राजनीतिक मारपीट के आगे बेबस सरकार?, शिवसेना विधायक संजय गायकवाड़ बोले- माफी नहीं मांगेंगे
By Amitabh Shrivastava | Updated: July 12, 2025 05:25 IST2025-07-12T05:25:36+5:302025-07-12T05:25:36+5:30
दुर्भाग्य यह है कि कोई भी राज्य सरकार चाहे कांग्रेस-राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी (राकांपा) या भाजपा-शिवसेना की हो, वह कार्रवाई के नाम पर ढुलमुल रवैया अपनाती रही है.

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महाराष्ट्र विधानसभा के विधायक निवास की कैंटीन में खराब खाना दिए जाने पर मारपीट करने वाले शिवसेना विधायक संजय गायकवाड़ का स्पष्ट कहना है कि वह माफी नहीं मांगेंगे और यदि उनके खिलाफ कार्रवाई होगी तो अधिक से अधिक असंज्ञेय अपराध (एनसी) की होगी. यह सिद्ध करता है कि अब हिंसा के परिणामों का पहले से आकलन भी किया जाने लगा है. यह पहली और आखिरी घटना नहीं है. राज्य में पिछले लगभग दो-तीन दशक से अधिक समय में राजनीतिक दलों के कार्यकर्ताओं का हिंसा पर उतारू होना सामान्य हो चला है. पहले उनकी बहादुरी के किस्से सुनाए जाते थे.
अब हिंसा करने के तरीकों को मंच से बताया जाने लगा है. दुर्भाग्य यह है कि कोई भी राज्य सरकार चाहे कांग्रेस-राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी (राकांपा) या भाजपा-शिवसेना की हो, वह कार्रवाई के नाम पर ढुलमुल रवैया अपनाती रही है. कानून-व्यवस्था के नाम पर मामला पुलिस को सौंप देने के बाद राजनीतिक दबाव के बीच जिस सीमा तक कार्रवाई हो पाती है, वह कागजों पर दर्ज हो जाती है.
लेकिन आज तक किसी मामले में बड़े फैसले की नौबत नहीं आई. हालांकि सभी घटनाएं खुलेआम हुईं. कैमरे से लेकर सैकड़ों लोगों की आंखों के सामने घटनाक्रम दर्ज हुआ. फिर भी बड़ी सजा या सरकारी नुकसान के नाम पर कहीं कोई वसूली तक नहीं हुई. डॉक्टर की कथित तौर पर ठीक से इलाज नहीं करने पर पिटाई कर दो, शिक्षक पर कुछ आरोप लगाकर पीट दो,
सरकारी अथवा अधिकारी-कर्मचारी से शिकायतों के नाम पर हाथ उठा दो, भाषा के नाम पर व्यापारी को मारो या फिर कोई बहाना ढूंढ़ कर उद्यमी पर हमला बोल दो, धर्म-जाति-संस्कृति के नाम पर जहां चाहो वहां हंगामा कर दो बस थोड़ा शोर-शराबा होगा. अखबारों की सुर्खियां बनेंगी. पुलिस कागजी कार्रवाई करेगी. अदालत में मामला जाएगा.
कुछ साल सुनवाई होगी. अंत में राजनीति के नाम पर मामला रफा-दफा हो जाएगा. वैसे जब घटनाएं होंगी, तब सरकार और प्रशासन दोनों ही गंभीर नजर आएंगे. बाद में मामले अपने आप दब जाएंगे. सरकारें दावा करती हैं कि इस तरह के हिंसक मामलों में कुछ कानूनी प्रावधानों को मजबूत कर सुरक्षा प्रदान की गई है.
किंतु जब हमलावरों के हौसले बुलंद दिखते हैं तो साफ समझ में आता है कि कानून के हाथ लंबे जरूर हैं, लेकिन हिंसा करने वालों के लिए छोटे हैं. अनेक प्रकरणों में प्रशासन के समक्ष यह सिद्ध करने की कोशिश की जाती है कि मारपीट की घटनाएं कितनी जायज थीं. उस समय कोई यह कहने का साहस नहीं जुटा पाता कि गलती, गड़बड़ी, शिकायत, भेदभाव, अपराध और अन्याय जैसे सभी मामलों के लिए कानून में प्रावधान हैं. जिनके आधार पर अहिंसक लड़ाई लड़ी जा सकती है. दरअसल राजनीतिक हिंसा के पीछे राजनेताओं का अपना-अपना स्वार्थ है.
