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शोभना जैन का ब्लॉग: भारत से रिश्ते का दारोमदार अब तालिबान पर

By शोभना जैन | Updated: August 27, 2021 13:05 IST

हकीकत यही है कि ज्यादातर अफगान जनता पाकिस्तान के मुकाबले भारत को अपने ज्यादा करीब पाती है. तालिबान शासन के कुछ वर्षो की बात अगर छोड़ दें तो वहां हर सरकार के साथ भारत के रिश्ते दोस्ताना रहे हैं.

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अफगानिस्तान में  गत 15 अगस्त को तालिबान के लगभग पूरे कब्जे के दस दिन बाद भी वहां नई सरकार का स्वरूप तय नहीं हो सका है. एक तरफ जहां तालिबान की महिलाओं और मानवाधिकारों को लेकर कथनी और करनी में भारी फर्क दिख रहा है, वहीं काबुल हवाई अड्डे पर बड़ी संख्या में लोग अफगानिस्तान से बाहर निकलने के लिए जमे हैं. 

इस अराजकता के बीच तालिबान और राजनीतिक नेताओं के बीच सरकार के स्वरूप को ले कर गहन मंत्नणा के दौर जारी है कि अगर मिलीजुली सरकार बनती है तो उसमें कौन-कौन से धड़े शामिल होंगे. भारत और  अफगान मुद्दे से सीधे तौर पर जुड़े अमेरिका सहित दुनिया की नजर अफगानिस्तान में बदलती स्थिति पर लगी है. 

तालिबान का सरपरस्त पाकिस्तान तो नई सरकार के गठन को ले कर प्रत्यक्ष रूप से सक्रिय है ही, वहीं अमेरिका, चीन, रूस और  ईरान जैसे देश इस प्रक्रिया से परोक्ष रूप से जुड़े हुए हैं.

भारत के अफगानिस्तान के साथ प्रगाढ़ सांस्कृतिक, सामाजिक रिश्ते रहे हैं और ‘काबुलीवाला’ का चरित्र भारतीयों के दिलोदिमाग में बसा है. भारत अफगान मैत्री दिलों की मैत्री है.  वह भारत के ‘नेबरहुड फर्स्ट’ का एक अहम हिस्सा है. यही कारण है कि तालिबान के जाने और 2001 में निर्वाचित सरकार के गठन के बाद भारत ने अफगानिस्तान में बड़े पैमाने पर पु्नर्निर्माण कार्य किए, आधारभूत परियोजनाएं शुरू कीं, वहां के संसद भवन के निर्माण जैसे लोकतंत्र को मजबूत करने वाले कदम उठाए. इस समय तीन अरब डॉलर की विकास परियोजनाएं वहां चल रही थीं.

अफगानिस्तान की नवीनतम स्थिति पर विचार करने के लिए सरकार द्वारा बुलाई गई सर्वदलीय बैठक में विदेश मंत्री डॉ. एस जयशंकर ने साफ तौर पर कहा कि सरकार की पहली प्राथमिकता अपने लोगों को वहां से वापस लाने की है. भारत अफगान जनता के साथ है. 

दरअसल हकीकत यही है कि ज्यादातर अफगान जनता पाकिस्तान के मुकाबले भारत को अपने ज्यादा करीब पाती है. तालिबान शासन के कुछ वर्षो की बात अगर छोड़ दें तो  वहां हर सरकार के साथ भारत के रिश्ते दोस्ताना रहे हैं. भारत ने सदैव ही उनकी प्रभुसत्ता, अखंडता और राष्ट्रीयता का सम्मान किया है और अफगानी इसकी कद्र करते हैं. 

अफगानिस्तान में पिछले अनेक वर्षो से चल रही उथल-पुथल में भी भारत का पक्ष यही था कि अफगान नीत, अफगान नियंत्रित सरकार हो, जो वहां  जन आकांक्षाओं के अनुरूप हो. इसीलिए भारत अफगान शांति वार्ता में अतिवादी तालिबान को जोड़े जाने का पक्षधर नहीं था. 

