भाषा ऐसी सहज और सरल हो कि समझ में आए, राजेश बादल का ब्लॉग
By राजेश बादल | Updated: March 16, 2021 19:57 IST2021-03-16T19:56:48+5:302021-03-16T19:57:49+5:30
सर्वोच्च न्याय मंदिर ने अदालतों को अपने निर्णय सरल और आसान भाषा में लिखने की नसीहत दी है.

अपनी बोली अथवा राष्ट्रभाषा में जिरह करने का वैधानिक अधिकार क्यों नहीं रखता?
विडंबना है. सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीशों को एक हाईकोर्ट के निर्णय की भाषा समझ में नहीं आई. माननीय न्यायमूर्ति को कहना पड़ा कि फैसले में उच्च न्यायालय आखिर क्या कहना चाहता है?
एक अन्य न्यायाधीश ने फैसला पढ़ने के बाद कहा कि उन्हें अपने ही ज्ञान पर संदेह होने लगा है. निर्णय पढ़ते समय अंतिम पैराग्राफ पढ़ते समय उन्हें सिरदर्द होने लगा और सिरदर्द की दवा लगानी पड़ी. इसके बाद इस सर्वोच्च न्याय मंदिर ने अदालतों को अपने निर्णय सरल और आसान भाषा में लिखने की नसीहत दी है.
सवाल पूछा जा सकता है कि विद्वान न्याय-पंडितों को ही अपने तंत्न में कामकाज की भाषा पल्ले नहीं पड़ रही है तो आम आदमी कैसी परेशानियों का सामना करता होगा, जो साल भर कोर्ट-कचहरियों के चक्कर लगाते हुए एड़ियां सपाट कर देता है. वह ऐसे मध्यवर्ग का प्रतिनिधित्व करता है, जिसे कॉन्वेंट में पढ़ने और अंग्रेजी समझने का अवसर नहीं मिला. इस कारण एक मुवक्किल अपनी जेब बेवजह - बेबसी से लुटते हुए देखता रहता है. यह प्रश्न अनुचित नहीं होगा कि एक अधिवक्ता का अंग्रेजी ज्ञान क्या न्यायमूर्ति से अधिक होगा? वह अपनी बोली अथवा राष्ट्रभाषा में जिरह करने का वैधानिक अधिकार क्यों नहीं रखता?
अदालतों की भाषा पर यह पहली टिप्पणी नहीं है. पहले भी न्यायालयीन निर्णयों में इस तरह के भाव झांकते रहे हैं. चंद रोज पहले राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद ने जबलपुर में चिंता का इजहार किया था. राष्ट्रपतिजी स्वयं भी शानदार वकील रहे हैं. उमर भर उन्हें न्यायालयों की अटपटी भाषा से जूझना पड़ा है. उनकी वेदना से कौन असहमत हो सकता है?
राष्ट्र के शिखर पुरुष की भावना का सम्मान केंद्र और राज्य सरकारों का कर्तव्य बन जाता है क्योंकि भारतीय संवैधानिक व्यवस्था में यह पद विधायी अर्थ भी रखता है. प्रसंग के तौर पर याद करना उचित होगा कि पिछले बरस हरियाणा सरकार ने प्रदेश की अदालतों और न्यायाधिकरणों में हिंदी को अधिकृत भाषा लागू करने का निर्देश दिया था.
इसे सर्वोच्च न्यायालय में चुनौती दी गई. याचिकाकर्ता ने बेतुका तर्क दिया कि इस फैसले से बहुराष्ट्रीय कंपनियों को अपने मामले लड़ने में दिक्कत होगी. वे भूल गए कि ये कंपनियां भी तो भारतीय वकीलों को ही अनुबंधित करती हैं. फिर यह चिंता केवल भारत को ही क्यों होनी चाहिए? रूस, चीन, जापान, जर्मनी समेत अनेक देश हैं, जो दशकों से अपनी भाषा में कामकाज कर रहे हैं.
