न्यूज चैनलों की भूमिका पर उठते सवाल?, ममदौट हिताड़ गांव के लोगों ने टीवी न्यूज चैनल नहीं देखने का किया फैसला
By लोकमत न्यूज़ डेस्क | Updated: May 28, 2025 05:24 IST2025-05-28T05:24:08+5:302025-05-28T05:24:08+5:30
सवाल है कि ऑपरेशन सिंदूर के दौरान सरकार जिस तरह का नैरेटिव बनाना चाहती थी क्या उसकी राह में न्यूज चैनल और सोशल मीडिया आड़े आ गए?

सांकेतिक फोटो
विजय विद्रोही
पंजाब के फिरोजपुर जिले में पाकिस्तान से सिर्फ 900 मीटर दूर बसे ममदौट हिताड़ गांव के लोगों ने टीवी न्यूज चैनल नहीं देखने का फैसला किया है. यह खबर हिला देने वाली है. गांववालों का कहना है कि ऑपरेशन सिंदूर पर आने वाली बेतुकी, झूठी, भ्रामक खबरें बच्चों और बुजुर्गों को डरा रही हैं. यह खबर न्यूज चैनलों के लिए बहुत बड़ा खतरा है तो वहीं भारत सरकार के लिए भी बहुत बड़ा सबक है. सवाल है कि ऑपरेशन सिंदूर के दौरान सरकार जिस तरह का नैरेटिव बनाना चाहती थी क्या उसकी राह में न्यूज चैनल और सोशल मीडिया आड़े आ गए?
ऐसा नहीं कि सब जानबूझ कर किया गया लेकिन अनजाने में भी यह हुआ तो उसका खामियाजा भारत को ही उठाना पड़ा. तो इस्लामाबाद पर भारतीय फौज का कब्जा नहीं हुआ, तो कराची के बंदरगाह पर भारतीय नौसेना ने बम नहीं बरसाए. तो जनरल मुनीर नहीं हटाए गए उल्टे फील्ड मार्शल हो गए. यानी टीवी न्यूज चैनलों की एक भी खबर सही साबित नहीं हुई.
संकटकाल में सरकार मीडिया से संवाद करती है, मीडिया के माध्यम से जनता से संवाद करती है. लेकिन टीवी चैनलों पर अलग ही युद्ध चलता रहा. जनता ने शुरू में इसे कुछ समय तक गंभीरता से लिया, उसके बाद हंसी-मजाक के रूप में लिया. यहां तक तो फिर भी ठीक था लेकिन जनता जब इस खेल-तमाशे से ऊबी तो सही सूचना के लिए उसने वैकल्पिक साधन तलाशने शुरू किए.
मोदी सरकार ने ऑपरेशन सिंदूर पाकिस्तान में आतंकवादियों के ठिकानों को तहस-नहस करने के लिए शुरू किया था. मोदी सरकार पूरी दुनिया को बताना चाहती थी कि पाकिस्तान की सरकार आतंकवाद को बढ़ावा देती है . आईएसआई पनाह देती है. वहां की सेना आतंकवादियों को प्रशिक्षण देती है और सीमा पार पहुंचाने में मदद करती है.
मोदी सरकार चाहती थी कि यही नैरेटिव पूरी दुनिया के सामने रखा जाए और उनका समर्थन हासिल किया जाए. सरकार चाहती थी कि जी-7 के देश पाक को आईएमएफ का कर्ज देने में रोड़े का काम करें. लेकिन भारतीय टीवी चैनलों ने इसे ड्रोन, मिसाइल, हमला, बदला, दोनों देशों की सामरिक ताकत की तुलना, चीन का दखल, पीओके पर कब्जा करो के उन्माद में बदल दिया.
बढ़ा-चढ़ा कर दावे किए गए. झड़पों का सरलीकरण किया गया. हथियारों की मंडी सजा दी गई. शेयर बाजार में हथियार बनाने वाली कंपनियों के उतरते-चढ़ते शेयर का ब्यौरा दिया जाने लगा. इसका फायदा पाकिस्तान ने जमकर उठाया. कहां तो पीड़ित देश भारत था और टीवी चैनलों की मेहरबानी से पाकिस्तान खुद को पीड़ित बताने लगा.
इसकी आड़ में आईएमएफ से कर्ज की पहली किस्त भी लेने में वह कामयाब हो गया. कूटनीति के स्तर पर पाकिस्तान नैरेटिव बनाने में सफल हो गया. कश्मीर को वह केंद्र में ले आया. दुनिया से मध्यस्थता की अपील करने लगा. नतीजा यह रहा कि अमेरिका के राष्ट्रपति ट्रम्प को हस्तक्षेप का मौका मिल गया.
यहां कायदे से भारतीय मीडिया को उन्माद की जगह फोकस पाकिस्तान के आतंकवाद पर करना चाहिए था लेकिन ऐसा हो नहीं सका. भारत नैतिकता की जमीन पर है, भारत युद्ध नहीं चाहता है, भारत संयम से काम ले रहा है, भारत सैन्य ठिकानों और नागरिकों को निशाना नहीं बना रहा है, भारत हाथ बांध कर ड्रोन मिसाइल दाग रहा है. यह सारा नैरेटिव था जो बनना चाहिए था लेकिन ऐसा हो नहीं सका.
