रूप में निकला.

1960 में प्रकाशित वह दस्तावेज ‘समरहिल’ के तौर पढ़ा या 2008 की इसी नाम की फिल्म के रूप में देखा जा सकता है. औद्योगिकीकरण और मशीनीकरण के शुरुआती दौर यानी 20वीं सदी में पूरे यूरोप-अमेरिका के बरअक्स भारत में भी शिक्षा सुधार के आंदोलन की अंतर्धारा व्याप्त थी, जिसमें दार्शनिक, विचारक, सुधारक काम कर रहे थे.

यह विचार कि बच्चा स्वाभाविक रूप से जिज्ञासु होता है और यदि उस पर जबरन कुछ न थोपा जाए तो वह स्वयं सीखने की दिशा में अग्रसर होगा, समरहिल, बारबियाना, सडबैरी जैसे विद्यालयों ने साबित किया है. वहां उत्पाद नहीं, बल्कि राजनीतिक-सांस्कृृतिक हस्तक्षेप करनेवाले नागरिक बनते हैं. भारत में भी यह विचार तेजी से पनप रहा है.

टॅग्स :बलराज साहनीएजुकेशनहिस्ट्री
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