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राजेश बादल का ब्लॉग: भाजपा के खिलाफ मौजूदा समय में सियासी एकता मुश्किल है

By राजेश बादल | Published: November 02, 2021 9:54 AM

विपक्षी पार्टियां भाजपा को हटाना चाहती हैं और आपस में लड़ने का अवसर भी गंवाना नहीं चाहतीं. वर्तमान राजनीति में ऐसा कोई स्वीकार्य शिखर पुरुष नहीं है, जो विपक्ष को एक साथ लाने की जिम्मेदारी उठा सके. 

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इतिहास अपने को दोहरा रहा है. एक जमाने में सारी विपक्षी पार्टियां जिस तरह कांग्रेस के खिलाफ व्यवहार किया करती थीं, मौजूदा दौर में भाजपा के विरोध में वे कमोबेश वैसा ही बर्ताव कर रही हैं. यह पार्टियां भाजपा से आतंकित हैं और उसकी आक्रामक शैली का उत्तर देना चाहती हैं लेकिन अपने सियासी स्वार्थो को भी नहीं छोड़ना चाहतीं. 

कह सकते हैं कि विपक्ष एक तरह से संक्रमण काल का सामना कर रहा है. कांग्रेस से मुकाबले में जयप्रकाश नारायण ने विपक्षी दलों को एक करने का असंभव सा काम कर दिखाया था, लेकिन वर्तमान राजनीति में ऐसा कोई स्वीकार्य शिखर पुरुष नहीं है, जो यह जिम्मेदारी उठा सके. 

वैसे जयप्रकाश नारायण से अधिक असरदार भूमिका तो खुद इंदिरा गांधी ने ही निभाई थी. उनकी वजह से ही अधिकांश दल एक झंडे तले आ गए थे. सबका मकसद एक था-इंदिरा गांधी को सत्ता से बाहर करना. जयप्रकाश नारायण तो मात्र उत्प्रेरक थे. आज का विपक्ष भी प्रधानमंत्री मोदी और उनकी सरकार को परास्त करना चाहता है मगर उसके पास जेपी जैसा कोई उत्प्रेरक नहीं है, जो अपनी राजनीतिक महत्वाकांक्षा अलग रखकर लोकतंत्र के हित में जिम्मेदार विपक्ष को गढ़ने का काम कर सके. इस नजरिये से मुल्क का यह अंधकार युग भी कहा जा सकता है.

कुछ दिनों से भारतीय प्रतिपक्षी पार्टियां एक-दूसरे पर जहर बुझे तीरों का इस्तेमाल कर रही हैं. वे भाजपा को हटाना चाहती हैं और आपस में लड़ने का अवसर भी गंवाना नहीं चाहतीं. खास बात यह है कि सियासी जंग में उनका लक्ष्य अब भाजपा नहीं, बल्कि कांग्रेस हो गया है. वे हटाना तो भाजपा को चाहती हैं मगर मोर्चा कांग्रेस के खिलाफ खोल रही हैं. गोया सब कुछ इस वयोवृद्ध पार्टी का किया-धरा हो. 

बंगाल में विधानसभा चुनाव जीतने के बाद मुख्यमंत्री ममता बनर्जी खूंखार हो गई हैं. वे तृणमूल कांग्रेस को पश्चिम और उत्तर-दक्षिण में चक्रवर्ती पार्टी बनाना चाहती हैं. इस सियासी अश्वमेध में वे सरपट दौड़ रही हैं. शनिवार को उन्होंने गोवा में बयान दिया कि देश की सबसे पुरानी कांग्रेस पार्टी गंभीर नहीं है और वह फैसले लेने में देरी करती है. लेकिन उन्होंने यह भी कहा कि वे किसी अन्य दल के कामकाज में दखल नहीं देतीं. पर यह देश उनसे सवाल पूछने का हक भी रखता है कि पच्चीस साल में वे अपनी क्षेत्रीय पार्टी को राष्ट्रीय स्तर का क्यों नहीं बना पाईं? उन्हें किसने रोका था? राष्ट्रीय स्तर पर अपने पंख फैलाने का निर्णय लेने में उन्होंने पच्चीस बरस क्यों लगाए? जिस दल को वे मुद्दतों पहले छोड़ चुकी हैं, उसकी आंतरिक संरचना की चिंता किस नैतिक आधार पर कर रही हैं? 

