राजेश बादल का ब्लॉग: अनुच्छेद 370, कश्मीर का मसला और हमारा इतिहास बोध

By राजेश बादल | Updated: June 15, 2021 10:27 IST2021-06-15T10:27:27+5:302021-06-15T10:27:27+5:30

कांग्रेस के एक बड़े नेता ने कुछ दिन पहले कहा कि यदि उनका दल सत्ता में आया तो जम्मू-कश्मीर में अनुच्छेद 370 फिर बहाल करने पर विचार करेगा. ऐसे बयानों से पहले नेताजी को अपने दल की सरकार का इतिहास पता करना चाहिए।

Rajesh Badal blog: Article 370, Kashmir issue and our understanding of history | राजेश बादल का ब्लॉग: अनुच्छेद 370, कश्मीर का मसला और हमारा इतिहास बोध

कांग्रेस नहीं करना चाहती अनुच्छेद 370 के समापन में अपने योगदान को याद!

भारत में अजीब दुविधा है. लोकतंत्र सबको अभिव्यक्ति का अधिकार देता है, लेकिन शायद नागरिक अभी उसके लिए तैयार नहीं हैं. गैरजिम्मेदारी के आलम में अक्सर वे ऐसे विचार प्रकट करते हैं, जो देश को नुकसान पहुंचाते हैं. अनजाने में जो ऐसी बात करे, उसे तो एक बार क्षमा किया जा सकता है. मगर जानबूझकर कही गई बातें किस श्रेणी में रखी जाएं? 

सभ्य समाज को यह समझने की जरूरत है. कश्मीर पर ताजा बहस इसी तरह की है. चंद रोज पहले कांग्रेस की प्रथम पंक्ति के एक नेता ने डिजिटल मंच पर कहा कि यदि उनका दल सत्ता में आया तो अनुच्छेद 370 फिर बहाल करने पर विचार करेगा. 

साफ है कि इसे सियासी रंग दिया गया है. मगर यह पार्टी की अधिकृत राय नहीं है. लेकिन क्या नेताजी को कश्मीर-प्रसंग में अपने दल की सरकार का इतिहास पता है? शायद नहीं. अन्यथा वे इस तरह नहीं कहते. 

नेहरू के कार्यकाल से ही 370 के समापन की हो गई थी शुरुआत

क्या वे नहीं जानते थे कि अनुच्छेद 370 के समापन की शुरुआत तो पंडित जवाहरलाल नेहरू के कार्यकाल में ही हो गई थी. पिछले साल केंद्र सरकार ने जिस 370 को खत्म किया, वह एक तरह से खोखली थी. कई प्रावधान तो नेहरू, शास्त्री और इंदिरा गांधी के समय ही नहीं रहे थे. इसे समझने के लिए अतीत को याद करना होगा. 

भारतीय संविधान सभा में जम्मू-कश्मीर के चार लोग थे. ये थे शेख अब्दुल्ला, मिर्जा अफजल बेग, मोहम्मद सईद मसूदी और मोतीराम बागड़ा. संविधान सभा ने उनकी सहमति से अनुच्छेद 370 स्वीकार किया तो खास बिंदु थे- राज्य अपना संविधान बनाएगा, रक्षा, विदेश व संचार भारत के जिम्मे थे, संवैधानिक बदलाव के लिए राज्य की मंजूरी जरूरी थी. 

यह सहमति राज्य संविधान सभा से पुष्टि चाहती थी, राज्य संविधान सभा काम पूरा करने के बाद भंग हो जानी थी. राष्ट्रपति 370 को हटा सकते थे, पर संविधान सभा की अनुमति जरूरी थी. लब्बोलुआब यह कि जम्मू-कश्मीर संविधान सभा सर्वोच्च थी और 370 का भविष्य उसे ही तय करना था. यह अस्थायी व्यवस्था थी. 

सितंबर, 1951 में संविधान सभा के चुनाव हुए. सारी सीटें नेशनल कांफ्रेंस ने जीतीं. वजीरेआजम शेख अब्दुल्ला चुने गए. राज्य की यह पहली निर्वाचित सरकार थी. इसके बाद जुलाई, 1952 में केंद्र-नेशनल कांफ्रेंस समझौते में दोनों पक्षों ने 370 मंजूर कर लिया. अब विधानसभा ही सर्वोच्च थी. केंद्र दखल देने की स्थिति में नहीं था. राज्य का झंडा भी अलग था. भारतीय संविधान के मौलिक अधिकार सीमित ही लागू होने थे. 

