संजय झाला का ब्लॉग: हास्य-व्यंग्य का पहला ‘शो-मैन’ कहा जा सकता है शरद जोशी को
By लोकमत न्यूज़ डेस्क | Published: May 21, 2021 05:34 PM2021-05-21T17:34:52+5:302021-05-21T17:37:17+5:30
शरद जोशी, अर्थात मालवा के मध्यमवर्गीय परिवार का वह व्यक्ति, जिसने साहित्यिक मान्यताओं में ‘झोपड़पट्टी’ का दर्जा रखने वाली व्यंग्य विधा को साहित्य में ‘व्हाइट हाउस’ जैसी शक्ति बना दिया. उन्होंने ब्रह्मा की तरह नए पात्रों और चरित्रों का निर्माण किया और उनसे मनचाही क्रीड़ा की.
सृजन के लिए उन्हें जिस चीज की जरूरत होती थी, वह थी; थोड़ी धूप, ठंडी हवा, बढ़िया कागज और एक ऐसी कलम, जो बीच में न रुके और साथ में एक-आधा कप चाय भी. यह एक कालजयी रचना की गारंटी थी. वे दरबारों को दूर से ही हाथ जोड़ते थे, और मौका आने पर दो-दो हाथ भी करते थे.
उन्होंने एक आम आदमी का आदर्श जीवन चुना. वह आम आदमी; जो देश के सुख-दुख में बतौर नागरिक हिस्सेदारी करता है, रोटी कमाता है, बच्चे पैदा करता है, लाइन में लगकर टिकट खरीदता है, हंसता है -हंसाता है, यात्राएं करता है और सतत पढ़ता है.
शरदजी जीवन और लेखन में श्रीकृष्ण के अनुयायी प्रतीत होते हैं. वे स्पृहाओं में नि:स्पृह हैं. आसक्तियों में अनासक्त हैं. शरदजी का लेखन क्रोध, उत्तेजना, घृणा, तिलमिलाहट और पक्षपात से विहीन है. किसी भी स्थिति में वे अपने लेखक के साथ न्याय के लिए प्रतिबद्ध हैं और यह न्यायिक प्रतिबद्धता तटस्थता-निष्पक्षता से ही प्राप्त होती है.
उनका व्यंग्य लेखन हास्य प्रधान है और व्यंग्यकार की बौद्धिक प्रतिभा से ही हास्य उत्पन्न होता है. हास्य के लिए दूरदृष्टि-गूढ़ दर्शन, कलम-कला का लाघव और नैसर्गिकता की आवश्यकता होती है. बिना इन भावों के जीवन में हास्य की स्थिति-उपस्थिति वैसी ही है, जैसे ‘हास सदैव बसे मन माहिं, ताहि ढूंढ रहे जग माहिं’.
हास्य के संदर्भ में शरद जोशी का दृष्टिकोण ‘हास्य रस की अफसोस शाखा’ में दृष्टिगत होता है. वे साली- भाभी पर लिखे फूहड़ हास्य का घोर विरोध करते हैं. उनका हर आलेख पांडित्यपूर्ण है. उनके हास्य-व्यंग्य में करुणा की अंतर्धारा और संवेदनाओं का विराट आकाश है.
उन जैसा लेखकीय साहस-कौशल शायद ही अन्य किसी में देखने को मिले. ‘परिक्रमा’ से ‘प्रतिदिन’ तक उनके सृजन संसार को देखने पर ज्ञात होता है कि उन्होंने लेखन के वो विषय चुने, जिन पर लिखने का साहस शायद ही कोई कर पाता है.
फिल्मी भाषा में कहूं तो शरद जोशी हास्य-व्यंग्य-प्रहसन के भारत के पहले ‘शो-मैन’ थे. शब्द, भाव, भाषा, स्थिति, ध्वनि और अनुकृति के साथ दिव्य लेखन एवं भव्य वाचिक प्रस्तुतिकरण के ट्रेंडसेटर थे. उनके पास लेखन के दो अमोघ अस्त्र सदैव विद्यमान थे; नाटकीयता और किस्सागोई. नाट्य कर्म की गहरी समझ के कारण ही 1979 में उन्होंने दो कालजयी नाटक ‘एक था गधा उर्फ अलादाद खां’ और ‘अंधों का हाथी’ हमें दिए.
रंगकर्म की विश्लेषणीय क्षमता के कारण ही उन्होंने फिल्मों और दूरदर्शन के लिए अविस्मरणीय पटकथा और संवाद लिखे. ‘गोधूलि’, ‘छोटी सी बात’, ‘चोरनी’ और ‘उत्सव’ जैसी क्लासिक फिल्मों की पटकथा और ‘ये जो है जिंदगी’, ‘विक्र म-बेताल’ और ‘वाह जनाब’ जैसे लोकप्रिय धारावाहिक लिखे.
यह कहना अतिशयोक्ति पूर्ण नहीं होगा कि विश्व हास्य-व्यंग्य की निधि में इतना विविधतापूर्ण लेखन शायद ही किसी के पास हो. डॉ. बालेंदु शेखर तिवारी का यह कथन इस आशय की पुष्टि करता है कि भाषा-शैलीगत उपकरणों का वैविध्यपूर्ण प्रयोग, संगोत्रीय विधाओं का आवाहन, निबंध, कथा सूत्र, पत्र, डायरी, संस्मरण, जीवनी, आत्मकथा, साक्षात्कार, पैरोडी या आंखों देखा हाल आदि शैलियों का इतना सजग इस्तेमाल शायद ही किसी हास्य-व्यंग्यकार ने किया हो.
यह अत्यंत विरल है कि कोई अपनी शैली, भाषा एवं लिखे की पैरोडी करके उसका भी मखौल उड़ाए. आज 21 मई को उनकी जयंती पर उन्हें शत-शत नमन.