इससे पहले उनकी पार्टी के साथ प्रोफेशनल फीस लेकर काम कर रहे प्रशांत किशोर ने भी कांग्रेस पर कमोबेश ऐसे ही आरोप लगाए थे. उन्होंने कहा था कि राहुल गांधी को इसका अहसास नहीं है कि भाजपा दशकों तक रहेगी. यह बेतुका तर्क था. जो व्यक्ति हर चुनाव में दल और राज्य बदल देता हो और करोड़ों में फीस लेता हो, उसे अचानक कांग्रेस में ढेरों दोष क्यों और कैसे नजर आने लगे, इसकी पड़ताल भी आवश्यक है. 

प्रशांत किशोर पहले गुजरात में भाजपा, फिर जदयू, द्रमुक और तृणमूल कांग्रेस के साथ व्यावसायिक आधार पर काम करते रहे हैं. कुछ समय पहले उन्होंने कांग्रेस में प्रवेश के लिए आलाकमान के द्वार पर दस्तक दी. वे बिहार में कांग्रेस नेता के रूप में फ्रीहैंड चाहते थे. जब कांग्रेस ने इनकार कर दिया तो अचानक हमलावर हो गए.

देश के सबसे बड़े सूबे उत्तर प्रदेश में विधानसभा चुनाव सिर पर हैं. लखीमपुर खीरी हादसे के बाद कांग्रेस ने अपने पुश्तैनी राज्य में लुप्त हो चुकी जड़ों को खोजने का काम शुरू किया और प्रियंका गांधी ने उसमें तनिक सफलता हासिल की तो समाजवादी पार्टी के मुखिया अखिलेश यादव की पेशानी पर बल पड़ गए. अपनी रजत जयंती मना चुकी यह पार्टी अभी भी प्रदेश के बाहर अपने पांव नहीं पसार पाई है. 

अखिलेश यादव अतीत में कांग्रेस के साथ गठबंधन करके चुनाव लड़ चुके हैं. अब उन्हें भाजपा और कांग्रेस में कोई अंतर नहीं दिखाई देता. उधर, प्रियंका गांधी भी सपा और भाजपा पर अपने तेवर सख्त करती जा रही हैं. राकांपा सुप्रीमो शरद पवार भी पिछले दिनों कांग्रेस पर बेहद आक्रामक थे. उन्होंने इस बुजुर्ग पार्टी की तुलना ऐसे जमींदार से कर डाली थी, जो अपनी जमीन के साथ-साथ हवेली भी नहीं बचा सका. 

अनोखी बात है कि जिस पार्टी के साथ वे साझा कार्यक्रम के तहत मिलकर महाराष्ट्र में सरकार चला रहे हैं, उसी की आलोचना में कसर भी नहीं छोड़ रहे हैं. इसके अलावा उनका दल दस साल तक यूपीए की सत्ता के दरम्यान केंद्र सरकार में शामिल रहा है. यह कैसे हो सकता है कि यश की पूंजी बांटने में सहयोगी रहे और अपयश के दिनों में पल्ला झाड़कर अलग हो जाए. क्या मतदाता नहीं देख रहे हैं कि प्रत्येक चुनाव में राकांपा कांग्रेस के साथ ही गठबंधन करती है.

विडंबना यह है कि जिस लोकतांत्रिक समाज की रचना वैचारिक आधार पर होनी चाहिए, उस पर किसी दल का ध्यान नहीं है. वे मध्यकाल के छोटे-छोटे रजवाड़ों की तरह व्यवहार कर रहे हैं, जो समय-समय पर अपने स्वार्थो के चलते एक-दूसरे से युद्ध करते रहते थे. इन प्रादेशिक पार्टियों में आंतरिक लोकतंत्न भी नहीं है. 

इन प्रादेशिक दलों का शिखर पुरुष स्वयं को राजा मानकर सबसे दरबारी होने की अपेक्षा करता है. एक राष्ट्र राज्य के रूप में गणतांत्रिक हिंदुस्तान के अस्तित्व के लिए यह अत्यंत घातक है. लेकिन क्या आज के राजनीतिक दल इस कड़वे सच को स्वीकार करेंगे? शायद अभी नहीं. जिस दिन इन पार्टियों के शिखर पुरुष नहीं रहेंगे, उस दिन वे किस धारा में विलुप्त हो जाएंगी- कोई नहीं जानता.

टॅग्स :BJPममता बनर्जीइंदिरा गाँधीजयप्रकाश नारायणअखिलेश यादवसमाजवादी पार्टीप्रियंका गांधीPriyanka Gandhi
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