आंतरिक गड़बड़ी की स्थिति में ही केंद्र राज्य की मंजूरी से इमरजेंसी लगा सकता था. धारा 356 व 360 लागू नहीं की जा सकती थी. संसद व कश्मीर विधानसभा ने भी इसकी पुष्टि कर दी थी. नवंबर, 1952 में महाराजा की गद्दी समाप्त कर दी गई. युवराज कर्ण सिंह पहले सदर-ए-रियासत चुने गए.

अमेरिका के भड़काने पर शेख अब्दुल्ला ने जब बदला अपना रुख

इसके बाद शेख अब्दुल्ला ने रंग बदले. वे कश्मीर की आजादी की बात करने लगे. उन्हें अमेरिका ने भड़काया था. बदले रुख से जनता और मंत्रिमंडल में व्यापक असंतोष था. सदर-ए-रियासत कर्ण सिंह ने शेख अब्दुल्ला को कैबिनेट की बैठक बुलाकर शांति कायम कराने का निर्देश दिया. शेख ने निर्देश को धता बताया और गुलमर्ग घूमने चले गए.
 
सदर-ए-रियासत ने सरकार बर्खास्त कर दी और शेख गिरफ्तार कर लिए गए. नेशनल कांफ्रेंस ने बख्शी गुलाम मोहम्मद को नया नेता चुना. नई सरकार बनी. नेहरू, शेख के धोखे से खफा थे. जनवरी, 1954 में नए नेतृत्व ने दिल्ली समझौते में आस्था जताई. कस्टम, आयकर और उत्पादन कर भी केंद्र को वसूलने का हक मिला. सुप्रीम कोर्ट को मान्यता दी गई. 

फरवरी, 1954 में एक बार फिर राज्य सरकार ने भारत विलय पर मोहर लगा दी. संविधान सभा ने माना कि भारतीय संविधान कश्मीर पर लागू होगा. मई, 1954 में राष्ट्रपति ने भारतीय संविधान कश्मीर पर लागू कर दिया. नवंबर में नेशनल कांफ्रेंस ने ऐलान किया कि न कश्मीर कभी पाकिस्तान में मिलेगा और न आजादी की कोशिश करेगा. 

कश्मीर भारत का अभिन्न अंग

दरअसल शेख अब्दुल्ला का रवैया उनकी पार्टी के लोगों ने पसंद नहीं किया था. अक्तूबर 1956 में कश्मीर के संविधान का अंतिम मसौदा संविधान सभा में पेश हुआ. इसमें कश्मीर भारत का अभिन्न अंग बताया गया. संविधान 26 जनवरी 1957 से लागू हो गया. संविधान सभा भंग हो गई. नए चुनाव हुए. इनमें नेशनल कांफ्रेंस ने 60 सीटें जीतीं. 

बख्शी गुलाम मोहम्मद ने फिर सरकार बनाई. इसके बाद 1959 में संविधान सभा ने चुनाव आयोग और सुप्रीम कोर्ट के कश्मीर में प्रभावशील होने को मंजूरी दी. कश्मीर में प्रवेश परमिट 1961 में खत्म हो गया. राज्य में 1962 के तीसरे चुनाव के बाद गुलाम मोहम्मद सादिक 1964 में प्रधानमंत्री बने. 

इसी साल राष्ट्रपति ने अध्यादेश के जरिए धारा 356 व 357 कश्मीर में लागू कर दी. राज्य में राष्ट्रपति शासन का रास्ता भी साफ हो गया. इस समय शास्त्रीजी प्रधानमंत्री थे. अनुच्छेद 370 छिन्न-भिन्न हो चुका था. पर अभी भी काम बाकी था. 

तीस मार्च, 1965 को विधानसभा ने सर्वानुमति से संविधान संशोधन किया कि सदर-ए-रियासत का पद राज्यपाल कहा जाएगा. राज्य में प्रधानमंत्री नहीं बल्कि मुख्यमंत्री होगा. बाद के वर्ष भी 370 के निरंतर सिकुड़ते जाने की कहानी है. मसलन राज्य से लोकसभा सांसद निर्वाचित होने लगे. हाईकोर्ट सुप्रीम कोर्ट के अधीन आ गया. अनुच्छेद 226 और 249 लागू हो गए.

यहां नेहरूजी के एक भाषण का जिक्र जरूरी है. उन्होंने कहा था, ‘अनुच्छेद 370 संविधान का स्थायी हिस्सा नहीं है. यह जब तक है, तब तक है. इसका प्रभाव कम हो चुका है. हमें इसे धीरे-धीरे कम करना जारी रखना है.’

यह निष्कर्ष निकालने में हिचक नहीं कि कांग्रेस पार्टी अनुच्छेद 370 के समापन में अपने योगदान को ही याद नहीं करना चाहती.

Web Title: Rajesh Badal blog: Article 370, Kashmir issue and our understanding of history

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