हालांकि बदलते हालात में वह बाद में तालिबान की मौजूदगी वाली शांति वार्ताओं में परोक्ष रूप से जुड़ा भी, लेकिन कहा गया कि भारत को पहले ही तालिबान से संपर्क साधना चाहिए था. लेकिन यह भी सर्व विदित है कि पाकिस्तान ने अमेरिका, रूस नीत इन शांतिवार्ताओं से भारत को दूर रखने की पूरी कोशिश की. 

पाकिस्तान तो तालिबान का सरपरस्त रहा ही, बाद में चीन जिस सक्रियता से उससे सीधा जुड़ा और रूस का भी बदलती परिस्थितियों में तालिबान के प्रति सकारात्मक नजरिया रहा, इन समीकरणों में  भारत की इस ‘दूरी’ को सही डिप्लोमेसी नहीं माना गया. 

बहरहाल, अब स्थिति यह है कि वहां तालिबान नीत सरकार बनने जा रही है, घोर अनिश्चय की स्थिति है और  देखना होगा कि भारत अफगान रिश्तों का क्या स्वरूप होगा. तालिबान ने जिस तरह से शुरू में कहा कि वह अपनी भूमि को किसी देश के खिलाफ आतंकी गतिविधियों के लिए इस्तेमाल नहीं होने देगा, यह अच्छी बात है. 

भारत को यह स्पष्ट संदेश देना चाहिए कि भारत विरोधी किसी गतिविधि को समर्थन नहीं देना तालिबान के हित में है. तालिबान के पिछले शासन के साथ भारत के अनुभव बहुत कड़वे रहे हैं. वर्ष 1999 में भारत की इंडियन एयरलाइंस के विमान का आतंकवादियों ने अपहरण कर लिया था और वे उसे कंधार, अफगानिस्तान ले गए थे. अपने लोगों को छुड़ाने के लिए भारत को तीन पाकिस्तानी आतंकी छोड़ने पड़े थे. लेकिन आज हालात बदले हुए हैं. आज हम मौजूदा हकीकत के साथ सामंजस्य बनाना चाहते हैं. बहरहाल, देखना होगा कि वहां नई सरकार का स्वरूप क्या होता है, अंतरराष्ट्रीय समुदाय का नई सरकार के प्रति क्या रुख रहता है. अगर वे सही मायने में सरकार चलाना चाहते हैं तो खस्ताहाल आर्थिक स्थिति को ङोल रहे अफगानिस्तान के लिए उन्हें सभी देशों को साथ लेकर चलना होगा. 

भारत उसकी विकास यात्रा में एक भरोसेमंद साथी रहा है. फिलहाल भारत को अफगानिस्तान की स्थिति के थोड़ा स्थिर होने का इंतजार करने के साथ ही मानवीय आधार पर अफगान जनता से संपर्क बनाए रखना चाहिए और इंतजार करना चाहिए कि वहां तालिबान नीत सरकार का कैसा स्वरूप रहता है. क्या वहां 1.0 से अलग तालिबानी हैं? 

शुरुआती संकेतों से तो ऐसा नहीं लग रहा है लेकिन फिलहाल उपाय ‘वेट एंड वाच’ ही है. भारत को हालात पर पैनी नजर रखते हुए, अपने सुरक्षा हितों का ख्याल रखते हुए, अफगानिस्तान से सक्रियता से अपने को जोड़े रखना चाहिए. 

दो देशों के बीच आपसी भरोसे के रिश्तों की यह लंबी पारी है. खास तौर पर बेहद मजबूत रिश्ते ऐतिहासिक काल से चले आ रहे हैं. भारत के नजरिये की बात करें तो रिश्ते आगे बढ़ाने का दारोमदार अब तालिबान पर है.

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