President Droupadi Murmu: संवैधानिक कद और भारतीयता का दुर्लभ मिश्रण हैं द्रौपदी मुर्मू
By लोकमत न्यूज़ डेस्क | Updated: July 11, 2025 05:29 IST2025-07-11T05:29:44+5:302025-07-11T05:29:44+5:30
President Droupadi Murmu: डॉ राजेंद्र प्रसाद या अनाम शहरों के युवा मानस को प्रेरित करने वाले एपीजे अब्दुल कलाम की तरह ही द्रौपदी मुर्मू का राष्ट्रपतिकाल संवैधानिक कद और लोकप्रिय प्रतीकवाद का दुर्लभ मिश्रण है.

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प्रभु चावला
विगत 30 जून को प्राचीन शहर गोरखपुर सिर्फ राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू की मेजबानी के लिए तैयार नहीं हो रहा था, वह और भी बहुत कुछ का गवाह बना. मानसून के बादल भरे आकाश के नीचे महामहिम ने गोरखपुर मंदिर के गर्भगृह में सिर्फ प्रार्थना के लिए नहीं, बल्कि राजनीतिक प्रतिनिधित्व के लिए प्रवेश किया. उनका दौरा राष्ट्रपति का रूटीन दौरा नहीं था, यह जनता के भरोसे, बेहतर प्रशासन और देश के नैतिक भूगोल के बीच हो रही खामोश क्रांति की पुष्टि से जुड़ा अनुष्ठान था. तुरंत स्वतंत्र हुए भारत के मंदिरों में खाली पैर प्रवेश करने वाले डॉ राजेंद्र प्रसाद या अनाम शहरों के युवा मानस को प्रेरित करने वाले एपीजे अब्दुल कलाम की तरह ही द्रौपदी मुर्मू का राष्ट्रपतिकाल संवैधानिक कद और लोकप्रिय प्रतीकवाद का दुर्लभ मिश्रण है.
राष्ट्रपति के आधिकारिक दौरे सिर्फ कैलेंडर की शोभा नहीं बढ़ाते, वे देश के भावनात्मक और राजनीतिक भूगोल का फिर से नक्शा खींचते हैं, और इस प्रक्रिया में हाशिये पर रहने वालों को देश के हृदय प्रदेश में ले आते हैं. द्रौपदी मुर्मू कई पूर्ववर्तियों से अलग हैं. तीन वर्ष से भी कम के राष्ट्रपतिकाल में उनके 203 दिन यात्रा करते हुए बीते हैं.
कर्नाटक से पूर्वोत्तर, तमिलनाडु से तेलंगाना तक और केरल से आंध्र प्रदेश तक- उनकी यात्राएं सिर्फ प्रोटोकॉल का हिस्सा नहीं हैं, इन जगहों में उनकी उपस्थिति एक श्रद्धालु की उपस्थिति है. अपने गृहराज्य ओडिशा में उन्होंने आदिवासी इलाकों में रेल पटरियों की नींव रखी और मूर्तियों, मंदिरों तथा छात्रावासों का उद्घाटन किया.
उन्होंने चेन्नई में लड़कियों की एक यूनिवर्सिटी का उद्घाटन किया- जो मयूरभंज के संताल गांव से राष्ट्रपति भवन तक पहुंचने की उनकी उपलब्धि की तरह ही प्रेरित करने वाला था. उनकी हर यात्रा कैनवास पर खींची गई रेखाओं की तरह है. एक साथ मिलने पर उनसे एक ऐसे गणतंत्र का चित्र बनता है, जो देख, सुन और जोड़ सकता है.
बेशक यहां एक ठोस राजनीतिक संदेश भी है. उनका राष्ट्रपति पद सांस्कृतिक दृढ़ कथन, जमीनी स्तर पर एकीकरण और क्षेत्रीय मजबूती के भाजपा के नजरिये से कहीं खुलेआम, तो कहीं अस्पष्ट रूप से जुड़ा हुआ है. इस तरह से वह एक प्रतीक भी हैं, और शक्ति भी. उनका अभियान बताता है कि गणतंत्र की आत्मा लोगों को बाहर करके नहीं, समावेशन से आकार लेती है.
उन्होंने राष्ट्रपति की दृष्टि को दिल्ली के लुटियंस जोन से आगे ले जाकर असम के चाय बागानों, ओडिशा के आदिवासी गांवों और बरेली के यूनिवर्सिटी हॉल तक विस्तार दिया है. उनकी यात्राएं प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा समावेशी हिंदुत्व के विमर्श निर्माण के प्रयासों के अनुरूप हैं, जहां आदिवासी विरासत, महिला सशक्तिकरण और ढांचागत प्रगति- सभी को भगवा कैनवास में जगह मिलती है.
लेकिन मुर्मु को भाजपा का शुभंकर समझ लेना गलत होगा. उन्होंने गणतंत्र के आध्यात्मिक प्रयोजन को उसकी समुचित जगह दी है. वेदमंत्रों का उच्चारण और स्नातक के प्रमाणपत्रों का पाठ वह एक समान सहजता से करती हैं. जितनी सहजता से वह मैसुरू के दशहरा में हाथी की पीठ पर आसीन होती हैं, उसी सहजता से कोलकाता में रवींद्र संगीत का आनंद लेती हैं.
कुछ दूसरे राष्ट्रपतियों ने जहां दूरी बनाने को कला की तरह विकसित किया, वहीं द्रौपदी मुर्मु ने परिचय और नजदीकी पर भरोसा किया. उनके सफरनामे में कई बुनियादी प्रश्नों के उत्तर हैं. जैसे भारतीय कौन है? भाषणों से नहीं, अपनी गतिविधियों से वह इसका उत्तर देती हैं, यहां का हरेक व्यक्ति भारतीय है. राष्ट्रपति का ओहदा, जाहिर है, शक्ति का नहीं, अपनी उपस्थिति जताने का मामला है.
राष्ट्रपति भवन में मुर्मू की उपस्थिति राजनीतिक नहीं, दार्शनिक उपस्थिति है, जो याद दिलाती है कि भारत क्या है और उसे क्या होना चाहिए: जाहिर है, भारत भूगोल से ज्यादा एक नैतिक विचार है. राष्ट्रपति भवन कभी औपनिवेशिक शक्ति और उसकी भव्यता का प्रतीक था. लेकिन अब वह महत्वाकांक्षा, समानता और प्राचीन गौरव की बात करता है. द्रौपदी मुर्मू में भारत एक राष्ट्रपति को नहीं, स्वयं को देखता है.