मतों की राजनीति में पक्ष और विपक्ष दोनों अपना फायदा देखने में जुट जाते हैं. कुछ वर्ष पहले जब महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना (मनसे) का उदय हुआ और उसने व्यापक स्तर पर हिंसा की, तब कांग्रेस-राकांपा की सरकार ने नरम रुख अपनाते हुए रोकथाम के लिए ठोस कार्रवाई नहीं की. उन घटनाओं से जुड़े किसी भी व्यक्ति को बड़ी सजा नहीं हुई.
वहीं कांग्रेस-राकांपा को राजनीतिक रूप से शिवसेना को कमजोर करने में लाभ हुआ. दोनों दलों को लोकसभा और विधानसभा चुनावों में अनेक स्थानों पर मतविभाजन के कारण विजय मिली. हालांकि हिंसा करने वालों को कोई बड़ा फायदा नहीं हुआ, सिवाय इसके कि उनकी एक पहचान बन गई. अलबत्ता यह भी देखने में आया कि जो मुद्दे मनसे ने आक्रमक ढंग से उठाए,
उनका जनमानस पर डर ही सही, मगर असर दिखने लगा. अनेक संस्थाओं ने अपने बोर्ड कम से कम दो भाषाओं में कर लिए. आश्चर्यजनक रूप से हिंसा की घटनाओं के दौरान संबंधित दल का कोई भी नेता निंदा करने अथवा रोकथाम की दिशा में आगे नहीं आया. इसके विपरीत कई ने घटनाओं को सही ठहराने के लिए बयानबाजी जरूर की.
माना जा सकता है कि विपक्ष के नेताओं को अपनी सक्रियता दिखाने के लिए कुछ न कुछ करते रहना पड़ता है, लेकिन सत्ता पक्ष का हिंसक घटनाओं से मुंह छिपाना राजधर्म के विपरीत नजर आता है. सभ्य समाज में हिंसा किसी के साथ भी हो, वह अस्वीकार्य है. कानून-कायदे तो प्राणियों से लेकर जीव-जंतुओं तक के लिए हैं. फिर उन पर सख्ती से अमल में किस बात का संकोच किया जाता है.
राजनीति का जब समूचा लक्ष्य जनसमर्थन के साथ जनसेवा होता है तो उसमें हिंसा को कोई स्थान कैसे मिल सकता है. अक्सर राजनेताओं और समाज के प्रतिनिधियों से समाज में शांति का वातावरण तैयार करने में सहायता की उम्मीद की जाती है. किंतु वही हिंसा का माध्यम बनेंगे तो आम आदमी से क्या अपेक्षा की जानी चाहिए?
राज्य सरकार ने डॉक्टरों-अस्पतालों के लिए कानून बनाया है. सरकारी अस्पतालों की सुरक्षा बढ़ाई है. फिर भी घटनाएं सामने आ ही रही हैं, जो यह साबित करती हैं कि हिंसा पर उतारू लोगों को कानून का डर नहीं है. चूंकि मामूली कार्रवाई के बाद जमानत मिल जाती है, इसलिए राजनीति में कद बढ़ाने के लिए इतना खतरा उठाना आवश्यक है.
किंतु इस भावना को जानते हुए राज्य सरकार की बेबसी राजनीतिक है. वह किसी बड़ी कार्रवाई से अपनी तटस्थ भूमिका को बदलना नहीं चाहती है. अन्यथा दुकान तोड़ने, अस्पताल में मारपीट, टोल नाकों पर हंगामा करने वाले आदि सही तरह से कानून की गिरफ्त में लिए जाएं और उनके खिलाफ ऐसी ठोस कार्रवाई हो,
जो दूसरों के लिए सबक बने तो आगे की घटनाएं अपने आप नियंत्रित हो जाएंगी. वर्ना सरकार के ढुलमुल रवैये से कभी गरीब, कभी अमीर, कहीं शिक्षित, कहीं अशिक्षित सहित अनगिनत लोग पिटते रहेंगे और उन्हें गिनती के पीटने वाले प्रत्यक्ष राजनीतिक और अप्रत्यक्ष सरकारी संरक्षण में घूमते रहेंगे.