कुल मिलाकर सूचना युद्ध में पाकिस्तान भारी पड़ गया. भारतीय नैरेटिव की पूरी संजीदगी ही जैसे खत्म हो गई. यहां तक कि मोदी सरकार के खंडन भी गंभीरता खो बैठे. वसीम बरेलवी का शेर है- वो झूठ बोल रहा था बड़े सलीके से, मैं ऐतबार न करता तो और क्या करता. पाकिस्तान झूठ बोलने में माहिर देश रहा है.
इस बात को टीवी चैनलों के संपादकों को समझना चाहिए था और टीआरपी की दौड़ से हटकर अलग ही लाइन लेनी चाहिए थी. पाकिस्तान की शायरा परवीन शाकिर का शेर है- मैं सच कहूंगी मगर फिर भी हार जाऊंगी/ वो झूठ बोलेगा और ला-जवाब कर देगा. भारत के असली पक्ष को पाकिस्तान के झूठ, फरेब, भ्रम ने धूमिल कर दिया.
यहां सवाल है कि जब टीवी चैनल अनाप-शनाप बक रहे थे तब भारत सरकार क्या कर रही थी? क्या तब नैरेटिव नुकसान का अंदाजा नहीं लग पाया? भारत सरकार को जब बोलना चाहिए था तब वह खामोश रही. यहां तक कि सूत्रों को खंडन करने के काम में लगाया गया जबकि सेना के प्रवक्ताओं को यह जिम्मेदारी संभालनी चाहिए थी.
जानकारों का कहना है कि युद्ध में आरंभ के 24 घंटे नैरेटिव बनाने में महत्वपूर्ण होते हैं. पाकिस्तान को केवल और केवल झूठ बोलना था तो वह बोलता चला गया. उसके प्रवक्ता विदेशी पत्रकारों के आगे खुद को पीड़ित, गरीब बताते रहे और साथ ही साथ परमाणु संपन्न देश होने की भी याद धमकी के रूप में दिलाते रहे.
पाकिस्तान भारतीय न्यूज चैनलों के उन्माद को सबूत के रूप में रखता रहा कि देखिए भारत किस तरह पाकिस्तान को जमींदोज करना चाहता है. यहां इसका तोड़ भारत को ही निकालना था. अगर एक फोन पीएमओ से चला जाता तो टीवी चैनल सुधर जाते. भारत को डोजियर डिप्लोमेसी की तरफ लौटना ही पड़ेगा.
भारत में विपक्षी दल अगर सबूत मांगते हैं तो भाजपा उन पर टूट पड़ती है, पाक प्रेमी घोषित कर देती है लेकिन दुनिया के दूसरे देशों को भी सबूत चाहिए. अगर भारत को नैरेटिव अपने पक्ष में बनाना है तो सबूतों का डोजियर तैयार करना ही होगा. पहलगाम के हत्यारों के सबूत भारत को रखने थे.
मुम्बई हमले के आरोपियों के सबूत किस तरह पाकिस्तान ने अखबार की कतरनें कह कर ठुकरा दिए थे उसकी याद दुनिया को दिलानी थी. ( यह काम टीवी चैनल कर सकते थे अगर उन्हें इस्लामाबाद और कराची पर बम गिराने से फुर्सत मिलती). पाकिस्तान में पनप रहे आतंकवादियों के वित्तीय साथी कौन हैं, किस बैंक में कितना पैसा किसके नाम पर रखा है,
आतंकवादियों के नए शिविर कहां-कहां खुले हैं, हाफिज सईद नजरबंदी की आड़ में कैसे खुला घूम रहा है आदि-आदि. हर साल डोजियर अपडेट होते रहना चाहिए. भारत के राजदूतों को विदेशी मित्र पत्रकारों, विचारकों, स्वतंत्र संस्थानों को विश्वास में लेना चाहिए. यह काम साल भर चलना चाहिए. आतंकवाद से जुड़ी कोई भी नई सूचना तत्काल सार्वजनिक की जानी चाहिए.
हर सूचना के साथ खुफिया जानकारी का जिक्र हो, सबूत हो तो सूचना की विश्वसनीयता बढ़ जाती है. इस समय का सच यही है कि ट्रम्प माहौल बना रहे हैं कि भारत और पाकिस्तान दोनों परमाणु शक्ति संपन्न देश हैं, दोनों मजबूत देश हैं, दोनों देशों के नेता ताकतवर हैं, दोनों देश आतंकवाद का सामना कर रहे हैं.
इस नैरेटिव को तोड़ना निहायत जरूरी है और यह काम इतना आसान भी नहीं है. तीस से ज्यादा देशों में साठ के करीब नेताओं को भेजना अच्छी शुरुआत है. लेकिन यह एक पहल ही है. इस पहल को सिलसिला बनाया जाना जरूरी है.