जब-जब उठता है धारा 377 का मुद्दा, वे दिन याद आते ही आज भी हो जाता हूं परेशान
By लोकमत समाचार हिंदी ब्यूरो | Updated: January 10, 2018 16:07 IST2018-01-10T14:47:46+5:302018-01-10T16:07:53+5:30
पहले तो वह मुझे केवल मैसेज करते थे, लेकिन मैं बेटे से बेबी कब बन गया पता ही नहीं चला।

section 377
हरिनाथ (बदला हुआ नाम)
जब से धारा 377 को लेकर सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले पर पुनर्विचार करने के लिए कहा है तब से देश में हर कोई इस पर चर्चा कर रहा है। हर कोई अपने अनुसार इस मुद्दे को लेकर सोच रहा है और विचार व्यक्त कर रहा है। कुछ लोगों का मानना है कि समाज बदल रहा है, इस वजह से कोर्ट को उन्हें अपनी जिंदगी जीने का अधिकार देना चाहिए। कई मानते हैं कि इससे समाज में गलत मैसेज जाएगा और इससे सबसे ज्यादा बच्चे प्रभावित होंगे जो एक अलग ही धारा में बहेंगे।
खैर, ये हो गई आम राय, लेकिन कभी इसके बारे में किसी पीड़ित से पूछा गया कि इस तरह की स्थिति में वह कैसा महसूस करता है? हां! मैं बता रहा हूं कैसा महसूस करता है। वह न तो किसी को बता पाता है कि उसके साथ हुआ क्या और अगर बता भी दिया तो ये दिमाग में घूमता रहता है कि समाज क्या प्रतिक्रिया देगा, वह क्या सोचेगा, धारणा क्या बनाएगा। ये सवाल उमड़-उमड़कर आते रहते हैं।
इस तरह की चीजें महसूस कर चुका हूं। जरूरी नहीं है कि जिसे आप पसंद कर रहे हैं वह आपको भी पसंद कर रहा हो। कई बार ऐसा महसूस होता कि ऐसी समस्या के बारे में किसी को बताया जाए तो समाज कैसी प्रतिक्रिया देगा, इस तरह के लोगों को मना कर दो उसके बावजूद परेशान करते हैं।
इस स्थिति में एक आम लड़का जो इस तरह का नहीं है उसको कैसा महसूस होता होगा ये मेरे साथ हो चुका है, तो शायद मैं इसको अच्छे से बता सकता हूं। कुछ समय पहले मेरे एक जानने वाले (नाम मैं नहीं उजागर कर सकता) ने मेरे साथ ऐसा किया था। उनकी उम्र कोई कम नहीं थी वो 50 से ऊपर ही रहे होंगे और मेरे अभिवावक जैसे थे। तब मेरी उम्र 21 साल थी। मैं चाहकर भी उन्हें कुछ गलत नहीं बोल सकता था।
दरअसल, हुआ कुछ इस तरह से था कि पहले तो वह मुझे केवल मैसेज करते थे, लेकिन धीरे-धीरे उनके मैसेज करने का रूप अचानक से बदल गया। मैं उनके लिए बेटे से बेबी बन गया। पहले तो मुझे ये सब सामान्य लगा, लेकिन मुझे अचानक से असहज हुआ तब मैंने इस पर ध्यान देना शुरू किया, मेरे साथ उनके बदलते बात करने के तरीकों ने मुझे मानसिक तौर पर काफी परेशान किया। मेरी उस समय की मनोस्थिति मेरे सिवाए कोई और समझ भी नहीं सकता, मैं मानसिक तौर पर शोषित हुआ था।
मैं खुद ये लोगों को आज भी बताने से डरता हूं। आज अगर मुझसे पूछा जाए 377 को मान्य किया जाए तो शायद मुझे सबसे पहले खुद का शोषण होना याद आएगा, जो मुझे आज भी अंदर तक हिला देता है, कि किस तरह से मैंने उस समय को झेला, लोग मेरा मजाक ना बनाए इसका भय आज भी है। मैं उस श्रेणी का नहीं हूं इसलिए मेरा ये डर जायज भी है।
आज के जमाने में जिस सोशल मीडिया को लोग अपनी बात रखने के प्रयोग में ले रहे हैं मैं उसके जरिए भी शोषित हुआ हूं। याद है मुझे वो मेरी फेसबुक की फोटो पर भी कमेंट करते थे। इस तरह के कमेंट कोई प्रेमी या प्रेमिका अपने प्यार की फोटो पर भी नहीं करता। मैं उन कमेंट को शायद साझा ना कर पाऊं, लेकिन वो कमेंट इस तरह के थे कि मुझे डिलीट करने पड़े थे। इन सभी से मैं इस कद्र परेशान हो गया था कि मैंने उनको फेसबुक पर ब्लॉक तक कर दिया था।
इसके बाद जो हुआ वो मेरे लिए खासा चौंकाने वाला रहा। उन्होंने एक नई फेसबुक आईडी बनाकर मुझे उससे रिक्वेस्ट भेजी। उस समय रिक्वेस्ट को देखने के बाद मैं पूरी तरह से अपने प्रति उनकी भावनाओं को समझ चुका था, जिन्होंने मुझे मानसिक तौर पर परेशान किया। इसके बाद कुछ ऐसा हुआ कि मैं आज पूरी तरह से उनके टच से दूर हूं और शायद कभी उनके टच में रहना भी नहीं चाहूंगा।
अगर 377 को मान्यता मिलती है तो फिर से कोई कल को मेरे साथ खुलेतौर पर ऐसा करेगा तो शायद मेरे लिए यह सब सहने के बाहर हो जाएगा। बराबरी का हक मिलना अच्छा है, मिलना चाहिए लेकिन वो बराबरी किसी दूसरे का शोषण करे ये भी तो ठीक नहीं है। जो भी इसके शिकार होते हैं वह 377 की मान्यता को शायद स्वीकार नहीं कर पाएं, क्योंकि मैं खुद इसको स्वीकार करने से डर रहा हूं।
वहीं, जिस तरह से समलैंगिता के लिए अभिव्यक्ति की आजादी मांगी जा रही है, उस पर हर कोई ज्ञान बघार रहा है। लेकिन, ऐसे ज्ञानियों से पूछा जाए कि अगर उनके साथ कोई इस तरह का बर्ताव करे, जो वो न चाह रहे हों तो ऐसी स्थिति में क्या करेंगे। शायद यही कहेंगे कि उसके खिलाफ कार्रवाई करवाएंगे। हां ये एक तर्क तो हो सकता है, लेकिन समाधान नहीं।
मान लीजिए, कोर्ट ने इसे कानूनी मान्यता दे दी तो क्या इसे अभिव्यक्ति की आजादी कही जाएगी? हमारी हमेशा से आदत रही है कि हम हर एक मुद्दे को एकतरफा पहलू से ही देखते हैं। क्या हमने कभी दूसरे पक्ष के बारे में सोचा है? क्या यहां हमारी अभिव्यक्ति का हनन नहीं हो रहा है?
(लेखक पत्रकार हैं। नाम न देने की शर्त पर उन्होंने अपना अनुभव साझा किया।)