बहुराष्ट्रीय कंपनियों को वहां मुश्किल पेश नहीं आई तो हिंदुस्तान उनकी चिंता में दुर्बल क्यों हो जाए. इसी मामले में अदालत ने यह व्यवस्था दी कि जब ब्रिटिश हुकूमत के दरम्यान अदालतें स्थानीय बोली या भाषा को मान्यता देती थीं तो आज ऐसा क्यों नहीं होना चाहिए. हिंदी भाषी राज्यों में तो राज्य स्तर पर इसकी अनुमति कानूनन दी जा सकती है.
अंग्रेजी राज में महामना मदन मोहन मालवीय ने पुरजोर ढंग से यह मुद्दा उठाया था. तत्कालीन गवर्नर मैकडॉनेल ने इसकी इजाजत दी थी. लेकिन कुछ बरस पहले हिंदी और स्थानीय भाषा के प्रयोग की मांग उठाने वालों को इसी शीर्षस्थ कोर्ट ने झटका भी दिया था.
एक जनहित याचिका पर उन दिनों मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति टी.एस. ठाकुर ने साफतौर पर स्वीकार किया था कि सर्वोच्च न्यायालय की अधिकृत भाषा अंग्रेजी ही है. इसके स्थान पर वह हिंदी को लाने अथवा किसी क्षेत्नीय भाषा को स्वीकार करने का निर्देश केंद्र सरकार को नहीं दे सकता. ऐसा करना वास्तव में संविधान के विरु द्ध होगा क्योंकि वह विधायिका को नहीं कह सकता कि अमुक कानून बनाए.
इस व्यवस्था में कहा गया था कि संविधान की धारा 348 में साफहै कि सुप्रीम कोर्ट की भाषा अंग्रेजी होगी. यदि संसद चाहे तो भाषा बदलने के लिए कानून बना सकती है. इसी तरह हाईकोर्ट की भाषा भी अंग्रेजी ही है. इसमें परिवर्तन करना हो तो राज्यपाल राष्ट्रपति की अनुमति लेकर कर सकते हैं.
भारत में अंग्रेजी हटाओ आंदोलन लगभग साठ बरस पहले जनसंघ और समाजवादियों ने प्रारंभ किया था. तब से आज तक उनके रवैये में कोई परिवर्तन नहीं आया है. जनसंघ अब नए अवतार भारतीय जनता पार्टी के रूप में सरकार चला रहा है. लेकिन अब यह दल भी अदालतों से अंग्रेजी हटाने के पक्ष में नहीं है. छह साल पहले केंद्र सरकार ने सर्वोच्च न्यायालय में हलफनामा दायर करके प्रस्ताव खारिज कर दिया था कि अदालतों की भाषा हिंदी या क्षेत्नीय भाषा कर दी जाए.
खेदजनक तो यह है कि भाजपा के पूर्व अध्यक्ष और केंद्र सरकार में अनुभव के हिसाब से सबसे अव्वल राजनाथ सिंह औपचारिक तौर पर संयुक्त राष्ट्र की भाषाओं में हिंदी को शामिल करने की मांग कई बार कर चुके हैं, लेकिन उनकी अपनी पार्टी इस पर कानून बनाने को तैयार नहीं है.
मोटे तौर पर इस बात से किसी को भी ऐतराज क्यों होना चाहिए कि सर्वोच्च न्यायालय के कामकाज की भाषा हिंदी कर दी जाए और दूसरी भाषा के रूप में अंग्रेजी को बना रहने दिया जाए. इसी प्रकार उच्च न्यायालयों में संबंधित राज्य की अधिकृत प्रादेशिक भाषा को मुख्य भाषा घोषित किया जाए और द्वितीय भाषा के रूप में हिंदी व अंग्रेजी को शामिल कर दिया जाए. नई सदी का हिंदुस्तान यदि अंग्रेजी का मोह नहीं छोड़ना चाहता तो न छोड़े. पर अपनी भाषा या बोली को दुत्कारने का लाइसेंस किसी के पास नहीं होना चाहिए. क्या सत्ता प्रतिष्ठान इसे कभी समझेंगे?