शरद जोशी
उत्तर प्रदेश के समाचार हैं कि काशी-निवासी जनता के प्रतिनिधियों ने निर्णय कर लिया है, वे काशी को मक्षिकाविहीन कर देंगे. निर्णय स्वागतयोग्य है. पर कुछ निष्कर्ष निकलते हैं इस निर्णय से. सबसे पहला निष्कर्ष है कि काशी के पार्षद में साहस का उदय हुआ है. अब तो जो काम वे करते थे और जिससे सार्वजनिक रूप से इनकार करते थे, वही अब खुलेआम हो- काशी की नगरसेविका मक्खियां मारेंगी.
साहस स्वागतयोग्य होता, खास कर जब मक्खी मारने का प्रश्न हो. पर मक्खी मारना उतना आसान नहीं. यह भी एक कला है. इस फन के उस्ताद हैं वे, जो सचिवालयों में दरवाजे के पास बैठे अजर्दार और सरकार के बीच पड़ी चिलमन की रक्षा करते हैं. मध्यभारत उत्तर प्रदेश से उपकृत है. वहां के कई बुजुर्गो ने मध्यभारत शासन के अनेक महत्वपूर्ण पदों के भार उठाए हैं. कृतज्ञता स्वरूप, मध्यभारत शासन को चाहिए कि काशी नगरसेविका के कार्यालय में अनुभवी मक्खीमारों की कमी हो तो हमारे ‘एक्सपर्टो’ को ‘लेंट सर्विसेज’ पर भेजें.
उक्त मक्खीमार आंदोलन ने एक और बात स्पष्ट कर दी है. मक्खी मारना बड़ा महंगा शगल है. काशी नगरसेविका इस कार्य में चालीस हजार रुपया खर्च करने वाली हैं. इस विशाल औद्योगिक स्तर के साथ ही केवल हाथ से मक्खी मारने के गृहोद्योग को भी योजना में सम्मिलित किया गया है अथवा नहीं, अब तक स्पष्ट नहीं किया गया है.
उक्त सर्वथा स्वागतायोग्य आंदोलन के विरुद्ध, ज्ञात हुआ है, केवल एक ही आपत्ति उठाई गई है - आवाज उठानेवाले संभवत: हलवाई जमात के हैं. इनका कथन है कि उक्त आंदोलन का मिठाई व्यवसाय पर अनिष्ट प्रभाव पड़ेगा. पहले छटांक भर मिठाई के साथ उतनी ही मक्खियां तौलकर आधा पाव के पैसे आते थे. अब क्या होगा? संभवत: मिठाइयों का जायका भी उतना बढ़िया न रहेगा.
विरोधी पक्षों ने आवाज उठाई है कि उक्त आंदोलन जनहित विरोधी है. उनकी दलील है कि कांग्रेसी लोग धीरे-धीरे जनता के विभिन्न मनोरंजनों को छीनते जा रहे हैं. किसी भी नगर को मक्खीविहीन कर देना उक्त नीति की पराकाष्ठा है. पहले कुछ काम न होने पर नागरिक मक्खियां मारा करते थे. अब यह शगल भी कांग्रेसी छीनना चाहते हैं.
भले ही सरकार सबको नौकरी न दे- पर मक्खी मारने से भी महरूम रखने की व्यवस्था सरासर अन्याय नहीं तो क्या है? यदि यही नीति जारी रही तो अंतत: जनता को केवल एक ही शगल बचा रहेगा- मन मारना. क्योंकि झख मारना तो साहबों और सामिषभोजियों के लिए ही रिजर्व है.